कर्तव्य की जंजीर
कर्तव्य की जंजीर
"रूपा ओ रूपा…. रे छोरी! तू कहाँ मर गई? अरे! जरा देखो तो… बड़े बाप की बेटी हमारे पल्ले ऐसे पड़ गई है कि कुछ मत पूछो।" मेरे भोले भाले लड़के को फसाया और शादी करके अब हमारी छाती पर मूंग दल रही है।"
इधर आंगन में हुक्का पीते हुए चंपकलाल जी बोले, "अरे चंपा दुखड़ा क्या रो रही है उसने क्या बिगाड़ा है तेरा।"
"अरे! मोहन के बापू तुम्हें क्या फर्क पड़ता है तुम तो सिर्फ हुक्का गुड़गुड़ाते हो और हुकुम चलाते हो" चम्पा ज़रा तुनक कर बोली। "
अरे! भागवान तुझे क्यों हर समय रूपा पर गुस्सा आता रहता है। शहर की होते हुए भी वो यहाँ गाँव में हमारी कितनी सेवा करती है। तुझे पता है ना मोहन ड्यूटी पर गया हुआ है। रुपा ने मोहन से जाते हुए कहा था, "आप बिल्कुल भी चिंता मत करो मैं मां-बाबूजी की देखभाल करूंगी"।
इस पर चंपा ने कहा, "तुम्हें पता भी है वह खेतों की देखभाल करने के बहाने हर दिन वहां डाकिया बाबू से नैन मटक्का करती है।
इस पर चंपकलाल जी ने कहा, "तुझे पता भी है सच बात…. वो नैन मटक्का नहीं करती वह तो हमारे लल्ला के बारे में उस से पूछती है कि कोई खैर खबर आई? और उस जाकर वह खत डालती है लल्ला के लिए और हमारे लल्ला के खत का इंतजार करती है।"
इधर दरवाजे के पास बाहर चुपचाप रूपा अपनी सास-ससुर की बात सुनकर रो रही थी और अपने पुराने दिनों को याद करते हुए अंदर आई और अपने कमरे में बैठकर अपने पुराने दिनों को याद करने लगी।
अतीत के वो पन्ने ….........
रुपा की आंखों से झर झर पानी बहने लगा और वह अपने अतीत में खो गई। कितने सुहाने दिन हुआ करते थे जब पहली बार मैं उनसे मिली और उनसे नजरें मिलते ही जैसे मेरे तो होश उड़ गए….. पता ही नहीं चला कि हम प्यार का सफर कब तय कर चुके और हमने साथ रहकर जिन्दगी गुजारने का सपना का संजो लिया था।
आज कॉलेज का आखिरी दिन था और मोहन सुंदर से बगीचे में बैठकर मुझको कह रहा था कि तुम चिंता बिल्कुल मत करो, घर जा जाकर अपने मां-बाबूजी को अपनी शादी के लिए मना लूंगा।
फिर हमेशा की तरह दोनों मन ही मन गुनगुनाने लगे….
हमें फिर सुहाना नज़ारा मिला है,
क्योंकि जिंदगी में साथ तुम्हारा मिला है।
अब जिंदगी में कोई ख्वाहिश नहीं रही,
क्योंकि हमें अब तुम्हारी बांहों का सहारा मिला है।
देख रहे थे नैन दोनों के हसीं सपने,
मान बैठे थे एक दूसरे को हम अपने।
अपनी चाहत का हल्ला सब ओर था।
जिन्दगी का वो बड़ा खूबसूरत दौर था।
फिर हम दोनों अपने अपने घर आ गए। करीब 2 महीने निकल गए। हर दिन मैं इंतजार करती थी। फिर अचानक एक दिन मेरे फोन की घंटी बजी और मोहन ने कहा कि हम 1 हफ्ते के अंदर आपके घर आ रहे हैं। मैंने तो अपने मां बाप को पहले ही बता दिया था क्योंकि मेरी पिताजी बहुत ही ज्यादा स्वतंत्र विचारों के थे। मैं बहुत खुश हो गई। मैंने अपने माता-पिता को बताया और हम लोग उनका इंतजार करने लगे। मुकर्रर समय पर वह लोग हमारे यहां आए और मेरी शादी पक्की हो गई।
फिर 15 दिन बाद हमारी शादी बड़ी धूमधाम से हो गई। परंतु जिंदगी के बारे में इंसान कुछ भी नहीं समझ सकता है अगले पल क्या होगा? अभी मैं डोली से उतरी ही थी कि मेरे पति को फौज से बुलावा आ गया।
सबकी खुशियां तो जैसे काफूर हो गई। मोहन तो अपनी ड्यूटी पर चले गए। मैं एक रात की अधूरी दुल्हन मिनटों में बहुत ज्यादा अनुभवी बन गई।
धीरे-धीरे मैंने यहां के रीति-रिवाज और रहन-सहन सीख लिए। और अपने सास-ससुर की सेवा करने का निश्चय कर लिया। देखते-देखते अब 3 महीने हो गए मैं उनके पत्र का इंतजार करती रहती थी। शुरु-शुरु में तो जल्दी-जल्दी पत्र मिल जाता था परंतु अभी लगभग 1 महीने से कोई भी खैर खबर उनकी नहीं मिली थी। मैं रोज जब खेत पर काम करने जाती थी तब मैं पत्र-पेटी (लेटर-बॉक्स) में हमेशा देख कर आती थी कि कहीं मेरी चिट्ठी तो नहीं आई है और उनको भी मैं खत डाल देती थी……..
"एक बार कर के एतबार लिख दो,
कितना है मुझ से प्यार लिख दो,
कटती नहीं ये ज़िन्दगी अब तेरे बिन,
कितना और करूँ इन्तज़ार लिख दो ।
तरस रहे हैं बड़ी मुद्दतों से हम,
अपनी मुहब्बत का इज़हार लिख दो,
दीवाने हो जाए जिसे पढ़ के हम,
कुछ ऐसा तुम एक बार लिख दो।"
डाकिया बाबू से मैं पूछती थी कि उनकी कोई चिट्ठी तो नहीं आई है।
इतने ही सासु माँ की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई और बाहर आकर उनकी सेवा में जुट गई।
अगले दिन जब मैं खेत से लौट रही थी तो बीच में डाकिया बाबू मिले और वह बोले, "बिटिया आज मोहन की चिट्ठी आई है।" मैं तो खुशी से भाव विभोर हो गई और मैं बोली, "आप कृपया चिट्ठी मुझे दे दीजिए।" मेरे सब्र का बांध टूट गया और मैं बिल्कुल भी सब्र नहीं कर पाई और वही मैं चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगी।
वह खत उनके दफ्तर से आया था। सरकारी कागज था जिसको पढ़ते ही मेरे तो होश उड़ गए। डाकिए ने मुझसे पूछा, "बिटिया सब खैरियत तो है", तो उसने कहा, "काका कुछ भी खैरियत नहीं है और उसने बताया मोहन का जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया है और उनका कुछ भी पता नहीं है सब का मानना है कि वह अब दुनिया में नहीं है।"
और फिर बड़े बुझे मन से वह अपने घर को लौट पड़ी। पर घर में आते ही उसकी कदम घर के अंदर नहीं पड़ रहे थे। और सीधी रूपा अपने कमरे में आ गई। सोच रही थी कैसे अपने सास-ससुर को यह खबर सुनाऊँ? इतने ही डाकिया जब वहाँ से सीधा हमारे घर आया और मेरे मां बापू जी को सांत्वना देने के लिए जब वह सब मोहन के बारे में बताने लगा तो वह भी हैरान हो गए और गश खाकर दोनों बेहोश हो गए।
घर से आवाजें बाहर जाने लगी और आसपास के लोग वहाँ जमा हो गए। इतने ही झट से पड़ोस में रहने वाले रहीम चाचा वैद्य जी को बुला लाए। वैद्य जी ने आते ही मेरे सास-ससुर का निरीक्षण परीक्षण किया और कहा कि यह दोनों अचानक से इतनी बड़ी दुख की खबर सुनकर अपना संतुलन खो बैठे और बेहोश हो गए।
उन्होंने उपचार शुरू कर दिया। धीरे-धीरे दोनों को करीब 2 घंटे के अंदर होश आ गया। सभी लोग गाँव के बोलने लगे, "अभी मोहन लापता है, आप लोग मत घबराइए वह जरूर वापस सही सलामत घर आ जाएगा।" चंपकलाल ने कहा, "आप कृपया करके हमें झूठी तसल्ली मत दो साफ-साफ मुझे पता है कि मेरा बेटा अब इस दुनिया में नहीं है।"
और फिर चंपा घबराकर चिल्लाने लगी… "अरे! रूपा कहाँ गई तू?" फिर सब ने देखा कि रूपा एक कोने में बैठ कर अपने बुरे कर्मों को कोसती हुई रो रही थी, एक तरफ मां-बाप की गोद उजड़ गई और दूसरी तरफ रूपा की सारी दुनिया ही लुट गई। वो तो सिर्फ शून्य में ही देख रही थी।
अचानक से गांव की कुछ औरतों ने रूपा के मुंह पर पानी के छींटे दिए तो वह हड़बड़ाकर चौकी और अपना गम भूल कर अपने सास ससुर को सांत्वना देने लगी। देखते ही देखते सारा वातावरण शोकाकुल हो गया।
इन्हीं गमों का बोझ उठाए हुए पूरा परिवार एक दूसरे को पहाड़ जैसे दिन काटने के लिए सांत्वना देते हुए दिन बिताने लगा।
एक दिन डाकिया घर आया और बोला कि यह सरकारी नोटिस आया है कि जो भी समान मोहन का है वह आकर यहां से कोई ले जाए। रूपा ने जाने का निश्चय किया। अब एक और अनहोनी हो गई, जिस बस से रुपा जा रही थी वह बस खाई में गिर गई। फिर रुपा का भी कुछ पता नहीं चला। एक के बाद एक सदमा लगने से दोनों मां-बाप की तो जैसे जैसे कमर ही टूट गई।
फिर 15 दिन बाद अचानक से डाकिया घर आया और बोला, "आपके लिए एक बहुत ही खुशखबरी है। आपका मोहन जो लापता था वह मिल गया है और वह अगले हफ्ते आपके पास आने वाला है।" यह सुन कर तो माता- पिता की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। अगले हफ्ते जब मोहन वापस आया तो माता-पिता बहुत खुश हो गए।
हादसे में मोहन अपने गले की आवाज को खो चुका था यह सुनकर पहले तो उनको बहुत अफसोस हुआ लेकिन सबके समझाने पर उस चीज को नजरंदाज कर के माता-पिता बहुत खुश हुए और अपने बच्चे को अपने पास पाकर वह आराम से रहने लगे।
पर जब मोहन को रूपा के बारे में पता चला तो वह बहुत विचलित हो गया। पर वह अपने माता पिता की सारी जिम्मेदारी समझकर उनकी देखभाल करने लगा। उनका पूरा ध्यान रखता था।
इसी तरह अभी 2 महीने भी नहीं बीते थे कि अचानक मोहन ने घर आ कर अपने माता पिता को चौंका दिया। वो भी सोचने लगे यह दूसरा मोहन कहाँ से आ गया। मोहन के आने की खबर सुनी और बाहर आकर अचानक से चिल्लाकर खुशियों से बोलने लगी, "अरे! वाह मेरा मोहन आ गया। अरे! मां बाबूजी आपका मोहन आ गया।" सारे हक्के बक्के देखते रहे। यह तो रूपा जैसी आवाज है।
फिर मुंह से मोहन की शक्ल का मास्क हटाकर रूपा ने कहा, "देखो मेरी बात सुनो मैं आपकी ही रूपा हूँ।" तो सारे हक्के बक्के रह गए और मोहन के मां-बाप ने कहा, "तुमने हमारे लिए ऐसा बलिदान क्यों किया। इतने दिन से गूँगा होने का नाटक किया और मोहन बन कर सेवा करती रही। क्योंकि आवाज होती तो हम तुझे पहचान लेते।"
तो रूपा बोली, "नहीं बाबू जी ऐसा मत सोचिए, आप की सेवा करना तो में मेरा फर्ज है। मुझे हर वक्त एहसास होता था कि आपकी नजरें मोहन को ढूंढती थी। तो मैंने यह योजना बनाई और आपके पास मोहन का रूप लेकर आपकी सेवा मैं करती रही।"
वाह रे! बलिदान की मिसाल कायम कर दी। कोई अपने देश पर मर मिटता है तो कोई अपने परिवार के लिए मर मिटता है।
ऐसा सुंदर वातावरण देखकर सबकी आंखों में खुशी के आँसू आ गए और सब ने रूपा की प्रशंसा करी। उस दिन चंपा ने कहा कि वाकई में लड़का और बहु में कोई फर्क नहीं होता। लड़के और लड़की में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। लड़कियां तो लड़कों से भी बढ़कर होती है। मां बाप ने दोनों बच्चों को अपने गले लगाया और उनकी जिंदगी में खुशियां भर गई। फिर उन्होंने भगवान को नमन किया और अपने दिन शांति पूर्वक काटने लगे।
"अंत भला तो सब भला।"