Rita Singh

Inspirational

4.6  

Rita Singh

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क्या मेरा कुसूर है

क्या मेरा कुसूर है

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हमेशा की तरह वह मुझे देखकर मुस्कुराई। जवाब में मैं भी मुस्कुरा दी।

हर रोज सुबह मुझे वह इसी ऑटो स्टैंड पर मिलती हैं। सुन्दर नयन नक्श, छरहरा बदन, सलीखे से पहनी साड़ी, कानों में मैच करती बालियां, होठों पर लिपस्टिक तथा हाथो में लटकती बैग। मैंने कभी उससे बात करने की कोशिश नहीं की न ही उसने। बस देख कर हम मुस्कुराते। मुझे शिक्षिका की नौकरी के लिए यहाँ पोस्टिंग होकर आये हुए कुछ ही महीने हुए थे। मुझे पढ़ाने के लिए गावं के अंदर के स्कूल में जाना पड़ता हैं। सो रोज मैं ऑटो से वहाँ जाती हूँ और वो आधे रास्ते में उतर जाती हैं। शहर से दूर इस गावं में आकर बच्चों को पढ़ाना, नई- नई जानकारियां देना, सीखाना मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था। हालांकि नए माहौल में खुद को ढालना मेरे लिए सहज नहीं था। किताबी ज्ञान के अलावा भी मुझे बच्चों को रचनात्मक कार्य के साथ सामाजिक मुद्दा हो या साधारण ज्ञान की बाते शेयर करना अच्छा लगता था। यह देख मेरे सहकर्मियों को अच्छा नहीं लगता था। एकदिन तो दिनेश ने कह भी दिया - चारदिन की चांदनी फिर अँधेरी रात, यहाँ शिक्षा से क्या मतलब बच्चों को,लेसन पढ़ाओं,सेलरी लो चलता बनों। उसकी मानसिकता पर मैं हैरान रह गई। क्या हमें सरकार ने केवल सैलरी के लिए नियुक्त किया हैं ? हमारी और कोई जिम्मेदारी नहीं, ऐसे लोगों को शिक्षक की नियुक्त क्यों देती हैं सरकार। मैं मन ही मन सोचने लगी।लोग चाहे जो कहे, करे पर मुझे अपनी सीमा पता हैं, मैं अपना कार्य मन लगाकर करने लगी, मेरे काम से हेड मास्टर जी खुश थे। मगर मेरे सहकर्मी नंदा और दिनेश को मेरा बच्चों से कनेक्ट होना बिलकुल पसंद नहीं आया। नंदा कहने लगी इतनी बाते सीखाने की क्या आवश्यकता हैं ? बड़ी महान बनी फिरती है, पता चलेगा जल्दी ही, नई- नई है न ! जब जोश ठंडा पड़ जाएगा तब पता चलेगा। दोनों कुटिल मुस्कान बिखरते हुए चले गए। मैं भौचक्की हो जाती हूँ उनदोनों की मानसिकता पर। खैर, मुझे बच्चों के विकास,समाज और देश के हितार्थ कार्य करना अच्छा लगता हैं। मैं दोनों की बातों को नजर अंदाज करते हुए अपना कर्तव्य की तरफ फोकस करती हूँ। हेडमास्टर जी से कहकर मैंने एकदिन बच्चों के लिए रचनात्मक कार्यक्रम रखा। बच्चे भी बहुत खुश थे और पढाई में भी उनका मन लगने लगा था। चाहे खेल हो, चाहे चित्रकारी या फिर डिबेट हो या क्विज सब इंटरेस्टिंग बन गया था।मेरे सहकर्मियाँ भी अब धीरे - धीरे बदलने लगे थे। तभी तो एकदिन नंदा आकर बोली तुमने कमाल कर दिया।  मैंने कहा - हम सब में कमाल करने की ताकत हैं, बशर्ते कि हमारे इरादे साफ़ हो। वह थोड़ी झेप सी गई और चुपचाप वहाँ से चली गई।

कुछ दिनों से वह मुझे दिखाई नहीं दे रही थी। हमेशा मिलने वाली सहयात्री को न देखकर मेरा मन जिज्ञासा से भर उठा। पर मैं पूछूं तो किससे मुझे उसका नाम भी तो  नहीं पता। मेरी नजर उसे ढूढ़ ही रही थी कि यकायक ऑटोवाले ने पूछा -" बहन जी किसे ढूढ़ रही हैं आप ?"

"अरे वो आती थी न सुन्दर नयन नक्श वाली.....?"

"अरे वो, श्यामली ! उसका तो एक्सीडेंट हो गया हैं।" "क्या !!,कैसे ??? " मैंने जानने की कोशिश की। 

"डांस करते वक्त पता नहीं कैसे वह गिर गई और पैरो में जबरदस्त चोट आई। किसी ने मुझे बताया था। "

"ओह, तो क्या वह डांसर है?"

"जी बहन जी। किस हॉस्पिटल में हैं ?"

"सिविल हॉस्पिटल में। "

"थैंक्यू भैया। " कहते हुए मेरा कदम सिविल हॉस्पिटल की ओर अपने आप बढ़ने लगा।

हॉस्पिटल में पहुंचकर मैं श्यामली को ढूढ़ने लगी। आखिर मुझे वह मिल गई। अचानक मुझे वहाँ देखकर उसे आश्चर्य हुआ और हलके से मुस्कुरा दी। प्रत्युत्तर में मैं भी मुस्कुराते हुए पास में  पड़े स्टूल को खींचकर उसके सामने बैठ गई।

"दीदी आप ? "पहली बार मैंने उसकी आवाज सुनी थी।

"हाँ श्यामली। "

"आपको मेरा नाम पता हैं ?"

"हाँ, मुझे ऑटो वाले भैया ने बताया आज। कुछ दिनों से तुम्हे नहीं देखा तो पूछा था। "

"अच्छा।"

" तुम्हारा एक्सीडेंट कैसे हुआ ?"

"पेट पालने की मज़बूरी दीदी।"

" मैं समझी नहीं। "मैंने पूछा तो वह थोड़ी उदास होती हुई बोली –

"मेरे पास न कोई नौकरी हैं या चाकरी। इंसान होते हुए भी मैं इंसान नहीं कहलाता। अपनों के होते हुए भी मैंअकेली हूँ, इस दुनिया में मेरा जन्म तो हुआ मगर मेरी पहचान अलग बन गई ।" उसने एक ही सांस में कहा।

" क्या मतलब ?"

"मैं किन्नर हूँ न दीदी। "

"किन्नर ??? "

"हाँ दीदी, सामान्य भाषा में मैं एक हिजड़ा हूँ, जिसे लोग हेय दृष्टि से देखता हैं जैसे हम किसी ग्रह से आये कोई प्राणी हैं। हमारे भी सीने में दिल धकड़ता है। "

" हाँ क्यों नहीं, इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं ।"

"लोगों को यह बात कौन समझाये।" वह मायूस होकर बोली ।

"सबसे बड़ी बात तो तुम एक इंसान हो श्यामली, अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी किंन्नरों को थर्ड जेंडर अर्थात तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दिया हैं कि वो भी अब समाज में सर उठाकर हर क्षेत्र में अपना परिचय दे सकता हैं।"

' सच दीदी। "

"हाँ श्यामली, चाहे शिक्षा हो, चाहे चिकित्सा या सरकारी नौकरी। "

" पर इसके लिए तो पढाई की आवश्यकता होगी न । "

"हाँ, पढाई तो चाहिए। "

"मैंने आठवीं तक पढाई की थी दीदी। पर किस्मत को यह मंजूर नहीं था।"

" पढ़ना चाहोगी ? "

"पढ़ना चाहती हूँ पर क्या यह संभव होगा दीदी ?"

"बिलकुल, पढ़ने की थोड़ी न उम्र होती हैं। जब चाहो शुरू कर दो, पर मेरी एक शर्त है । "

"क्या शर्त बताइये न दीदी। "

"मुझे तुम अपने बारे में बताओगी। " यह सुन वो थोड़ी उदास हो गई फिर कुछ सोच कर बोली,

"आपकी शर्त मुझे मंजूर हैं दीदी। "

मैंने उसके चेहरे में आज एक अत्मविश्वास देखा था। काफी वक्त हो चुका था, अत: मैं लौट पड़ी अपने घर। काफी थक गई थी। सो मैंने सिर्फ एक गिलास दूध लिया और सो गई।

 दूसरे दिन स्कूल से लौटते वक्त मेरा कदम स्वत ही हॉस्पिटल की ओर बढ़ने लगा। उसके लिए कुछ फल, बिस्कुट और जूस लेकर मैं वहाँ पास पहुँच गई। वह मुझे देखते ही खुश हो गई और उसका चेहरा खिल उठा।

"कैसी हो श्यामली ?"

"बेहतर हूँ दीदी। "

"ये लो तुम्हारे लिए लाई हूँ। "

"इसकी क्या जरुरत थी दीदी। "

"इसे खाओ तुम।" मैंने गौर किया वह एकदम से भावुक हो गई थी।

कुछ देर बात वह खुद बोली आप मेरे बारे में जानना चाहती हैं न, तो सुनिए...........

“ मेरा भी एक परिवार था। माँ थी पिताजी थे एक बड़ा भाई और एक छोटी बहन। माँ तो मुझे बहुत प्यार करती थी पर पिताजी को मैं पसंद नहीं था। वह मुझसे नफ़रत करते थे ।आप ही बताइये दीदी हिजड़े के रूप में जनम लेना क्या मेरा कुसूर हैं ?"

"कुसूर तुम्हारा नहीं श्यामली, बस लोगों की सोच का हैं, जिसे बदलने की जरुरत है। "

दीदी मेरे सीने में भी दिल हैं। मैं भी इज्जत से जीना चाहती थी पर मेरा नसीब उन खुशनसीबों में नहीं था। मेरे बड़े भाई और छोटी बहन को तो पिता का भरपूर प्यार मिलता मगर मेरे पास आने की बात तो दूर वो मुझसे बात तक नहीं करते थे। लेकिन माँ मेरा बहुत ख्याल रखती थी। मुझे याद हैं ...... उस समय मैं आठवीं में पढ़ रही थी, बचपन से ही मुझे लड़कियों की तरह सजना संवरना अच्छा लगता था। एकदिन मैंने चुपके से माँ की लिपस्टिक और साड़ी पहन कर आईने में देख रही थी कि पिताजी ने मुझे देख लिया। वे गुस्सा हो आग बबूला हो गए और उन्होंने बेरहमी से मेरी पिटाई किया और दो दिन तक भूखे प्यासे एक कमरे में बंद कर दिया था।"

"फिर क्या हुआ ?"

" ख़बरदार किसी ने इसे खाना दिया तो ! मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। कहते हुए माँ को सख्ती से हिदायते देकर पिताजी कमरे से बाहर चले गए। मैं बेसुध पड़ा था। माँ रोती रही। किसी की भी हिम्मत नहीं हुई मेरी सहायता करने की। दो दिन तक मेरा होश ही कहा था। काश मैं तब  मर गई होती !

तीसरे दिन कमरे का दरवाजा खुला, सामने माँ खड़ी थी। वो अंदर आई और मुझे गले लगते हुए चूमा फिर रोते हुए बोली- " मुझे माफ़ कर दो बेटा, बहुत देर तक वो रोती रही फिर मुझे उठाकर वे बाहर आई। पिता जी के लिए मैं तो जन्म से मर चुका था। मुझे देखकर उन्होंने नजर अंदाज किया। माँ ने मुझे पानी पिलाया और खाना भी। पर मैं अच्छी तरह खाना खा नहीं सकी। माँ ने मेरे लिए बहुत किया दीदी। पर एक दिन फिर वो हुआ जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं किया था। 

"क्या हुआ ???"

"फिर माँ ने मुझे अपनी जिंदगी से हमेशा के लिए निकाल दिया। पिताजी की जिल्लत वह और सह पा रही थी। दिल में पत्थर रखकर उन्होंने एकदिन सौ रूपये का नोट हाथ में थमाते हुए कहा -बेटा तुम यहां से दूर चला जा और मुझे माफ़ कर देना।माँ की आखों से आंसू झर रहे थे और मेरे आगे काली अन्धेरा। आठवीं में थी मैं, मुझे पढ़ने की बहुत इच्छा थी मगर किस्मत को और ही मंजूर था। माँ ने

मुझे घर से निकाल दिया, पर जानती हूँ उनके दिल में मैं आज भी जिन्दा हूँ। मैं उनसे नाराज नही हूँ। मैंने देखा है उन्हें हर कदम पर मेरे लिए पिता से जिल्लत उठाते। माँ ने मुझे घर से निकाल कर अच्छा ही किया।"

"फिर ?" मेरी जिज्ञास बढ़ने लगी ।

"एक लम्बी सांस छोड़ती हुई श्यामली आगे कहने लगी - बारह साल की उम्र थी मेरी, दिन दुनिया से बेखबर मैं उद्देश्यहीन होकर घर से निकल गई। न मेरे दोस्त थे न मेरे अपने  . निहायत अकेली हो गई थी मैं। एकबार तो जी में आया नदी में कूद कर अपनी जान दे दूँ ,फिर सोचा यह गलत हैं,हमारे शिक्षिका दीदी की बात याद आ गई, आत्महत्या करने से आत्मा को शांति नहीं मिलती, वह भटकती रहती हैं। इस जिल्लत से मुक्ति पाने के लिए एक जिल्लत ! नहीं दिल ने कहा और मैं उद्देश्यहीन होकर पता नहीं कब रेलवे स्टेशन पहुँच गया और स्टेशन पर खड़ी ट्रैन के अंदर जाकर बैठ गई। उद्देश्यहीन इस यात्रा के दौरान मेरे साथ एक ऐसी घटना घटी।"

"कैसी घटना ?"

" हुआ यूँ कि मैं जिस सीट पर आकर बैठी थी, उसी कोच में कुछ लोग आकर ताली बजाते हुए लोगों से रूपये मांगने लगे। अचानक मेरे भी हाथ जुड़ गए और मैं भी ताली बजाने लगी,यह देख उनमे से एक ने कहा- "कैसे रे, तूने कहाँ सीखा ताली बजाना। "

"कही नहीं। "

"अकेला है ? घर से भाग के आया न !",

"नहीं, हाँ, पर तुम्हे कैसे पता ?"

"मुझे सब पता है रे, क्या नाम है रे तेरा।?"

 "श्यामल। आ श्यामल ", मैं भी उनके पीछे - पीछे जाने लगी। इस तरह उसदिन मैं किन्नर समुदाय में प्रवेश कर उस परिवार का एक हिस्सा बन गई और इस तरह मैं श्यामल से कब श्यामली बन गई, पता ही नहीं चला । अपने पेट पालने के लिए हमारी टोली नाचने जाते हैं। मैं खुश हूँ,पर...." "पर क्या ?"

"मैं पढ़ना चाहती थी।"

"अब भी तुम पढ़ सकती हो, शिक्षा की कोई उम्र नहीं होती ,क्या तुम पढ़ना चाहोगी तो मैं तुम्हारी

मदद करुँगी।"

वो खुश हो गई, उसने पढ़ने की इच्छा जाहिर किया, हॉस्पिटल से विदा लेने का समय हो गया था,

मै घर को लौट आई। 

अगले दिन मैंने हेड मास्टर जी को यह सारी बाते कही, सुनकर वे खुश हुए बोले - "ये तुमने अच्छा सोचा, मुझे तुम पर गर्व हैं।" पर मेरे सहकर्मियों को कुछ अजीब सा लगा। इस बीच

श्यामली को  हॉस्पिटल से डिस्चार्ज दे दिया गया था।  गुजारे के लिए वह नाच नहीं छोड़ सकती थी

,अत: वह प्रायवेटली पढाई करती रही तथा मैट्रिक पास कर लिया। इस गावं में आये मुझे तीन वर्ष पूरे हो चुके थे। तबादले का आर्डर आनेवाला था, ,मेरे जाने की खबर ने एक तरफ स्कूल के बच्चे, मेरे सहकर्मियाँ, हेड मास्टरजी और श्यामली सभी को उदास कर दिया था। मुझे स्वयं बहुत बुरा लग रहा था। पर जाना तो आवश्यक था और एकदिन सच में तबादले का आदेश आ गया।

 विदाय के क्षण,मेरे लिए भावुक कर देने वाला अविस्मरणीय पल था, हेड मास्टर जी ने शुभकामना देते हुए कहा -योग्य शिक्षिका के रूप में तुम्हे सदैव याद रखेगा यह स्कूल, सहकर्मियों ने कहा - हम गलत थे, आपसे सीखा समर्पण,बहुत मिस करेंगे।"

बच्चे रोते हुए कह रहे थे -" दीदी हमें छोड़ कर मत जाइये" और श्यामली ! वह बहुत भावुक हो गई थी, अपनी आंसू रोक नहीं पा रही थी,भर्रायी आवाज में बोली - "दीदी रुक

जाइये न प्लीज।" मेरा मन भी भारी हो चूका था। खुद को संभालते हुए मैंने उससे कहा-

"हौसला रखो श्यामली, जीवन का यह भी एक हिस्सा है, तुम आगे की पढ़ाई जारी रखना। तुम्हे खुद को उस मुकाम तक पहुंचाना है समझी, जो सपना तुमने देखा हैं। जब भी

जरुरत होगी तुम मुझे जरूर याद करना " कहती हुई मैं गाड़ी में जाकर बैठ गई और ड्राइवर से कहा -चलों ........।


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