Arunima Thakur

Inspirational

4.8  

Arunima Thakur

Inspirational

खुशियाँ

खुशियाँ

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मेरा लड़का बड़ा अच्छा है। लड़कियों को तो आँख उठाकर भी नहीं देखता है। जहां बढ़ती उम्र के बच्चों की शिकायतें घर में आती, सब मेरे बेटे आरव की तारीफे करते, लड़का हो तो ऐसा। मेरा सीना फुल कर चौड़ा हो जाता। अरे भाई मेरे संस्कारों का असर है, इतने अच्छे संस्कार जो मैंने दिये है। ऐसा नहीं है कि वह लड़कियों से दूर रहता है। सहशिक्षा का स्कूल था तो बचपन से ही लड़कों और लड़कियों दोनों से ही उसकी अच्छी दोस्ती हैं। कुल मिलाकर एक अच्छा स्कूल जीवन फिर कॉलेज और फिर आरव को अपनी मनचाही नौकरी लग गई। मैं खुश हूँ कि मेरी बरसों की साधना पूरी हुई। आरव की छोटी बहन आरवी की पढ़ाई भी पूरी हो चुकी है। हम चाहते है आरवी को ब्याह कर साथ ही आरव की दुल्हन भी घर ले आये। पर आरवी ने हमें बताया वह किसी से प्यार करती है और वह अगले कुछ महीनों में विदेश जाने वाला है। अगर हमें ऐतराज ना हो तो हम एक बार उससे मिल लें। आजकल के अभिभावकों की तरह हम और उस लड़के दोनों के ही माँ-बाप शादी के लिए तैयार हो गए। वैसे मेरी बड़ी इच्छा थी कि मेरे दोनों बच्चों की शादी एक ही मंडप में हो। हमने बहुत कोशिश की कि कोई लड़की देख कर आरव भी शादी के लिए हाँ बोल दे। पर वह यही कहता रहा, "मुझे शादी नहीं करनी"। पहले तो हमें लगा शायद शरमा रहा होगा। पर फिर जब वह लड़कियों से मिलने के लिए भी तैयार नहीं हुआ तो हमें बुरा लगा। हमने आरवी से इस बारे में अपने भाई से बात करने को कहा। पर नई नई शादी, फिर विदेश जाना है, इन सब में आरवी इतनी ज्यादा व्यस्त थी कि वह आरव से ज्यादा जोर देकर बात भी नहीं कर पायी।

 एक दिन आरव ने अपने पापा से कहा, "पापा आप से बात करनी है"।

 उसके पापा ने कहा, "ठीक है शाम को बैठते हैं"।

आरव जब शाम को ऑफिस से लौटकर आया। तब तक मैं भी अपना रसोई का काम खत्म कर चुकी थी। उसके पापा उसका इंतजार ही कर रहे थे। पर वह बोला, "मम्मा मैं कपड़े बदल कर आता हूँ बहुत भूख लगी है"। हम सबने खाना खाया। खाते समय इन्होंने कहा, "आरव ..."।

आरव ने कहा, "पापा खाना खा कर छत पर चलते हैं"।

 मुझे बहुत बुरा लगा ऐसी क्या बात है ? जो आज तक छोटी से छोटी बात मेरे साथ साझा करने वाला मेरा बेटा मेरे सामने बात करने से भी कतरा रहा है। मेरे चेहरे पर आई शिकन को देखकर मेरे पति ने मेरा हाथ थाम कर दबाया, मुझे शांत रहने का इशारा किया। वह दोनों चुप चाप ऊपर चले गए और मैं कमरे में आकर किताब पढ़ते पढ़ते सो गयी। वह दोनों कब आए, मुझे पता ही नहीं चला। सुबह एक अजीब सा सन्नाटा मुझे इन दोनों के व्यवहार में देखने को मिला। क्या बात है ? क्या आरव विदेश जाना चाहता है ? हमें यहां अकेला छोड़ कर। पर हमने तो उसे कभी भी नहीं रोका। या उसे कोई अलग जाति धर्म की लड़की पसंद है। खैर इस के लिए भी हम इतने संकीर्ण नहीं है। तो फिर बात क्या है ? मैं अपने पति को जानती हूँ, वह मुझसे कोई भी बात छुपाते नहीं है। इसलिए पूछना मैंने ठीक नहीं समझा। चाय नाश्ता करके दोनों बाप बेटे ऑफिस के लिए निकल गए। मेरा पूरा दिन उधेड़बुन में बीता। क्या करूं ? आरव को फोन लगाऊँ या...? शाम को आरव का फोन आया, "माँ दोस्तों के साथ पिक्चर जा रहा हूँ। खाना भी बाहर खाकर आऊंगा। थोड़ी देर हो जाएगी"। तब से आरव के पापा भी ऑफिस से आ गए। मैंने उनको आरव के फोन के बारे में बताया। वह कमरे में चले गए हाथ मुंह धो कर कपड़े बदलने लिए और मैं रसोई में, चाय नाश्ता के लिए। वास्तव में इतने साल हो गए हैं, मैं आरव के पापा को अच्छी तरह से जान गई हूँ। जब परेशान होते है तब कहते नहीं है पर एक कप स्ट्रांग कॉफी उनकी पसंद होती है। तो मैं दो मग में स्ट्रांग सी कॉफी और उनका फेवरेट मोनेको टॉपिंग्स एक प्लेट में सजाकर लायी। वह मुस्कुरा कर बोले, "मस्का नहीं लगाती तो भी मैं बताता, कल आरव से क्या बात हुई"। मैं बस मुस्कुरा दी। 

रोज की तरह टीवी देखते हुए हमने कॉफी और नाश्ता खत्म किया। उन्हें देखकर लग रहा था कि वह भी कुछ कहने से पहले उसकी भूमिका बना रहे हैं। ऐसा क्या है ? जिसे कहना उन्हें इतना मुश्किल लग रहा। खैर गला खंखारकर, मेरे हाथों को थाम कर वह बोले, "देखो एकदम से कोई प्रतिक्रिया मत करना। शांति से सुनना। हमारा बेटा आरव गे है"। "गे " जैसे लगा किसी ने कान में बम फोड़ दिया। दिमाग पूरा सांये सांये कर रहा था। "गे"..." समलिंगी"... तो वह जो हमारा बेटा अच्छा बच्चा था वह वास्तव में....? मेरा दिमाग कुछ सोच समझ नहीं पा रहा था। अभी तक यह शब्द सिर्फ टीवी पर सुना था या किताबों में पढ़ा था। मैंने आरव के पापा को जब झकझोरते हुए पूछा, "हमारा आरव तो एक सामान्य बच्चा है। उसे तो गुड़िया से खेलना अच्छा नहीं लगता। मैंने तो उसे कभी फ्रॉक भी नहीं पहनाई। ऐसे कोई लक्षण उसमें नहीं है। उसकी चाल, बोलने का ढंग सब तो सामान्य है"। 

यह बोले,"यह सब एक मिथ है। समलिंगी में ऐसे लक्षण हों यह जरूरी नहीं। वह समलिंगी है उभयलिंगी नही। वह तन से पूरी तरह से एक पुरुष है। यह सिर्फ इस एक बात से जुड़ा है कि उसका मन और शरीर किसके प्रति आकर्षण महसूस करता है, किसके साथ सुविधाजनक महसूस करता हैं। शायद हमारा आरव लड़कियों के साथ सुविधाजनक महसूस ना करता हो। यह कोई बीमारी नहीं है, जिसके लक्षण बचपन में दिखने शुरू हो जाए। यह शरीर की एक चाहत है कि वह किसे स्वीकार करना पसंद करता है"। 

 "पर उसकी तो बहुत सारी दोस्त लड़कियां है"। 

उन्होंने कहा, "समझने की कोशिश करो। दोनों बातों में फर्क है"।

 मेरी आँखों में तो आँसू भर आए। इसका मतलब मेरे आरव की शादी कभी नहीं होगी। घर में बहू नहीं आएगी। मेरे सारे सपने टूट जाएंगे।

आरव के पापा ने कहा, वह चाहेगा तो शादी कर सकता है। हाँ बहू नहीं आएगी।

"नहीं"! मैं आवेश में चिल्ला कर बोली, "समाज क्या कहेगा? क्या समाज हंसेगा नहीं हम पर, हमारे बेटे पर"।

आरव के पापा बोले, "शांत रहो। पहले तुम तो स्वीकार करो। समाज तो स्वीकार कर ही लेगा। वैसे भी इस तरह के विवाह को कानूनी मान्यता है। देखो तुम्हारे पास दो ही विकल्प है। बेटे की खुशियां या समाज की खुशियां। देखो तुम से एक अनुरोध है आरव पर शादी के लिए दबाव मत डालना। इससे सिर्फ आरव की ही नहीं उस लड़की की जिंदगी भी खराब हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि अपना आरव पुरुष नहीं है। बस उसको लड़कियों का साथ पसंद नहीं है। यह बात उस को कब पता चली ? कैसे पता चली ? इससे हमें मतलब नहीं होना चाहिए। हमें खुशी होनी चाहिए कि इस बात का एहसास उसे शादी से पहले ही हो गया"। 

मैं मन में सोच रही थी। किस बात की ख़ुशी मनाऊं ? क्या सच में यह खुशी मनाने की बात है ? एकदम से मेरे दिमाग में कौंधा, इसका मतलब क्या उसने किसी लड़के को या किसी लड़के ने उसे पसंद कर रखा है। क्या उसके जीवन में कोई लड़का है ? 

आरव के पापा कंधे उचकाते हुए बोले, "यह तो उसने नहीं बताया है अभी तक। पर तुम आरव के साथ सामान्य व्यवहार ही करना। जब उसने हम पर विश्वास करके अपना सच हमें बताया है तो हमारा फर्ज है हम उसके सच का सम्मान करें। उसके जीवन में कोई होगा तो वह समय आने पर हमें उससे मिलवा ही देगा"। 

दिन गुजर रहे थे। आरव को मालूम था कि अब मुझे भी मालूम है। एक सन्नाटा सा फैल गया था हम तीनों के बीच। समाज में तो मैं रहती हूँ। लोगो का सामना तो मुझे करना पड़ेगा। दोनों बाप बेटे तो बस ऑफिस और घर। मैं मन ही मन घुलती जा रही थी। मैं कल्पना करती, मेरा बेटा दुल्हन बना है। कभी सोचती आरव दूल्हा बना है। उसके साथ घूंघट में दुल्हन दरवाजे पर खड़ी है। जब मैं पूजा करके दुल्हन का गृह प्रवेश करवाते समय उसका घुंघट खोलती हूँ तो वहां दाढ़ी मूछ वाला एक लड़के का चेहरा होता है। यह सारे विचार मुझे अंदर से तोड़ रहे थे, कमजोर कर रहे थे।

एक दिन मैंने फिर से आरव के पापा से पूछा, "क्या आरव के जीवन में कोई ऐसा है जिसके लिए वह ऐसा महसूस करता है" ?  

आरव के पापा बोले, तुम शायद उसे जानती हो। आरव का दोस्त है"। 

अब तो आरव के सभी दोस्तों को मैं शक की निगाह से देखती। मेरी आँखें स्कैनिंग करने लगती कि कौन है ? कौन हो सकता है ? आरव की तरह आरव के दोस्त भी सामान्य थे। ऐसा कोई तो दिखा नहीं जो असामान्य लगे। वैसे असामान्य तो मेरा आरव भी नहीं है। इसी बीच आरव का ट्रांसफर बेंगलुरु हो गया और एक महीने बाद ही आरव के पापा को ऑफिस के काम से आठ दिन के लिए ट्रिप पर जाना पड़ा कुछ ऑडिट के लिए। इस बार पहली बार मैं अकेली थी। नहीं तो आरव और आरवी साथ ही होते थे। पहले दिन ही मुझे बहुत अकेलापन महसूस हुआ। आरव से फोन पर बात करने के बाद मैंने बोला भी उससे कि इस बार तो ना तो तू है ना आरवी।

 वह बोला, "आप बोलो तो अपने किसी दोस्त को आपके पास रुकने के लिए बोल देता हूँ"। मैंने कहा, "अरे नहीं आठ दिन की तो बात है। कोई जरूरत नहीं है"। उसने बोला ठीक है फिर भी मानव को बोल देता हूँ। वह बीच-बीच में आता रहेगा"। 

दूसरे दिन सुबह बिल्कुल खाली खाली लग रहा था। जैसे कोई काम ही ना हो। मैं बिस्तर पर अलसायी सी लेटी थी। नहीं तो 6:00 बजे से उठकर चाय नाश्ता, अखबार। आरव के पापा बोलते भी क्या जरूरत है ? लेटो आराम से पर मैं ......। और आज पसरी पड़ी थी। चाय बनाने का भी मन नहीं कर रहा था। कब तक लेटी रहती ? अभी नहाना धोना, भगवान का दिया लगाना सब बाकी था। तब से दरवाजे की घंटी बजी। शायद कामवाली होगी। हे भगवान आज तो मैंने दूध भी अंदर नहीं लिया, कही खराब ना हो गया हो। दरवाजा खोला तो एक सुंदर सा, सजीला, घुघराले बालों वाला लड़का, कुछ कुछ नागार्जुन जैसी मूछें (हा भाई, नागार्जुन मेरा पसंदीदा हीरो है, मैं आँखे फाड़ कर उसे देख रही थी ) दूध की बोतल पकड़े खड़ा था। मेरा दिमाग कंफ्यूज हो गया। क्या यह दूध वाला है? नहीं? यह कौन है ? तब से वह बोला, "हैलो माँ मैं मानव, आरव का दोस्त"। मैं इसे नहीं पहचानती। आरव के सभी दोस्त तो घर पर आते रहते हैं बचपन से। जैसे मानो उसने मेरा चेहरा पढ़ लिया हो वह मुस्कुराकर बोला, "मैं अभी कुछ सालों से ही उसका दोस्त हूँ। हम कॉलेज के अंतिम वर्ष में एक सेमिनार में मिले थे"। मैं पशोपेश में कि मैं क्या करूं ? उसे अंदर बुलाऊँ या नहीं ? तब से उसने फोन लगाकर किसी से कुछ बात की। मुझे सिर्फ इतना सुनाई पड़ा, "नहीं तू माँ के फोन पर ही कॉल कर"। तब से मेरा फोन बजा। मैंने उसे देखा, वह बोला, "मैं यहीं खड़ा हूँ। पहले आप आरव से बात कर लो"। मैंने फोन उठाया। सच में आरव का ही फोन था। गुड मॉर्निंग बोलने के बाद आरव ने बोला, "यह मेरा दोस्त मानव है। आपको कुछ भी जरूरत हो तो इसको बता देना। इसका नंबर मैंने आपको भेज दिया है"। फोन रख कर मैंने उसे अंदर बुलाया। मैं उसके हाथ से दूध ले कर किचन में रखने के लिए गयी। वह भी मेरे पीछे पीछे आ गया। बोला,"माँ पहले आप तैयार हो जाओ , पूजा कर लो"। अरे हां ना अभी तो मैं रात के कपड़े में ही हूँ। वह बोला, "मैं बैठा हूँ। आप चिंता मत करो"। मैं जब भगवान की पूजा खत्म करके आई तो वह वहां नहीं था। हे भगवान! कहां गया? किचन से कुछ खटपट की आवाज आ रही थी शायद पानी पीने गया होगा। मैं किचन में पहुंची तो देखा भगोने में दूध गर्म होने के लिए रखा है। बोतले धोकर एक तरफ करीने से रखी है। एक पैन में चाय लगभग तैयार थी। वह प्याज काट कर कुछ बनाने जा रहा था। मुझे देखते ही बोला,"माँ बहुत जोर से भूख लगी थी। मुझे मालूम है रात से आपने भी कुछ नहीं खाया है तो मैंने आपका इंतजार नहीं किया"।

 मैं धर्म संकट में, सुबह की पहली चाय तो मैं अपने हाथ की बनी हुई ही पीती हूँ। वो कहते हैं ना चाय बिगड़ी तो दिन बिगड़ा। खैर तब से उसने मेरे देखते ही देखते करी पत्ता, प्याज अदरक मिर्च डालकर रात की रोटियों को बघार दिया था। पांच मिनट बाद हम डाइनिंग टेबल पर बैठ कर बातें करते हुए नाश्ता कर रहे थे। आरवी की शादी के बाद पहली बार थोड़ा अच्छा लगा। चाय बेहतरीन थी नाश्ता भी। जब वह टेबल से चाय के बर्तन हटाने लगा तो मैं सोच रही थी कि कितनी अच्छी माँ है जिसने अपने बेटे को सब सिखाया है। मेरा आरव तो क्या आरवी भी घर के कामों में फूहड़ ही गिने जाएगे। मैंने ना तो उन्हें सिखाया और ना ही सीखने दिया। बस उनके कैरियर पर ही ध्यान दिया कि बाकी कामों के लिए नौकर तो मिल ही जाते हैं। इतना इतना कमाओ कि ना तुम्हें काम करना पड़े ना मुझे। पर मैं भूल गई थी नौकरों के खाने में प्यार मनुहार थोड़ी ना होता है। तब से वह अपना बैग खोलकर लैपटॉप निकाल कर बैठ गया। माँ मैं अपना काम कर रहा हूँ। आपको कुछ लगे तो बोल देना। मैं मुस्कुरा दी, यह मेरे घर पर है या मैं इसके घर पर। मुझे तो लग रहा था कि अभी चला जाएगा शायद। फिर से उससे मेरे मन की बात पढ़ ली थी। वह बोला, "आठ दिन मैं यही हूँ। आपको कोई परेशानी तो नहीं ना। अब तक मैं उसके साथ अच्छा महसूस कर रही थी। मैं मुस्कुरा दी, नहीं कोई परेशानी नहीं। दोपहर का खाना मैंने बनाया। शाम को काम करते-करते उसका चाय पीने का मन हुआ होगा तो चाय उसने ही बना ली थी, मेरे बनाने से पहले। पर चाय अच्छी थी। उसका ऑफिस खत्म हुआ तो वह बोला, मैं वॉक पर जा रहा हूँ। आप भी चलो ना"। वॉक पर जाना तो मुझे भी पसंद है। पर साथ में कोई जाने को तैयार ही ना होता था तो कब की छूट गई थी। शायद आरव और आरवी को तो मालूम भी नहीं कि मुझे वॉक करना अच्छा लगता है। हम दोनों वॉक के लिए निकल गए। वॉक करते वक्त उसने बताया कि वह रोज सुबह जिम जाता है। शाम को वॉक करता है। वॉक करते वक्त वह अपनी बिना मतलब की बातें करता रहा। कितना बातूनी है यह, इतना तो शायद आरव और उसके पापा मिलकर भी तीन दिन में नहीं बोलते। उसकी बातें सुनना बड़ा भला सा लग रहा था। और उसका मुझे माँ कहना मन को कही अंदर तक भिगो दें रहा था।आरव और आरवी तो इतना कहने पर भी मॉम या मम्मा ही बुलाते है।

 लौटकर वहीं आ कर सोफे पर बैठ गई। मैं थक गई थी। प्यास तो बहुत जोर से लगी थी। पर फिर लगा रुको जरा दो मिनट सुस्ता लू, फिर किचन में जाकर पानी पीती हूँ। मानव शायद अंदर चला गया था कपड़े बदलने पर दो मिनट बाद ही वह दो गिलास नींबू पानी ले आया। जितनी बार मैं मानव को देखती मुझे अपने ऊपर शर्म आती है। कि मैंने अपने बच्चों को कुछ नहीं सिखाया और उसकी माँ पर प्यार, कि कितने अच्छे संस्कार दिए हैं। काश ऐसी ही प्यारी सी लड़की मुझे आरव के लिए मिल जाए। काश यह लड़की होता तो इससे ही मैं आरव की शादी करवा देती। पर आरव तो लड़की से शादी करना ही नहीं चाहता है। तो क्या यह वही तो नहीं ? वैसे बुरा नहीं है। बहू (लड़की) भी तो हम अपने बेटे की खुशियों के लिए ही लाते हैं। क्या सच में आज की लड़कियां मुझे वह इज्जत और प्यार दे पाएंगे जो यह दे रहा है। कहीं जानबूझकर तो नहीं अच्छा बनने का दिखावा कर रहा हो। वैसे भी कोई दिखावा कब तक कर पाएगा। आठ दस दिन शॉपिंग, गप्पे, टीवी, ताश खेलने में ना जाने कब फुर्र से उड़ गए। आरव के पापा वापस आ गए थे। मानव से भी मिले। शायद उन्हें पता था। शायद यह सब बाप बेटे की प्लानिंग थी।

जो भी हो मेरे मन की धुंध छट गई थी। मुझे मेरे बेटे की खुशियां स्वीकार थी। मानव का एक बड़ा भाई भी था तो मानव के मम्मी पापा उसके पास रहते थे। मानव ने हमारे साथ रहना पसंद किया। वैसे भी बेटे की पोस्टिंग बैंगलोर में थी। कुछ दिन बाद आरव ने इसी शहर में दूसरी कंपनी में नौकरी ढूंढ ली। हम दोनों अपने दोनों बेटों के साथ बहुत खुश हैं। और दोनों बेटे एक दूसरे के साथ। समाज का क्या है ? समाज तो वैसा ही बनेगा जैसा हम बनाना चाहेंगे।

 आप सभी पाठकों से मेरा निवेदन है कि मुझे ऑर्थर ऑफ द वीक के लिए नामांकित किया गया है। मेरे लिए क्लेप 👏 कर के मुझे प्रोत्साहित करें ।🙏🙏🙏🙏



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