खरा सोना
खरा सोना
बहुत देर से बैठे बैठे शैलेश थक गया था। बीना ने उसे लेटने में मदद की। उसका हाथ पकड़ कर वह बोला,
"मेरे कारण तुम्हें कितनी परेशानी झेलनी पड़ती है।"
"आप जानते हैं मुझे आपकी ऐसी बातों से अधिक तकलीफ़ होती है। आप आराम करें।"
कुछ ही देर में शैलेश सो गया। बीना अपने विचारों में खो गई। कई दिनों से वह शैलेश को लेकर अस्पताल में रह रही थी। वह बहुत अकेली थी। उसे भावनात्मक सहारे की बहुत आवश्यक्ता थी। पर उसके आसपास उसे सांत्वना देने वाला कोई नहीं था।
उसके ज़ेहन में बार बार विशाल का नाम उभर कर आ रहा था। पर उसे किस हक से बुलाती। फिर शैलेश से उसे क्या कह कर मिलवाती। यह बताती कि कभी वह उसके घर किराएदार था। उसका और विशाल का रिश्ता खरे सोने की तरह था। मिलावट रहित। इसीलिए कोई आकार नहीं ले सका। पिता के दिए वचन का मान रखने के लिए उसने शैलेश से विवाह कर लिया। उसका घर छोड़ते हुए विशाल ने कहा था,
"जब कभी कोई दुख या परेशानी आए मुझे एक हमदर्द के तौर पर याद रखना।"
दो साल हो गए थे। पता नहीं अभी भी वही नंबर है कि नहीं। हो सकता है वह अब इस शहर में ना हो। इसी उहापोह में फंसी वह कोई निर्णय नहीं कर पा रही थी। बहुत सोंच विचार के बाद उसने फोन करने का निर्णय किया।
बहुत देर घंटी बजने के बाद भी फोन नहीं उठा। वह फोन काटने ही वाली थी कि आवाज़ आई,
"हैलो...."
"विशाल मैं....बीना"
"कैसी हो ? इतने दिनों बाद। कोई परेशानी है।"
बीना ने उसे सारी बात बता दी।
"तुम परेशान मत हो। मैं आता हूँ।"
बीना उसके आने की प्रतीक्षा करने लगी। विशाल की दोस्ती उसके लिए खरा सोना थी।