क्योंकि डर के आगे जीत है

क्योंकि डर के आगे जीत है

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दिति अचानक नींद से उठकर बैठ गयी। कुछ देर तक अपने आस-पास ध्यान से देखने पर उसे अहसास हुआ कि अभी कुछ देर पहले तक वो सपनों के संसार में गोते लगा रही थी।

घड़ी पर उसकी नज़र पड़ी तो देखा सुबह के चार बज रहे थे।

स्वयं से ही बातें करते हुए उसने कहा "ओह्ह, आज फिर से वही सपना और कितना जीवंत। सुबह का सपना तो सच होता है, तो क्या सचमुच ये भी कभी सच होगा? क्या मैं कभी जा सकूंगी अपने आराध्य के शहर? एक बार फिर से रमन से बात करके देखूंगी कल।"

बगल में सोये अपने पति रमन पर एक नज़र डालकर दिति फिर से सोने की कोशिश करने लगी।

सुबह नाश्ते के वक्त दिति ने रमन से कहा "सुनो ना, थोड़ी देर के लिए अखबार नीचे रखो। मुझे कुछ बात करनी है।"

"क्यों क्या अखबार पढ़ते हुए मेरे कान बंद हो जाते है? बोलो जो बोलना है।" रमन ने बिना दिति की तरफ देखते हुए कहा।

दिति ने अपने सपने के बारे में रमन को बताया और बोली "बस एक बार ले चलो ना मुझे मेरे महादेव के पास।"

रमन ने दो टूक शब्दों में जवाब दिया "तुम्हारे बेतुके सपनों को सच करने का वक्त नहीं है मेरे पास। जाना है तो अकेली चली जाओ। कोई बच्ची नहीं हो तुम।"

और अपने दफ्तर के लिए निकल गया।

दिति हमेशा ही रमन के वक्त के लिए तरसती थी, लेकिन रमन या तो अपने काम में ही व्यस्त रहता था या फिर अखबार और मोबाइल में।

जब दिति उससे शिकायत करती तो वो कहता "शादी को दस वर्ष बीत गए, बेटा भी बाहर पढ़ने चला गया और तुम चाहती हो कि मैं कॉलेज के लड़कों की तरह तुम्हारे हाथ में हाथ डाले बैठा रहूँ तो ये मुझसे नहीं होगा।"

कभी-कभी दिति का जी चाहता था वो भी रमन को इसी तरह झिड़क दे और कहे कि जिस तरह वो अपने काम के बाद ही दिति को रखता है, उसी तरह दिति के काम भी जरूरी है, वो हर वक्त उसकी मर्जी के अनुसार उसके लिए, उसकी जरूरतों के लिए उपलब्ध नहीं रह सकती। लेकिन फिर एक अजीब सा डर उसके मन में घुमड़ने लगता कि कहीं रमन उसे अकेला छोड़कर चला गया तो वो क्या करेगी?

बचपन से ही अकेले छोड़े जाने के डर से वो घर के सदस्यों से लेकर दोस्तों तक कि हर बात चुपचाप मान लेती थी और अब शादी के बाद भी उसकी यही स्थिति थी।

बावजूद इसके वो हमेशा से अकेली ही तो थी। उसके सुख-दुख, पसंद-नापसंद, इच्छा-अनिच्छा की परवाह थी ही किसे? सबके लिए वो जरूरतें पूरी करने वाली एक मशीन भर थी।

"अकेली चली जाओ" ये शब्द दिति के दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहे थे।

आस-पास लोगों की भीड़ देखकर उसे अजीब सी बेचैनी होती थी। अकेले सफर करना उसके लिए नामुमकिन था। ये रमन जानता था।

दिति की आँखों से बहते हुए आँसू जब उसकी हथेली पर गिरे तब उसकी तंद्रा टूटी।

अपने आँसू पोंछते हुए उसने अपने कंधे पर हाथ रखा और स्वयं को समझाने के अंदाज में बोली "बस दिति, तू क्यों अपनी छोटी-छोटी खुशियों के लिए सब पर निर्भर रहती है? तुझे समझना ही होगा कि तेरी परवाह करने वाला कोई नहीं है। इसका अर्थ ये बिल्कुल नहीं कि तू भी अपनी परवाह करना बंद कर दे। चल उठ, अपना हाथ थाम और ज़िन्दगी में आगे बढ़। चल अपने सपनों को सच करने।"

"लेकिन अगर रमन नाराज हो गया तो?" दिति के घबराए हुए दिल ने जैसे उससे कहा।

अपनी घबराहट को संभालने की कोशिश करते हुए उसने फिर अपने-आप को समझाया "जो होगा देखा जाएगा।"

ऐसे ही अनेक विचार उसके दिलो-दिमाग में घुमड़ रहे थे।

कुछ दिनों तक आत्ममंथन करने के पश्चात आखिरकार दिति ने तय कर लिया कि अपने डर का सामना करते हुए वो अकेली सफर करेगी।

शाम को जब रमन घर लौटा तब दिति ने उससे पूछा "मैं अकेले सफर करने के लिए तैयार हूँ। तुम्हारी जरूरत का सारा सामान अलमारी में एक जगह रख दिया है। खाने के लिए बाई को सब बता दिया है। क्या मैं कल जाऊँ?"

"जब तुमने सब तय कर ही लिया है तो मुझसे पूछने की क्या जरूरत है?" रमन के स्वर में बेरुखि थी।

दिति का जी चाहा वो चीखकर कहे "जब तुम अपनी मर्ज़ी से बिना मुझे बताए अपने फैसले लेते हो तब सब सही होता है, आज मेरी बात आयी तो बेरुखी झलकने लगी।"

लेकिन बेकार का विवाद ना हो इसलिए हमेशा की तरह वो चुप रह गयी।

लैपटॉप पर अगले दिन की टिकट बुक करने के बाद दिति सोने चली गयी।

उसके मन में एक तरफ उत्साह था, तो दूसरी तरफ अंजाना सा डर भी।

अगले दिन जब दिति के स्टेशन जाने का वक्त हुआ तो उसने रमन को फोन किया "क्या मुझे स्टेशन तक छोड़ दोगे?"

"शहर में ऑटोरिक्शा की कमी नहीं है।" बोलकर रमन ने फोन रख दिया।

दिति ने फिर अपने-आप को समझाया "बस अब और नहीं।"

अपना बैग उठाकर पहली बार दिति ने आत्मविश्वास के साथ घर से बाहर कदम निकाले।

स्टेशन पहुँचकर जब वो ट्रेन में अपनी निर्धारित सीट पर बैठी तो उसकी धड़कनों की रफ्तार मानों दोगुनी हो गयी थी।

अगल-बगल बैठे अंजान लोगों को देखकर अंदर से वो बहुत डर रही थी लेकिन भरसक कोशिश कर रही थी कि उसका डर उसके चेहरे पर ना झलके। खुद को सहज करने के लिए उसने अपने बैग से एक किताब निकाली और उसमें डूबने की कोशिश करने लगी।

रेलगाड़ी के आगे बढ़ने के साथ-साथ अब अंधेरा भी अपने पांव तेजी से पसार रहा था।

अपने साथ लाया हुआ खाना खाकर दिति अपनी बर्थ पर लेट गयी, लेकिन नींद आँखों से कोसों दूर थी।

विचारों में डूबते-उतरते जैसे-तैसे रात गुजरी। अगली सुबह जब रेलगाड़ी अपने आखिरी पड़ाव पर रुकी तब प्लेटफॉर्म पर कदम रखते हुए सहसा दिति को यकीन नहीं हुआ कि वो अपने सपनों के शहर में थी, अपने महादेव के बहुत नजदीक 'बनारस' में।

बनारस जो नगरी है देवों के देव महादेव की, नगरी है प्रेम की, मोह से मुक्ति की, फिर भी जो एक बार यहां आ जाता है वो इसके मोहपाश से ऐसा बंध जाता है कि जीवन भर इस बंधन को तोड़ नहीं पाता है।

बनारस में कदम रखते ही अकेले सफर करने का दिति का डर अब मन से पूरी तरह जा चुका था।।उसने सोचा एक बार रमन को फोन कर ले फिर ये सोचकर फोन रख दिया कि डर-डरकर बहुत परवाह कर ली मैंने सबकी। अब दूसरों की बारी है अपनी तरफ से निभाने की।

अपने ठहरने के लिए दिति ने पहले ही होटल बुक कर लिया था। ऑटो वाले को होटल का नाम बताकर वो चल पड़ी बनारस की गलियों में।

दिति के उत्साह का आज ठिकाना नहीं था। अपने जीवन के दो बड़े डरों से मुक्ति पाकर वो खुद को बहुत हल्का महसूस कर रही थी।

होटल पहुँचकर उसने चेक-इन किया। अपने कमरे में पहुँचकर फ्रेश होने के बाद वो सबसे पहले अपने महादेव के दर्शन करने काशी-विश्वनाथ मंदिर की तरफ निकली।

संयोग से आज दर्शन के लिए ज्यादा लम्बी कतार नहीं थी।

जब वो महादेव के समक्ष पहुँची तो उसकी आँखों से आँसुओं की धार बहने लगी।

उसके लिए ये यकीन करना मुश्किल था कि जिनके दर्शन उसने हमेशा सपने में ही किये थे वो आज सचमुच उसके सामने प्रत्यक्ष थे।

दर्शन करने के बाद घूमते-घूमते दिति गंगा-घाट पहुँची। वहां किनारे छोटी-मोटी कई तरह की दुकानें सजी थी। कहीं फूल मिल रहे थे, कहीं आरती का सामान, कहीं पंडित जी बैठकर लोगों का भविष्य बता रहे थे।

दिति की नज़र एक कोने में बैठी हुई एक बूढ़ी महिला पर पड़ी जो चूड़ियां बेच रही थी।

दिति उसके पास पहुँची। चूड़ियां देखते हुए वो बीच-बीच में बूढ़ी महिला को भी देख रही थी।

उसे यूँ अपनी तरफ देखते हुए पाकर बूढ़ी महिला ने पूछा "क्या बात है बिटिया? मेरी तरफ ऐसे क्यों देख रही हो?"

"नहीं-नहीं, कुछ नहीं चाचीजी" दिति घबराकर बोली।

"चाची भी कहती हो और घबराती भी हो? बताओ क्या बात है? कोई परेशानी है क्या बिटिया?" बूढ़ी महिला ने फिर कहा।

उनकी बात सुनकर दिति बोली "चाचीजी, मैं सोच रही थी आप इस उम्र में भी काम क्यों कर रही है?"

"बस इतनी सी बात बिटिया। आज पहली बार किसी ने मेरे जीवन के बारे में जानना चाहा है। तो सुनो, सारी ज़िन्दगी मैंने अपने परिवार पर न्योछावर कर दी जो कि ज्यादातर स्त्रियां करती है। अब बच्चे बड़े हो गए। उनकी अपनी दुनिया है। पति को शुरू से ही मुझसे खास मतलब था नहीं। तो मैंने सोचा खाली बैठकर, बेकार की बातें सोच-सोचकर स्वयं को बीमार करने से अच्छा कुछ काम कर लूं। चूड़ियों का मुझे सदा से शौक था तो जो थोड़ी-बहुत जमा-पूंजी थी उससे ये छोटी सी दुकान सज़ा ली। अब वक्त भी कट जाता है, और अपने छोटे-छोटे खर्चों के लिए किसी के आगे हाथ भी नहीं फैलाना पड़ता।" बूढ़ी महिला ने दिति के हाथ में उसकी पसंद की चूड़ियां पहनाते हुए कहा।

दिति ने हैरानी से पूछा "आपको डर नहीं लगा कि आपके परिवार वाले नाराज हो जाएंगे या फिर आपकी दुकान अगर नहीं चली तो क्या होगा?"

"बिटिया, हम स्त्रियां अपनी आधी ज़िन्दगी तो ऐसे ही डरों के साये में गुजार देती है कि कहीं पिताजी ना नाराज हो जाएं, भाई ना बुरा मान जाए, पति ना छोड़ दे, बेटा ना मुँह फेर ले, और इन डरों के बोझ तले दबकर कब हमारे सपने, हमारी इच्छाएं मर जाती है हम जान भी नहीं पाते। लेकिन अब जीवन के अंतिम पड़ाव पर तो कम से कम इस डर से मुक्त हो ही जाना चाहिए।

और रही बात असफलता से डरने की तो अगर हर इंसान डरने लगे तो क्या दुनिया में नित-नए आविष्कार होंगे? हम तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ पाएंगे? असफल तो वो होता है जो कोशिश करना छोड़ देता है।" बूढ़ी महिला ने दिति के सवालों का जवाब देते हुए कहा।

उनकी बातें सुनकर दिति को याद आया कि जब भी वो रमन से कहती कि मैं कुछ काम शुरू कर लूँ क्या तब रमन उसका मजाक उड़ाते हुए कहता "तुमसे भला क्या होगा? असफल होकर मुँह लटकाये तुम्हें रसोई में ही नज़र आना है।"

और फिर दिति घबराकर अपनी योजनाओं को बक्से में बंद कर देती।

गंगा घाट पर बैठी हुई दिति गहरी सोच में डूब गई थी "कितनी सही बात कही चाचीजी ने। मुझ जैसी पढ़ी-लिखी बेवकूफ स्त्री से तो वो अशिक्षित स्त्री काबिल है, खुश है। क्या मैं ऐसी नहीं हो सकती ?" दिति ने स्वयं से सवाल किया।

उसके अंतर्मन ने उसे जवाब देते हुए कहा "क्यों नहीं हो सकती ? एक बार स्वयं पर भरोसा करके कदम आगे तो बढ़ाओ।"

मन ही मन कुछ तय करके दिति वहां से निकल ही रही थी कि अचानक उसकी नज़र पास में हो रहे शोर-शराबे पर पड़ी।

उसने देखा एक आदमी किसी महिला का पर्स लेकर भाग रहा था लेकिन वहीं खड़े एक कुत्ते ने उस पर झपटकर उसकी मंशा को नाकामयाब कर दिया था। अब आस-पास मौजूद लोग उस चोर को घेरे हुए थे।

कुत्ते से बहुत डरने वाली दिति मन ही मन हनुमान चालीसा का जप करते हुए वहां से जाने लगी तो उसने देखा चोर के मारे हुए पत्थर से कुत्ते के पैर पर गहरी चोट आई थी और खून बह रहा था। कुत्ते की आँखों में आँसू थे लेकिन किसी का उसकी तरफ ध्यान नहीं था।

दिति को समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे। उसने पर्स वाली महिला से कहा "बहन जी, वो कुत्ते के पैर में चोट लगी है। आस-पास से कोई दवा मिले तो लगा दीजिये।"

उस महिला ने बेफिक्री से कहा "इतनी परवाह है आपको मैडम तो आप ही लाकर लगा दीजिये।"

उसकी बात सुनकर दिति के मन में गुस्सा भर आया। कैसे-कैसे अहसानफरामोश लोग है दुनिया में।

आस-पास दवा दुकान ढूंढकर वहां से दवा लेकर दिति कुत्ते के पास आई। लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कुत्ते को छूने की।

एक बार फिर से हनुमान चालीसा का जप करते हुए वो हिम्मत जुटाकर कुत्ते के पास बैठी और रुई में दवा लगाकर जब उसने कुत्ते के घाव पर रखा तो कुत्ता अपनी जीभ से उसके हाथों को सहलाने लगा मानों धन्यवाद कह रहा हो। डरते-डरते दिति ने हाथ बढ़ाकर उसके आँसू पोंछे और अपने बैग से बिस्किट निकालकर उसके सामने रखकर चली गयी।

जहां कुत्ते ने उसे चाटा था उस स्थान को छूते हुए दिति को एक अलग ही अहसास हो रहा था। आज पहली बार उसे किसी ने अपनेपन का अहसास दिया था।

अगले दो दिनों तक दिति बनारस में थी। जब भी वो गंगा घाट की तरफ जाती वो कुत्ता आकर उसके पैरों के पास आकर बैठ जाता।

पहली बार दिति के पास एक दोस्त था जिससे वो बातें कर सकती थी।

बनारस से जाने से पहले जब दिति अपने इस दोस्त से मिलने घाट पहुँची तो ना जाने कैसे उस कुत्ते को दिति के जाने का अहसास हो गया। फिर तो दिति की ऑटो आगे-आगे और कुत्ता उसके पीछे-पीछे। जब तक दिति की ट्रेन प्लेटफॉर्म से आगे नहीं बढ़ी वो वहीं खिड़की पर खड़ा रहा। ये लम्हा दिति ने हमेशा के लिए अपने मन में कैद कर लिया था।

पहली बार उसे लगा था कि कोई है जो उसका भी शुभचिंतक है।

जैसे-जैसे ट्रेन आगे बढ़ रही थी दिति के सारे डर पीछे छूटते जा रहे थे।

अपने महादेव की कृपा से वो एक नई ही दिति बनकर अपने शहर वापस लौट रही थी।

जब दिति घर पहुँची तब रमन दफ्तर के लिए जा चुका था। थोड़ी देर आराम करके सफर की थकान मिटाने के बाद उसने बिखरे हुए घर को धीरे-धीरे साफ किया।

शाम में जब रमन घर लौटा और दिति को देखा तो उसने मन ही मन सोचा "अब मैडम जबरदस्ती अपनी बोरिंग कहानियां सुनाकर दिमाग खराब करेगी।"

लेकिन उसकी सोच के विपरीत दिति शांत थी। उसने रमन से बस इतना ही कहा "खाना बन गया है। जब खाने का मन हो आवाज़ लगा देना।" और अपने कमरे में चली गयी।

ये देखकर रमन को एक पल के लिए अजीब लगा, लेकिन फिर वो अपने फोन में डूब गया।

अगले दिन रमन के दफ्तर जाने के बाद दिति ने जानवरों के लिए काम करने वाली एक संस्था में फोन किया जहां एक नौकरी की जगह खाली थी।

दिति को साक्षात्कार के लिए बुला लिया गया।

जब साक्षात्कार में दिति से पूछा गया कि वो ये नौकरी क्यों करना चाहती है, तब दिति ने कहा "मैं झूठ नहीं कहूँगी अभी चार दिन पहले तक मुझे जानवरों से बहुत डर लगता था। लेकिन फिर एक अनुभव ने मुझे अहसास कराया की इंसानों से कहीं ज्यादा जानवर हमारे अच्छे और सच्चे दोस्त साबित होते है जो बिना किसी स्वार्थ के हमारे थोड़े से स्नेह के बदले ढ़ेर सारा स्नेह हमें वापस लौटाते है। इसलिए आपकी संस्था के साथ जुड़कर मैं उनके लिए कुछ करना चाहती हूँ।"

दिति के जवाब से संतुष्ट होकर संस्था के मालिक ने उसकी नौकरी पक्की कर दी।

उस संस्था में शहर भर से लावारिस घायल पशुओं को लाकर उनका उपचार किया जाता था और उनके खाने की व्यवस्था की जाती थी।

दिति इस संस्था के साथ जुड़कर बहुत खुश थी। पहली बार उसने स्वयं अपने लिए कोई फैसला लिया था, और उसे महसूस हो रहा था कि उसके जीवन का भी कोई अर्थ है।

जब दिति ने रमन को अपने इस फैसले के बारे में बताया तब रमन ने कहा "चलो अच्छा है, व्यस्त रहोगी तो मेरी जान भी नहीं खाओगी।"

दिति ने कुछ नहीं कहा बस मुस्कुराकर अपने काम में लग गयी।

संस्था में आये हुए घायल पशुओं की मरहम पट्टी करते हुए दिति को यूँ महसूस होता था जैसे उसका घायल मन भी अब धीरे-धीरे स्वस्थ हो रहा था।

वक्त के साथ दिति ने उस संस्था में अपनी एक खास जगह बना ली थी।

राज्य सरकार की तरफ से विश्व पशु दिवस पर पशुओं के लिए काम करने वाली संस्थाओं को पुरस्कार देना तय किया गया था। इसके लिए सभी संस्थाओं से उनके दो काबिल सदस्यों की सूची मांगी गई थी।

दिति की संस्था ने अपनी तरफ से दिति और एक दूसरे सहयोगी का नाम भेज दिया।

आज कार्यक्रम की शाम थी। दिति बहुत उत्साहित थी। एक बार उसका जी चाहा रमन को साथ चलने के लिए कहे, लेकिन फिर उसकी बेरुखी को याद करके दिति ने उससे कुछ नहीं कहा।

शाम में जब रमन घर लौटा तब दिति कार्यक्रम में जा चुकी थी। उसे टेबल पर पड़ा हुआ कार्यक्रम का कार्ड मिला। ना जाने क्या सोचकर रमन कार्यक्रम में चला गया और जाकर पीछे बैठ गया।

जब दिति को पुरस्कार लेने के लिए बुलाया गया और पुरस्कार लेने के बाद उससे चंद शब्द बोलने के लिए कहा गया, तब दिति ने कहा "मैं बचपन से ही बहुत डरपोक किस्म की रही हूँ। अपने लिए फैसले लेने से डर लगता था मुझे, डर लगता था कि अगर अपने अपनों की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर कुछ किया तो वो मुझे अकेला ना छोड़ दें, डर लगता था अकेले सफर करने से, घर से बाहर निकलकर कुछ काम करने से की कहीं असफल ना हो जाऊँ और सबके बीच मज़ाक का पात्र ना बन जाऊँ, और डरती थी मैं जानवरों से।

लेकिन फिर मेरे महादेव ने मुझे एक सपना दिखाया और उस सपने की डोर थामे अपने पति के कहने पर जब पहली बार मैं अकेली बनारस के सफ़र पर निकली तब एक-एक करके मैं अपने इन सारे डरों से मुक्त होती गयी।

बनारस, मुक्ति और प्रेम के शहर ने मुझे सिखाया अकेला वो होता है जो स्वयं का हाथ नहीं थामता। जो अपने सपनों के लिए, अपनी खुशियों के लिए नहीं लड़ सकता, जो स्वयं से प्यार नहीं कर सकता वो किसी और से भी प्यार नहीं कर सकता, किसी और को भी खुशी नहीं दे सकता।

और सबसे बड़ी बात जो मैंने सीखी वो ये की हम इंसान कृतघ्न हो सकते है, दोस्ती और प्यार के अहसास को नकार सकते है लेकिन ये जानवर नहीं।

आज जब मैं अपना हाथ थामकर ज़िन्दगी के एक नए सफर पर चल पड़ी हूँ अकेली, तो पहले की तरह अकेलेपन का अहसास मेरे साथ नहीं है, कोई खालीपन नहीं है, कोई डर नहीं है कि लोग मेरा साथ छोड़ देंगे, क्योंकि अब मैंने खुद अपना साथ देना सीख लिया है, असफलताओं से आगे बढ़कर लोगों के मज़ाक का मुस्कुराते हुए सामना करना और अपने सपनों के लिए जीना सीख लिया है।"

हाथ में पुरस्कार थामे 'डर के आगे जीत है' ये कहावत आज दिति को सच होती नजर आ रही थी।

दिति की बात सुनकर जहां सभी लोग तालियां बजा रहे थे, वहीं रमन की आँखों में पहली बार आँसू थे, पछतावे के आँसू।

जब दिति घर के लिए निकलने लगी तो रमन ने पीछे से उसका हाथ थाम लिया। दिति चौंककर पीछे मुड़ी और रमन को सामने देखा तो उसे सहसा यकीन नहीं हुआ।

वो चुपचाप रमन के साथ आकर गाड़ी में बैठ गयी।

रास्ते भर उनके बीच ख़ामोशी थी।

घर पहुँचकर रमन ने दिति से कहा "हमेशा तुम्हें मुझसे बातें करनी होती थी, लेकिन आज मैं तुमसे बातें करना चाहता हूँ।"

ये सुनकर दिति ने हैरानी से रमन की तरफ देखा जैसे नए सिरे से उसे पहचानने की कोशिश कर रही हो।

रमन ने कहा "दिति, मुझे अहसास भी नहीं था कि मेरे व्यवहार से तुम्हें किस कदर चोट पहुँचती होगी। साथ रहकर भी अकेला कर दिया था मैंने तुम्हें। उन गुजरे हुए दिनों के लिए, उन तकलीफों के लिए चाहे मैं तुमसे लाख माफी मांगू वो भी कम ही होगा।

लेकिन मुझे खुशी है कि तुमने अपनी खुशियों को ढूंढना और उनके साथ जीना सीख लिया है। बस तुमसे इतना ही कहना है कि तुमने अकेले चलना सीख लिया है लेकिन तुम्हारा ये नालायक पति आज भी कदम-कदम पर तुम्हारे साथ का मोहताज है। इसे छोड़कर कभी मत जाना।

तुम्हारा ये पति तुमसे वादा करता है कि वो आगे से तुम्हारे हर कदम पर तुम्हारे साथ खड़ा होगा, बस अपने व्यस्त जीवन से तुम उसके लिए थोड़ा सा वक्त निकाल लेना।"

रमन की बात सुनकर पहली बार दिति मुस्कुराई। आज की उसकी मुस्कुराहट झूठी नहीं थी।

उसने रमन से कहा "तो फिर ठीक है, मैं जल्दी से चाय बनाकर लाती हूँ। फिर तुम्हें बनारस की अपनी नई जीवन-यात्रा के किस्से सुनाऊँगी। सुनोगे ना?"

"बिल्कुल सुनूंगा" कहते हुए रमन भी मुस्कुराया।

जब दिति चाय लेकर आई तब आदत के अनुसार रमन अपना फोन देख रहा था। दिति को देखते ही उसने अपना फोन बंद करके किनारे रख दिया।

ये देखकर सहसा दिति खिलखिलाकर हँस पड़ी। उसे इस तरह हँसते हुए देखकर रमन भी उसकी हँसी में शामिल हो गया था।

बनारस में मिली हुई उन बूढ़ी महिला को मन ही मन प्रणाम करते हुए दिति सोच रही थी "सचमुच, जब हम स्वयं अपने-आप से प्यार करना, अपनी कद्र करना सीख जाते है, तभी ये दुनिया भी हमारी कद्र करती है, हमसे प्यार करती है।"


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