किरकिरी

किरकिरी

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“तनिक सुनियेगा हो बचवा के बाबू, हम कह रहे थे कि अब हमारा बचवा डाक्टर तो बन गया है...” सुनकर मुरली बाबू ने अपनी पत्नी की तरफ सवालिया निगाहों से देखा, मगर गीता देवी आगे कुछ न बोलकर पति का मुंह देखने लगी। थोड़ी देर दोनों इसी तरह एक दूसरे को देखते रहे फिर मुरली बाबू ही बोले, “अरे भागवान अब चुप काहे हो गई, का कह रही थी?”


“जब तुम ध्यान से सुनेंगे तभी तो कहेंगे, ऐसे थोड़े ही ना कह देंगे!”


“अरे भाई, हम सुन रहे थे तभी पूछ रहे है नहीं तो कैसे पूछते? तुम भी ना रमेस का माई, का कहें तुमसे!”


“हम का, आप ही ऐसी बातें कर रहे है, दिन भर तो मरे पेपर में आंखें गड़ाए रहते है! जाइये, अब हम नहीं बतायेंगे। जब आपका मन पेपर से भर जाय तब हमसे बात कीजिएगा।”


“कान तो पेपर में गड़े हुए नहीं थे ना वो तो तुम्हारी बात सुन रहे थे! अरे भागवान तुम्हारी सास बनने की उमर हो रही है और नई-नवेली की तरह काहे नखरे कर रही हो?”


“अजी, हम यही तो कहने जा रहे थे।”


“कहां जा रही थी? जहां जाना है जाओ लेकिन पहले हमारे लिए बढ़िया-सी चाय बना दो बड़ी तलब हो रही है भाई।”


“हे भगवान, रिटायर का हुए बहरे भी हो गये! अब ऐसे आदमी से हम का बात करें...?” इस तरह बड़बड़ाती हुई गीतादेवी रसोईघर की तरफ जाने लगी तो मुरली बाबू बोले, “भागवान तुम पकौड़े बहुत ही बढ़िया बनाती हो, रंगेहाथ वो भी बना लेना। बहुत दिन से खाये नहीं ना, तुमने दो महीने से बनाये भी तो नहीं!”


“हे भगवान, ये आदमी कितना झूठ बोल रहा है! का हो, काहे इतना झूठ बोल रहे हैं? पांच दिन पहले जब सरमाजी आये थे तब भी तो आपने पकौड़े ही बनवाये थे, बेचारे सरमाजी ने चार-पांच ही खाये थे बाकी सब तो आपके पेट की भेंट चढ़ गये, फिर भी बोल रहे हैं, दो महीने से नहीं खाये? का कहें आपसे बचवा के बाबू, बच्चे है का?”


“अरी भागवान, पांच दिन पहले हमारे लिए थोड़े ही ना बनाये थे! अब बच गए तो हमें लगा तुम तो खाओगी नहीं, बेकार ही ख़राब न हो जाये सो बेमन से खा लिए थे! लेकिन हमारा मन तो आज पकौड़े खाने का हो रहा है तो बनना ही चाहिए ना, नहीं तो तुम्हारे जैसी स्वादिष्ट पकौड़े बनाने वाली सुंदर पत्नी का फिर क्या फायदा हुआ? जरा तुम ही सोचो!”


“अब का सोचे? आज पकौड़े खाये बिना तो आप हमारी बात भी नहीं सुनेंगे सारा ध्यान तो पकौड़ों में ही रहेगा! चलिए बना देते है, कम से कम चैन से बैठेंगे तो सही!” और आखिरकार चाय-पकौड़े के साथ बातचीत की शुरुआत हुई।


”देखिए अब हमारी बात ध्यान से सुनियेगा...” मुरली बाबू ने अपने उसी अंदाज से नजरें उठाई और हाथ का पकौड़ा हाथ में तो मुंह का मुंह में देखकर गीता देवी कुछ नहीं बोली तो मुरली बाबू बोले, “अब बोलो भी सस्पेंस न क्रियेट करो!”


“हां ऐसे ध्यान से सुनोगे तब ही तो... बात ऐसी है कि अपना बचवा बड़ा हो गया है, डाक्टर बन गया है इसलिए हम सोच रहे थे कि अब उसकी सादी हो जाये।”


“ये तो हम भी सोच ही रहे थे। भाई हमारा लड़का डाक्टर है तो लड़की भी डाक्टरनी ही देखनी पड़ेगी, वैसे सरमाजी के मित्र है ना अवस्थीजी उनकी बेटी डाक्टरनी है, अभी पिछले साल ही पास किया है। रमेस से तीन साल छोटी है तो जोड़ी भी बराबर रहेगी। उन्होंने सरमाजी के द्वारा बात चलाई है अभी कल ही सरमाजी ने बताया था। वैसे हम आज तुमसे बात करने वाले भी थे लेकिन हमेसा की तरह बाजी तुम ही मार ले गई। अभी भी तुम लगती तो नई-नवेली ही हो, कौन कहेगा तुम्हारा सादी लायक बेटा भी है!”


गीतादेवी शरमाते हुए बोली, “हटिए, जाइये, कैसी बातें करते है! हमें ताड़ के झाड़ पे न चढ़ाइये। हम सोच रहे थे आपको अवस्थीजी से बात कर लेनी चाहिए।”


”भागवान उतावली न बनो, हमने खुद ही सरमाजी से कह रखा है, अवस्थीजी से बात करें। कल हमें बतायेंगे फिर जैसा होगा बात करेंगे।”


एक महीने में डाॅक्टर रमेश की शादी अवस्थीजी की बेटी डाॅक्टर मधु के साथ हो गई। मुरली बाबू और गीता देवी बहुत ही खुश कि बहु डाॅक्टर तो है ही सुंदर भी बहुत ही है, सो सास बलैया लेते नहीं थक रही थी!


शुरुआत के डेढ़-दो महीने तो बड़े मज़े से गुजरे मगर फिर धीरे-धीरे बहु के रंग-ढंग बदलने लगे। वो सुशील -संस्कारी बहु जाने कहां गायब हो गई उसकी जगह झगड़ालू, कामचोर और खर्चीली बहु आ गई। अब तो उसकी चाय भी गीता देवी को उसके कमरे में पहुंचानी पड़ती। क्लिनिक रमेश के साथ जाती। वह गायनोकोलोजिस्ट थी और रमेश आर्थोपेडिक सर्जन। पेशेंट दोनों के काफी आते तो वहां भी अपने पैसे का हिसाब रखती, अक्सर पैसे को लेकर चिक-चिक करती रहती मेरे पेशेंट ज्यादा आते है तुम्हारे कम तो पैसे भी मेरे ही ज्यादा होंगे। तब रमेश ने उसे ही सारे पैसे संभालने को दे दिए। और जब दूध वाले, पेपर वाले का बिल चुकाने के लिए पैसे मांगे तो जवाब था - पैसे तो खत्म हो गये! उस वक्त तो न रमेश के पास थे और न ही घर में किसी के पास! बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही थी फिर भी उन लोगों को कल आने को कहा।


अब तो पैसे की किल्लत ही रहने लगी जबकि हर महीने एक लाख से ऊपर तो आते ही थे इतनी रकम के बावजूद यह परेशानी! अब मुरली बाबू और गीता देवी के लिए परेशानी का ही आलम था। कहां बहु के सुख के सपने देखे थे और कहां ये सब! बहुत ज्यादा लड़ाई-झगड़े होने लगे, सबका जीना हराम कर दिया, अभी एक साल ही तो हुआ था लेकिन लगता था जैसे जमाने गुजर गये। एक दिन तो हद ही हो गई- गीता देवी उसके लिए कमरे में चाय-नाश्ता ले गई टेबल पर रखा ही था कि आलू के पराठों पर मक्खन न देखकर मधु को इतना गुस्सा आया प्लेट इस तरह फेंकी कि गीता देवी के चेहरे पर जाकर लगी! काफी चोट आई थी! आवाज़ सुनकर मुरली बाबू और रमेश दौड़ते हुए आए यह देखकर रमेश कंट्रोल रख नहीं पाया, मधु को थप्पड़ मार दिया। इतनी बदतमीजियों के बाद भी कभी हाथ नहीं उठाया था पर आज तो मधु ने हद ही कर दी थी। जो हो मगर परिणाम बड़ा घातक हुआ मधु ने गुस्से में दनदनाती हुई पुलिस स्टेशन जाकर कंप्लेंट कर दी, रोना-धोना किया, खुद ही जख्म किये थे खुद को, उसने वो दिखाये। इंस्पेक्टर ने उसके साथ दो कांस्टेबल भेजे, मुरली बाबू और रमेश को गिरफ्तार कर थाने ले गए। शर्माजी और उनके पड़ोसियों ने भी इंस्पेक्टर को सब बताया, मुरली बाबू का परिवार निहायत ही शरीफ है। इन लोगों की कोई गलती नहीं। छोड़ तो दिया पुलिस ने मगर मधु ने दहेज प्रताड़ना और घरेलू हिंसा का केस कर दिया व तलाक़ की मांग भी की, साथ में बीस लाख रुपये का कांपेंसेशन भी मांगा! वह किसी भी रूप में सेटलमेंट करने को तैयार ही नहीं थी, बेचारे रमेश के पास तो जमा-पूंजी एक लाख भी नहीं थी लेकिन रोज की इस पीड़ा से छुटकारा तो पाना ही था! मुरली बाबू के रिटायरमेंट के जो पच्चीस लाख मिले थे देकर अपने इकलौते बेटे को छुटकारा दिलाया। मधु प्रेगनेंट थी उस वक्त रमेश को ही डिलीवरी और बच्चे के पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारियां भी स्वीकार करनी पड़ी!


 रोजमर्रा की जिन्दगी चल तो रही थी लेकिन माहौल उदास व मनहूसियत भरा रहने लगा। जैसे-तैसे साल बीता तो सही, पर यह एक साल भी इस तरह गुजरा जैसे सदियां गुजरी हो! मुरली बाबू और गीता देवी ने सोचा जो हो गया सो हो गया अब बेटे का दुबारा ब्याह करा लिया जाय मगर रमेश इसके लिए तैयार नहीं था। फिर भी मां-बाप की खातिर तैयार होना पड़ा। मधु के कारण उसकी सरकारी नौकरी भी छूट गई थी इसलिए बेटे को एस्टाबलिश करने के लिए अपनी बची हुई पूंजी वो पांच लाख भी क्लिनिक खुलवाने में लगा दी, गाड़ी जैसे-तैसे पटरी पर आई लेकिन घर का वातावरण वैसा ही था उसे बदलने के लिए, बेटे की जिन्दगी में खुशियां लाने के लिए फिर से शादी करवानी चाही। रमेश ने इच्छा न होते हुए भी अपने माता-पिता की खुशी के लिए हांमी भर ली। इस बार एक विधवा का रिश्ता आया जो एक चार साल के बेटे की मां थी। हां, इस बार भी यह ख्याल जरूर रखा गया कि लड़की डाॅक्टर ही हो। बातचीत से शीला सुलझी हुई और समझदार लगी पर कहते है ना - ढोल दूर के ही सुहाने लगते हैं! यह भी उसी की बहन निकली उससे भी चार कदम आगे! आते ही डिमांड्स शुरू, हर तरह की प्रोपर्टी में अपना नाम चाहिए। वैसे भी प्रोपर्टी के नाम पर मकान और क्लिनिक, ऊपर से यह डिमांड भी कि मां-बाप साथ में नहीं चाहिए, या तो अपने माता-पिता से अलग रहो या फिर इन्हें छोड़ कर मेरे घर पर रहो घरजमाई बनकर! अब भला मां-बाप को कैसे छोड़ दें जिन्होंने अपनी सारी पूंजी जो अपने बुढ़ापे का सहारा थी, बेटे के लिए खर्च करते हुए जरा नहीं सोचा, बुढ़ापे में भी जवान बेटे का सहारा बने, संबल बने... ऐसे मां-बाप को उस लड़की के लिए छोड़ दें जिसे खुद के सिवा किसी से कोई सरोकार नहीं! अब वो न साथ रहती है ना ही तलाक़ दे रही है, स्थिति पहले से भी नाजुक है! यह भी एक बच्ची की मां बन गई है। दो-दो बेटियों का पिता होकर भी अभी तक अपने बच्चों की शक्ल तक नहीं देखी, मगर अपनी दोनों बेटियों की जिम्मेदारी निभा रहा है। जहां सबकुछ होकर भी कुछ नहीं सिवा उदासी और मायूसी के!


बच्चियां बेचारी बाप के होते हुए भी बिन बाप के पल रही थी! कहने को अपनी-अपनी मां के साथ थी लेकिन वे दोनों ऐसे पिता से पैदा हुई थी जो उनकी मां की आंखों की किरकिरी था! फिर भला किरकिरी भी कभी किसी को सहन होती है? और किरकिरी का अंश भी तो कहीं न कहीं किरकिरा ही लगेगा, अफसोस न बच्चियों को दे रही थी न ही रख रही थी, काश...!


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