कुछ सपनों के मर जाने से
कुछ सपनों के मर जाने से
रति बाहर लान मे बैठी कवि नीरज की कविता पढ़ रही थी।
सामने वैभव अपनी दोनो छोटी पोतियों के साथ मस्त थे, उनके कन्धों पर झूलती आपस मे लड़ रही थी।
"दादू मेरे है" वैभव खिलखिला रहे थे। रति मुस्कराई और कविता पढ़ने लगी। "कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता।"
यादें कभी दफन नहीं होती। समय-समय पर जीवंतता का अहसास दिलाती है। जब नीरव ने अपनी शादी का कार्ड उसे दिया, अपने होश खो बैठी थी, आँसुओं की धार बह चली लगा जैसे दिल को किसी ने जकड़ लिया हो।साँसे साथ छोड़ रही हो। मन ही मन जिसे चाहा, साथ रहने के सपने देखे। क्या अब तक मरीचिका थी। उसे तो पूरा विश्वास था की नीरव भी।
"रति तुमने कभी कहा क्यों नहीं, मैं तो तुम्हारा सहज व्यवहार समझता रहा।" क्या प्रेम जाताना,बोलकर बताना जरुरी है। गलती शायद दोनो की थी। इंतज़ार करते रहे एक दूसरे के बोलने का। अब तो सब सिमट गया। नीरव अपराध भाव के साथ कार्ड दे चले गये। अवसाद मे घिर गई रति, मौन एकान्त,आँसू, कई बार जीवन खत्म की सोचा पर आसान नहीं था। तन, मन बीमार, जीने की लालसा खत्म। बढ़ती उम्र, माँ-पापा चिंतित, तभी वैभव आये, वही वैभव जिसे रति ने तैमूरलंग कह शादी से मना किया था। नीरव जो सपने मे थे। सुदर्शन चेहरा, प्रबुद्ध, एक पैर शायद किसी दुर्घटना का शिकार, किंचित लंगड़ा कर चलते। आज कितनी खुश है वैभव के साथ, प्यारा परिवार,अपने को भाग्यशाली मानती है रति। नीरव कौन नीरव ? रति की दुनिया तो वैभव है। सच, कुछ सपनों के------