'कली ' prompts-8
'कली ' prompts-8
टिंगटोंग......................... टिंगटोंग................................ टिंगटोंग........................ घंटी की आवाज़ के साथ ही, मिमियाती सी ऊँ... ऊँ ...ऊँ ...की आवाज़ सुनाई दी। आज फिर कोई बेरहम या कहें कि बदनसीब माँ अपने बदनसीब बच्चे को छोड़ गयी होगी। जिस बच्चे को नौ महीने कोख में पालती है ;अपने हाड़ -माँस से पोषण देती है ;खून से सींचती है ;जब उसी नवजात बच्चे को जन्म देते ही खुद से अलग करना पड़े तो ऐसी माँ से ज्यादा बदनसीब भला कौन होगा ? बदनसीब बच्चे को मतलब ,निश्चित तौर पर बेटी को ही छोड़ गयी होगी।
कैसी विडंबना है कि, जिस देश में नौ दिनों तक देवियों की पूजा की जाती हैं ,उसी देश में किसी को अपने घर पर देवी अर्थात कन्या शिशु नहीं चाहिए। इसीलिए लोग बच्चे के जन्म से पहले ही उसके लिंग का पता लगवा लेते हैं और अगर पता चलता है कि पेट में पल रहा भ्रूण कन्या शिशु है तो, उसे जन्म लेने से पहले ही गर्भ में मरवा देते हैं। बात बड़ी कड़वी है ,लेकिन सत्य है।
जो माँ अपनी दूधमुँही बच्ची को अपने से अलग कर दे ,बेरहम ही कही जायेगी न। लेकिन हम महिलाएं अपने निर्णय खुद कहाँ ले पाती है ? तो बच्ची को जन्म देना है या नहीं ;जन्म देने के बाद बच्ची को घर में रखना है या बाहर फेंकना है ;यह निर्णय एक माँ उर्फ़ औरत नहीं लेती बल्कि उसके परिवार वाले लेते हैं। इसलिए माँ बेरहम होने के साथ ही बदनसीब भी होती है।
मेरा अंदेशा पूरा सही था ;जब भारती ने आकर बताया कि ,"बधाई हो दीदी ,आज आप पूरी 300 बेटियों की माँ बन गयी हो। आइये अपनी ३००वी बेटी का स्वागत करते हैं। "
सही में ;मुझे कल की सी बात लगती है ;कहाँ तो आज से 20 साल पहले लोग मुझे बाँझ कहते थे;क्यूँकि मैं गर्भ धारण नहीं कर सकती थी । मेरे अंदर अजस्त्र ममता का स्त्रोत बहता था ;लेकिन प्रसव पीड़ा से गुजरे बिना मैं अपनी ममता कैसे प्रमाणित कर सकती थी ।क्यूँकि मातृत्व का अर्थ ही है अपने शरीर से नए जीवन को पनपाना और जिसमें मैं असमर्थ थी । बच्चे न होने के कारण मेरे पति दूसरा विवाह करने की योजना बना रहे थे ;मेरे द्वारा विरोध जताने पर पति ने मुझे हमेशा -हमेशा के लिए छोड़ने की धमकी दे दी थी ;मायके वालों ने तो दो टूक कह दिया था कि ,"पति का घर ही तुम्हारा घर है।जिस घर में डोली जाती है ;उसी घर से अर्थी उठती है। "
मैंने पति को दूसरा विवाह करने की सहमति दे दी थी। मैं पढ़ी -लिखी लड़की थी ;लेकिन मजबूर थी ;क्यूंकि तब तक मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ। कुछ दिन पति और उनकी दूसरी पत्नी की सेवा की। उस घर में मेरी स्थिति एक नौकरानी से भी बदतर हो चली थी। एक दिन सोचा कि रोज़ -रोज़ के अपमान भरे जहर के घूँट पी -पीकर तिल -तिल मरने से अच्छा है कि हमेशा -हमेशा के लिए ही अपनी कहानी ख़त्म कर दूँ। ऐसा सोचकर ही तो ,मैं उस दिन घर से निकली थी।
अपनी धुन में चलती जा रही थी कि ,मुझे कचरे के ढेर पर कपड़े की पोटली सी नज़र आयी और कुछ कुत्ते उस पोटली पर झपट रहे थे। थोड़ा पास गयी तो बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई दी। पास गयी और कुत्तों को हटाया ;पोटली से किसी बच्चे का हाथ बाहर नज़र आ रहा था। मैंने पोटली को खोला तो उसमें एक नवजात बच्ची थी ;कुत्तों द्वारा पोटली झपटने के कारण बच्ची के शरीर पर कुछ चोटें थी। उन चोटों को देखते ही मैं अपना दर्द भूल गयी थी ;अब मैं कसिए भी उस बच्ची की तकलीफ़ दूर करना चाहती थी। उसे लेकर मैं हॉस्पिटल की तरफ भागी। वह बच्ची मेरी अँधेरी ज़िन्दगी में एक रोशनी की किरण बनकर आयी थी ;उसने मुझे जीने के एक मकसद दे दिया था।
हॉस्पिटल में डॉक्टर्स की देखरेख से वह जल्द ही स्वस्थ हो गयी थी ;बाद में पुलिस ने उस बच्ची को मुझे यह कहकर सौंप दिया था कि जब तक उसके माँ -बाप नहीं मिल जाते ;तब तक मैं उस बच्ची की देखभाल करूँ। मैं खुद बेघर थी ;लेकिन उसके बाद भी मैंने खुद ने पुलिस से उस बच्ची की देखभाल की अनुमति मांगी थी। आज तक भी नहीं जानती कि मुझमें तब यह हिम्मत कहाँ से आ गयी थी ?लेकिन शायद ईश्वर ने मेरे लिए यही नियति तय की थी।
उसके बाद मैंने ऐसी बच्चियों की देखभाल करना अपने जीवन का लक्ष्य ही बना लिया था। धीरे -धीरे मैं १ से २ ,फिर २ से ४ बच्चियों की माँ बन गयी। धीरे -धीरे लोग मेरी मदद को आगे आने लगे। मैंने अपने इस आश्रय स्थल का नाम 'कली 'रख दिया था। मैंने लोगों को सन्देश दिया कि ,"अपनी मासूम कलियों को मसलिये नहीं ;बल्कि 'कली ' को दे दीजिये ;हम उनका पालन पोषण करेंगे।
'कली ' की शुरुआत के कुछ सालों के बाद ही भारत सरकार ने बालिका शिशु के अधिकारों के प्रति जागरूकता लाने के लिए २४ जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाना शुरू कर दिया था। बाल लिंगानुपात में सुधार के लिए और कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए सरकार ने बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ अभियान का प्रारम्भ किया।
मेरे छोटे से प्रयासों को सरकार से सम्मान और जनता से अपार स्नेह मिला। कहाँ मैं एक कमजोर और लाचार औरत थी और आज कहाँ मैं एक मजबूत और ३०० बच्चियों की माँ हूँ। आज मेरी बच्चियां विभिन्न क्षेत्रों में परचम फहरा रही हैं ;लोगों के सामने इस बात की मिसाल हैं कि लड़कियाँ किसी से कम नहीं हैं। लड़कियाँ केवल ज़िम्मेदारी नहीं है ,बल्कि सहारा होती हैं। मुझे भी तो ऐसी ही एक कली ने सहारा दिया था।
