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Anita Sharma

Inspirational

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Anita Sharma

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कन्यादान महादान

कन्यादान महादान

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दीनानाथ जी के यहाँ उनकी पोती की बिदाई की घड़ी है। आंगन में लगी फूलों की लड़ियों की ताजगी और खुशबू दोनों ही कम हो गई थीं। रात में अपनी झिलमिलाहट से सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती लाइट भी अब बस टिमटिमाती प्रतीत हो रही थी।पूरी रात शादी की पार्टी में धूम धड़ाका मचाने बाले घराती रिश्तेदार भी थककर अपने - अपने ग्रुप बनाकर यहां वहाँ बैठगये थे। लड़के वालो के मोहल्ला पड़ोस के जो रिश्तेदार थे वे भी जा चुके थे। अब बारातियों में उनके बहुत ही खास माने जाने वाले रिश्तेदार ही बचे थे।

दीनानाथ जी के चेहरे पर एक संतोष भरी मुस्कान थी। क्योंकि उनके हिसाब से शादी के सारे कार्यक्रम अच्छे से निपट गये थे। उन्होंने इस शादी में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। वैसे तो लड़के वालों की कोई मांग नहीं थी। फिर भी उन्होंने अपने मेहमानों की विदाई सोने या चांदी के सिक्को से करने को कहा था। और दीनानाथ जी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया था।


करते भी क्यों नहीं आखिर उनकी लाड़ली पोती जो थी परी। हाँ परी यही नाम तो दिया था उसके माँ ,पापा ने।

कितना खुश थे दीनानाथ जी के बेटे ,बहू जब परी का जन्म हुआ।उन दोनों का तो परिवार पूरा हो गया था परी के आने से। पर ये खुशी ज्यादा दिनतक नहीं रही । उसदिन किसी जरूरी काम से दोनों अपनी एक साल की बेटी को दादा, दादी के पास छोड़ कर गये पर कभी लौटकर नहीं आये। एक कर दुर्घटना में दोनों ही भगवान को प्यारे हो गये।

तब दीनानाथ और उनकी पत्नी ने ही अपनी पोती का लालन -पालन किया। जब परी पढ़लिख कर नौकरी करने लगी तो अनिकेत नाम का अच्छा लड़का देखकर उन्होंने परी के हाथ पीले कर दिये। क्योंकि दीनानाथ अब अपने जीवन की ढलती सांझ में परी का कन्यादान करके अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते है।

दीनानाथ जी ने अपनी पोती के जाने के गममें बार बार गीली हो रही आँखों पोंछ रहे थे कि तभी लड़के के पिता ने दीनानाथ जी से अपने सगे रिश्तेदारों की विदाई करने को कहा। तो दीनानाथ जी ने जैसे सभी की विदाई चांदी के सिक्को से की थी वैसे ही उनकी भी करने लगे तो वो गुस्से में अकड़ते हुये बोले.....


"क्या दीनानाथ जी आपने सारे बारातियों की बिदाई चांदी के सिक्को से की मैने कुछ नहीं कहा। पर कम से कम मेरे सगे रिश्तेदारों की विदाई तो सोने के सिक्को से करते। आपने तो मेरे रिश्तेदारों के सामने मेरी नाक कटवा दी। "

अपने समधी की बेटे के बाप होने की दंभ भरी बात सुनकर दीनानाथ जी अपनी न की हुई गलती के लिये भी हाथ जोड़कर माफी मांगने लगे। क्योंकि लड़के पिता ने सोने या चांदी के सिक्को के लिये कहा था और उनकी सामर्थ के अनुसार उन्हें चांदी के सिक्के ठीक लगे। तो वो वही सभी के लिये ले आये थे। और अब उनके समधी सोने के सिक्को की विदाई के बिना पोती की विदाई को तैयार नहीं थे।

तभी थोड़ी दूर पर सबसे विदाई लेती परी की नजर अपने दादाजी पर पड़ी। जिन्हें परी ने दूसरों के सामने हमेशा सर उठा कर शानसे जीते देखा था आज वो ऐसे खड़े थे जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो और सामने लड़के के पिता नहीं कोई पुलिस अधिकारी खड़ा हो।


परी से वो सब देखा न गया और भागते हुये दादाजी के पास पहुंची। उसे यूँ भागता देख दूसरे कोने पर खड़ा परी का दुल्हा अनिकेत भी वहाँ पहुँच गया। और बात को समझते हुये परी के बोलने से पहले ही बोला....

" क्या पापा जी मैने आपसे पहले ही मना किया था कि मैं अपनी बोली नहीं लागवाउँगा। मैं परी से शादी के लिये भी इसी बात पर तैयार हुआ था कि 'आप किसी भी प्रकार का दहेज नहीं लेंगे'। फिर ये सब क्या है?"

बेटे की बात सुनकर उसके पिता तुनक कर बोले....

"तुम्हारे कहने से हमने दहेज तो नहीं मांगा। पर ये तो विदाई की बात है। और लड़के का पिता होने के नाते ये हमारा अधिकार है। आखिर इन्होंने अपनी बेटी का कन्यादान किया है। तो हमारा मान, सम्मान करना इनका फर्ज है। "

"नहीं पापा !! ये सही नहीं है। आपने ही तो मुझे बचपन से सिखाया है कि लेने वाले से देने वाला हमेशा बड़ा होता है । तो आज परी के दादाजी ने मुझे सबसे बड़ा दान अपनी पोती का कन्यादान दिया है। इसलिये आप नहीं दादाजी यहाँ बड़े हुये। आपको तो उनका हाथजोड़ कर धन्यवाद करना चाहिये।पर आपतो उनका अपमान कर रहे है। अगर आपको अपने बेटे, बहू से ज्यादा सोने के सिक्को की जरूरत है तो मैं परी की विदाई आपके साथ जाने के लिये करवाउँगा ही नहीं। आप अपना मान, सम्मान लेकर घर जाइये। मैं और परी यहाँ से कहीं और चले जायेंगे। "


आनिकेत की बात सुनकर उसके पिता की आँखों में आँसू आ गये। क्योंकि जो सीख बचपन में उन्होंने अपने बेटे को दी थी आज वही सीख उनका बेटा उन्हें दे रहा था। और वो सही ही तो बोल रहा था।आखिर बेटी का परिवार अपने कलेजे के टुकड़े को दूसरों को सौपता है। और लड़के वाले उनका उपकार भी नहीं मानते उल्टा उनपर ऐसे जताते है। जैसे अपने बेटे से उनकी बेटी की शादी करके बहुत बड़ा एहसान किया हो। और इस दंभ के आगे वो ये भी नहीं देखते की उनके सामने उनके पिता की उम्र का एक बुजुर्ग हाथ जोड़े खड़ा है।


अपनी गलती का एहसास होते ही अनिकेत के पिता दीनानाथ जी के आगे हाथ जोड़कर बोले......

" मुझे माफ कर दीजिये समधी जी। जिस नजरिये से आज मेरे बेटे ने कन्यादान का मतलब समझाया उस नजरिये से हमने कभी देखा ही नहीं था।"

समधी की बात सुनकर दीनानाथ जी ने सजल नेत्रों से उन्हें गले लगा लिया। ये बातें और मिलाप देखकर वहाँ खड़े सभी लोगों की आँखें भीग गईं। वहीं परी भी इतना समझदार जीवन साथी पाकर अपने आपको धन्य समझ रही थी।


सखियों मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि लड़की वालों को कभी भी लड़के वाले अपने से छोटा न समझें। अगर उन्हें बड़ा नहीं समझ सकते तो अपने बराबर ही समझें। और दोनों ही एक दूसरे का मान, सम्मान बनाये रखें।



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