Rita Singh

Drama

4.2  

Rita Singh

Drama

पाषाण हृदय

पाषाण हृदय

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शेखर के घर को आज दुल्हन की तरह सजाया गया था। आखिर क्यों न हो उसकी लाडली बिटिया रोशनी की शादी जो हो रही थी । रोशनी के विदा होने के साथ-साथ वह फिर अकेला हो जाएगा और यह घर उससे काट खाने को दौड़ेगा । जानकी को इस घर को छोड़ें बरसों बीत गए। अब तक उसका कोई पता नहीं।

दुल्हन बनी रोशनी सहेलियों के बीच घिरी बैठे थी। हंसी मजाक का दौर चल रहा था। मगर रोशनी गुमसुम बैठी थी । जबसे गुड़िया ने उसे एक खत लाकर दिया है। तब से वह गुमसुम हो गई है ।उसने भेजने वाले का नाम पढ़ने की कोशिश की । मगर वहां नाम नहीं था सिर्फ लिखा था तुम्हारी एक अभागन मां।

"मां !"

रोशनी विचलित हो उठी थी । जब भी वह मां के बारे में पूछती थी तो बस उसकी दादी मां यही कहती -" उसका नाम मत लो वह भाग गई है किसी और के साथ ।" लेकिन रोशनी का अंतर्मन इसे नहीं मानता था। यह खत माँ का ही था। जिसकी कमी रोशनी को बरसों पहले से खेलती रही थी। रोशनी उस शोरगुल से चुपचाप उठी और एकांत में जाकर खत पढ़ने लगी। खत में लिखा था....

प्रिया बेटी रोशनी ,

 "शायद औरों की तरह तुम भी मुझे दोषी मानती होगी पर बेटी मैं आज तुम्हें वह सब कुछ बता देना चाहती हूं जो बरसों से मेरे सीने में दफन है । मैंने 16 साल में कदम रखा था इच्छा थी खूब पढ़ू और डॉक्टर बनकर लोगों की सेवा करूं मैं सपनों में विचरण कर ही रही थी कि एकदिन तुम्हारे नाना जी ने फैसला सुनाया कि उन्होंने मेरी शादी तुम्हारे डैडी से तय कर दी है । यह सुन में सन्न रह गई एक पल में ही मेरे सारे सपने चकनाचूर हो कर बिखर गए। मैं कुछ बोल न सकी या ऐसा कहो कि विरोध करना मेरे स्वभाव में था ही नहीं । अच्छे नंबरों से मैट्रिक पास करना निरर्थक बन गया । सारे सपनों को कुचल कर मेरी शादी कर दी गई ।

मैं दुल्हन बनी तुम्हारे डेडी के घर आ गई कहां उछलते कूदते किशोरी कहां अब बहुरानी घर गृहस्ती से अनजान। किशोरी बहुरानी तो बन गई, मगर सुशील गृहिणी होने का श्रेय कभी न पा सकी।मैं अपने कामों से जितना भी उन्हें खुश करना चाहती थी ।उतनी ही वे असंतुष्ट रहती। मुझे जल्द ही पता चल गया यह शादी तुम्हारे डैडी ने अपनी मां की मर्जी के खिलाफ ही की थी ।मुझसे ब्याहा तो किया उन्होंने मगर घर में तुम्हारी दादी के आगे उनका एक भी नहीं चलता था। तुम्हारे डेडी के ऊपर मुझे काफी गुस्सा आता। मेरे सपनों को कुचल कर चकनाचूर करने की क्या जरूरत थी। उस पहले धक्के को मैं कैसे भूल सकती हूं घर में दुल्हन का प्रवेश हो रहा था । मैं घुंघट में सिमटी खड़ी थी । द्वार पर तुम्हारी दादी खड़ी उन्होंने आरती उतारी मुझे जहां तक ख्याल है उन्होंने अपने बेटे की आरती उतारी थी। इसके पश्चात पैर छूने के लिए मैं जैसे ही झुकी तो जानती हो विद्युत तरंग की भांति तुम्हारी दादी ने पैर पीछे हटा लिए थे। कई दिनों तक मैं टेंशन में रही धीरे-धीरे में एक गृहिणी की भांति खुद को उस घर में ढालने लगी। मगर तुम्हारी दादी को मेरे काम पर खोट निकालना खूब मजा आता। पड़ोसियों से कहती-" देखो मेरी बहू ने सब्जी पकाई है। तैरना चाहो तो तैर सकते हो ।" और पड़ोसी उन्हें तो जले पर नमक छिड़कना बड़ा मजा आता था और मैं बूत की तरह जड़ जाती थी एक कोने में । आंसू पोछने वाला कोई नहीं होता था। तब तुम्हारे डैडी भी नहीं । तुम्हारे डैडी को मैं दोष भी देना नही चाहती। धीरे-धीरे मैं चिड़चिड़ी होती गई। मुझे तुम्हारे नाना जी पर बहुत गुस्सा आता जिन्होंने मुझे एक बोझ से अधिक कुछ नहीं समझा था । न पीहर में न ही ससुराल में मेरी भावनाओं को किसी ने नही समझा। अपनी भावनाओं को दबते देख मैं विचलित हो उठती। पर पंख कटे पक्षियों की तरह बस तड़प कर रह जाती।

उन्हीं दिनों मुझे मेरी कोख में तुम्हारा आगमन का पता चला मैं बहुत खुश हुई यह सोच कर कि मेरा अपना कहने वाला कोई तो होगा। मैं तुम्हारे आने की बाट जोहने लगी।

वह घड़ी भी आ गई तुम्हारे आने की खुशी में मैं वह सारी पीड़ा को भूल गई थी। कब मुझे ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया और कब क्या हुआ मुझे कुछ पता नहीं ।जब मुझे होश आया तब तुम मेरे बिल्कुल निकट थी। अपने जिगर के टुकड़े को देखकर मैं सारी पीड़ा को भूल गई।

अभी मैंने ठीक से तुम्हें सीने से लगाया भी नहीं कि घर आते ही तुम्हारी दादी बाज की तरह झपट कर तुम्हें ले गई।न जाने कौन सा जन्म का बैर था मुझसे । तुम ही बताओ बेटी , एक मां पर क्या बीती होगी? जब उसकी बच्चे को मां के होते हुए भी दूध से वंचित रहना पड़ता था। तुम्हारी दादी मुझे तुम्हें दूध पिलाने नहीं देती यहां तक कि रात को भी वह तुम्हें अपने पास सुलाती थी। छुप-छुपकर मैं तुम्हें दूध पिलाती इतनी बड़ी सजा ना जाने मुझको ही क्यों मिला ? इसी बात को लेकर तुम्हारे डैडी से मेरी झड़प शुरू होने लगी। कहने को तो मैं डैडी की पसंद थी मगर शादी के अलावा उनका दादी के आगे उनका एक भी नही चलता।

एक पल के लिए तो ऐसा लगता है कि मैं तुम्हें उठा कर कहीं दूर भाग जाऊं। मगर मैं ऐसा नहीं कर सकी एक नजर तुम्हें देखकर ही संतोष कर लेने के सिवा मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था। पर हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती ही चली जा रही थी। मुझे ऐसा लगने लगा अब इस घर में मेरी कोई जरूरत नहीं रह गई है।

क्या नहीं किया तुम्हारी दादी ने हर दिन मेरे लिए नई-नई साजिशें रची जाती इल्जाम पर इल्जाम लगाया जाता ।कभी रसोई से खाना चुराकर खाने की तो कभी देर से उठने की। कभी फर्श ठीक से साफ नहीं तो कभी कपड़े का दाग नहीं गया एक नौकरानी से भी बदतर हालत हो गई थी मेरी । फिर भी मैं सब कुछ सहती रहती सिर्फ तुम्हारे लिए। मैं तुमसे दूर नहीं होना चाहती थी। तुम्हारी दादी के इतने अत्याचार से जब मैं विचलित ना हुई तो जानती हो उनका आखिरी दांव क्या था ? मुझे इस घर से हमेशा के लिए निकल जाना होगा वरना तुम्हें वह जान से मार डालेगी ।अपने जिगर के टुकड़े के लिए कैसे कोई मरने का कारण बन सकता है। तुम्हारे डैडी की गैर हाजरी में मुझे पहली बार के लिए अपना हृदय पाषाण बनाकर घर से निकलना पड़ा था और आज भी मैं लोगों के लिए पाषाण हृदय नारी हूं।

मैं निसहाय होकर निकल पड़ी। पर हिम्मत नहीं हारी ।ससुराल से छाया उठ गया। पिता का घर तो उसी दिन छूट गया था जिस दिन मैं डोली में बैठकर विदा हुई थी। मेरे पास सवाल यह था कि अब जाऊं तो कहां जाऊं? मायके? बिल्कुल नहीं मेरे अंतर्मन ने कहा था ।उस घर से अब मेरा कोई सरोकार नहीं । मुझे खड़ा होना है अपने बलबूते पर । लेकिन कैसे यही सोचते हुए मैं आगे बढ़ रही थी।

किसी ने ठीक ही कहा है जिसका कोई नहीं होता उसका खुदा होता है। मुझे भी खुदा के रूप में समाज सेवक हरिप्रसाद जी मिल गए ।जो प्रताड़ित महिलाओं के लिए एक आश्रम चलाया करते थे । स्टेशन से मुझे बेहोशी की हालत में उठा कर यहां लाया गया था। ईश्वर का शुक्र है कि वे किसी कार्यवश वहां से गुजर रहे थे तो उनकी नजर मुझ पे पड़ी। मुझे जब होश आया तो मैने खुद को आश्रम में पाया।

हरिप्रसाद जी ने मुझे एक बेटी की तरह प्यार दिया मुझे नहीं जिंदगी दी। मैं अपना दुख भूल कर दुखियों की सेवा में लीन हो गई ।कभी-कभी तुम्हें देखने के लिए मन विचलित हो उठता था । जब तुम्हें हॉस्टल में दाखिला दिया गया। मैं चुपचाप कर तुम्हें देखा करती ।अपने भाग्य पर आंसू बहाने के सिवा मेरे पास कोई और चारा नहीं था । तुमसे बिछड़ने का गम अंदर ही अंदर लिए मैं घुटती रही लोगों का कटु वचन सहती रही।

बेटी आज तुम्हारी शादी हो रही है वह भी अपने मनपसंद लड़के के साथ। मैं बहुत खुश हूं ईश्वर करे जिंदगी की हर खुशियां तुम दोनों की झोली में भर जाएं।

बस एक बार तुम्हें देखने की इच्छा है। बेटी अस्पताल में पड़ी आज तुम्हारी अभागन मां तुम्हारा इंतजार कर रही है ।आओगी न? सिर्फ एक बार तुम्हारे इंतजार में।

तुम्हारी एक अभागन मां

पत्र पढ़ रोशनी की आंखों में आंसू भर आया ।एक मां के होते हुए भी वह कितनी अभागिन थी जो अनाथ बच्चे की तरह पली बढ़ी।

मां के लिए पल-पल तड़पती रही सारी उम्र । और अब मिली भी तो ऐसे घड़ी जब विदा होने जा रही थी। उसे उन लोगों के ऊपर काफी गुस्सा आ रहा था ।जिन्होंने उसकी मां को बच्चे से अलग होने के लिए मजबूर किया था।

रोशनी 1 मिनट के लिए भी नहीं रुकी तेजी से घर से निकल गई शेखर भौचक्का होकर उसे देखता रह गया। यह रोशनी को क्या हो गया बस सोच ही रहा था तभी गुड़िया ने वही पत्र शेखर के हाथ में थमा दिया । पत्र पढ़ शेखर बड़बड़ाया जानकी । ओ तुम कहां चली गई थी वह भी वहां रुका नहीं चला गया।

अस्पताल के बेड पर जान की पड़ी थी। 

"कौन?"

"मां"

"कौन रोशनी बेटी तू आ गई?"

 "हां मां "

"मां "यह शब्द सुनने के लिए मैं तरस गई थी ।एक बार और बोल बेटी" मां"। रोशनी लिपट कर रोने लगी ।दोनों काफी देर तक रोती रही ।

"जानकी " किसी की आवाज में दोनों की तंद्रा भंग हो गई मुड़कर देखा तो वह कोई नहीं शेखर था।

"आप !" जानकी की आंखें गीली हो गई थी । 

"हां जानकी , मैं हूं तुम्हारा शेखर। मैं तुम्हारा अपराधी हूं । दो साल पहले माँ भी चल बसी। अंतिम समय लकवाग्रस्त हो गई थी। तुम चली गई। मैं तुम्हारे लिए कुछ कर न सका। मुझे माफ कर दो जानकी। तुम मुझे जो भी सजा दोगी मुझे मंजूर है ।अपने घर नहीं चलोगी?"

जानकी की आंखों से आंसू बहता रहा। अब भी उसके पति के दिल में उसके लिए जगह है।

"मां चलो ना बरसों से तुम्हारे बिना घर सुना पड़ा है ।" शेखर ने डॉक्टर से परामर्श कर जानकी को घर वापस ले आया।

बड़ी धूम-धाम से रोशनी की शादी संपन्न हुई विदाई केशन एक तरफ रोशनी को अपनी मां तथा बाबुल का घर छूटने का गम था तो दूसरी तरफ डैडी को मम्मी के साथ मिलने का सुकून था।


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