उसकी जीत
उसकी जीत
एक तरफ वह पति को हमेशा के लिए खो चुकी थी। दूसरी तरफ सासू माँ के ताने उसके हृदय को तीर की भाँति चुभो देती। "बेशरम मेरे बेटे को तो खा गई, अब किसे खाओगी?"
अभी बेटे की चिता की आग ठंड भी नहीं हो पाई थी, जिस सुहागिन का सर्वस्व लुट चुका था, उसका प्यार उसकी दुनिया, यहाँ तक उसके मासूम बच्चे भी अनाथ हो चुके थे। मर्माहत, दुखी माँ और थी बेशुमार प्यार करने वाले पति की पत्नी, जो आज बिल्कुल अकेली हो गई थी। ससुराल में सास की चलती थी। उन्होंने ऐलान किया कि बहू को नौकरी करने न देगी। बेटा सरकारी मुलाजिम थे। पर पढ़ी - लिखी बहू प्रियम ने तय कर लिया कि वो नौकरी करेगी। मगर उसके इस निर्णय पर सास ने घर पर तूफान खड़ा कर दिया। गुस्से से बोली-
"कैसे नौकरी करेगी तू"। तू नौकरी कर नहीं सकती, यदि नौकरी पर गई तो तुझे घर से बेदखल कर दूंगी। मगर प्रियम निर्णय ले चुकी थी। जब पिता को इस बात की पता चला तो वे प्रियम को लेने उसकी ससुराल पहुँचे।
बेटी की हालात से वाकिफ पिता ने कहा-
" तू आज से मेरे घर पर ही रहेगी, नौकरी करने की जरूरत नहीं है तुझे, तुम्हारा पिता अभी जीवित है ।"
पिता की बाते सुनकर प्रियम हौले से उठी, अपना पर्स उठाया और कहा-"
"नहीं पापा, माफ करना मुझे, आपने मुझे सदैव हिम्मत दी है, अब फर्ज निभाने की बारी मेरी है। मुझे कुछ नहीं चाहिए, अपने बच्चों के खातिर मुझे अपना फर्ज निभाने दो, कहती हुई वह पति के दफ्तर की ओर चल पड़ी।
पीछे-पीछे पिता के कदम भी......।