खोया सम्मान
खोया सम्मान
खोया सम्मान
एक भावनात्मक हिंदी कहानी
लेखक: विजय शर्मा एरी
कहते हैं—इंसान सब कुछ खो सकता है, पैसा, पद, रिश्ते… लेकिन अगर उसने अपना सम्मान खो दिया, तो वह भीतर से खाली हो जाता है। यही कहानी है रघुनाथ शर्मा की—एक ऐसे व्यक्ति की, जिसने जीवन की भागदौड़ में वह सब पा लिया, जो बाहर से चमकता है, पर भीतर कहीं अपना सबसे कीमती खज़ाना खो बैठा।
रघुनाथ शर्मा कभी अपने मोहल्ले की शान हुआ करता था। सरकारी दफ्तर में ऊँचे पद पर, सादा जीवन, ईमानदार छवि। लोग कहते थे—“शर्मा जी हों तो काम अपने आप हो जाता है।” उनकी पत्नी सावित्री उन्हें देवता मानती थीं और बेटा आदित्य अपने पिता को आदर्श। शाम को जब रघुनाथ घर लौटते, तो मोहल्ले के बच्चे उनके पैर छूते और बुज़ुर्ग सिर हिलाकर मुस्कुरा देते।
लेकिन समय की एक खासियत है—वह धीरे-धीरे इंसान के भीतर लालच का बीज बो देता है।
एक दिन दफ्तर में नया ठेकेदार आया—विक्रम सिंह। तेज़ जुबान, भारी गाड़ी, और आँखों में चालाकी। उसने रघुनाथ को पहली बार चाय पर बुलाया। बातों-बातों में बोला,
“शर्मा जी, आप जैसे अफसर बहुत कम होते हैं। बस एक दस्तख़त… और आपकी ज़िंदगी और आरामदेह हो सकती है।”
रघुनाथ ने सख़्ती से मना किया।
“मैं अपना काम ईमानदारी से करता हूँ।”
विक्रम मुस्कराया—वह मुस्कान जो देर तक पीछा करती है।
“ईमानदारी पेट नहीं भरती, शर्मा जी। सोचिएगा।”
उस दिन के बाद रघुनाथ बेचैन रहने लगा। बेटे की महंगी पढ़ाई, पत्नी की बीमारी, बढ़ते खर्च—सब एक-एक कर सामने आने लगे। रात को सावित्री ने कहा,
“आजकल आप बहुत खोए-खोए रहते हैं।”
रघुनाथ ने टाल दिया।
“कुछ नहीं… काम का दबाव है।”
और फिर एक दिन—वह दस्तख़त हो गया।
पहली बार हाथ काँपा, दिल धड़का, लेकिन जब मोटा लिफ़ाफ़ा हाथ में आया, तो डर के साथ एक अजीब-सी राहत भी थी। “बस एक बार,” उसने खुद से कहा, “किसी को पता नहीं चलेगा।”
पर पाप का स्वभाव है—वह एक बार नहीं रुकता।
धीरे-धीरे रघुनाथ की ज़िंदगी बदलने लगी। नया घर, नई गाड़ी, महंगे कपड़े। मोहल्ले के लोग चकित थे। जो आदमी सादगी की मिसाल था, अब वही दिखावे में डूबा था। सावित्री चुप थी, पर उसकी आँखें सवाल करती थीं। आदित्य ने एक दिन कहा,
“पापा, लोग कॉलेज में बातें करते हैं… कहते हैं आप…”
रघुनाथ झल्ला उठा।
“लोग क्या कहते हैं, उस पर ध्यान मत दो!”
लेकिन वह जानता था—किसी न किसी दिन सच सामने आएगा।
और वह दिन आया।
एक सुबह अख़बार की सुर्खी बनी—“वरिष्ठ अधिकारी रघुनाथ शर्मा रिश्वत कांड में गिरफ़्तार।”
घर में सन्नाटा छा गया। सावित्री का हाथ काँपते हुए अख़बार से फिसल गया। आदित्य की आँखों में आँसू और अविश्वास था।
पुलिस जब उन्हें ले गई, तो वही मोहल्ला था—वही गलियाँ—पर अब कोई पैर छूने वाला नहीं था। खिड़कियों के पर्दे हिले, फुसफुसाहटें हुईं। रघुनाथ की नज़रें ज़मीन पर थीं।
जेल की सलाखों के पीछे बैठा रघुनाथ पहली बार खुद से रू-ब-रू हुआ। रातें लंबी थीं, और आत्मा भारी। उसे याद आए वे दिन, जब उसका नाम सम्मान से लिया जाता था। उसे याद आई माँ की सीख—
“बेटा, ईमानदारी का रास्ता कठिन होता है, पर वही सिर ऊँचा रखता है।”
एक दिन सावित्री मिलने आई। आँखें सूनी थीं, चेहरा बुझा हुआ।
“तुमने हमें यह दिन दिखाने के लिए पाला था?” उसकी आवाज़ काँप रही थी।
रघुनाथ के होंठ थरथरा गए।
“मुझसे गलती हो गई, सावित्री… बहुत बड़ी गलती।”
आदित्य भी आया, पर उसने नज़र नहीं मिलाई।
“मैं लोगों को क्या जवाब दूँ, पापा?” उसने बस इतना कहा।
उस पल रघुनाथ को लगा—वह सब कुछ खो चुका है। पैसा, पद—सब व्यर्थ थे। जो खोया था, वह था सम्मान—अपने परिवार की नज़रों में, समाज की नज़रों में, और सबसे बढ़कर—खुद की नज़रों में।
समय बीतता गया। अदालत ने सज़ा सुनाई। जेल में रहते हुए रघुनाथ ने किताबों का सहारा लिया, दूसरों को पढ़ाना शुरू किया। वह जानता था—उसकी गलती का प्रायश्चित आसान नहीं, पर कोशिश ज़रूरी है।
सज़ा पूरी होने के बाद जब वह बाहर आया, तो दुनिया बदली हुई थी। वही मोहल्ला, पर पुराने चेहरे नहीं। लोग पहचानते, पर पहचानने से कतराते। रघुनाथ ने चुपचाप एक छोटा-सा स्कूल खोलने में मदद शुरू की—बिना नाम, बिना प्रचार।
धीरे-धीरे बच्चे उसे “शर्मा सर” कहने लगे। उनकी आँखों में सम्मान था—नया, कच्चा, पर सच्चा।
एक शाम आदित्य आया।
“पापा… मैंने आपको माफ़ कर दिया है,” उसने कहा, “पर भूलना शायद मुमकिन नहीं।”
रघुनाथ की आँखें भर आईं।
“मुझे भूलने का हक़ भी नहीं है,” उसने कहा, “बस इतना चाहता हूँ कि तुम मुझसे वो सीख लो, जो मैंने देर से सीखी।”
सावित्री ने चुपचाप उसके हाथ में चाय रखी। पहली बार उसके चेहरे पर हल्की-सी शांति थी।
रघुनाथ जानता था—खोया सम्मान पूरी तरह लौटता नहीं। पर अगर इंसान सच में बदल जाए, तो ज़िंदगी एक दूसरा मौका देती है—छोटा-सा, सादा-सा, पर ईमानदार।
उस रात उसने आसमान की ओर देखा और बुदबुदाया—
“मैंने सब कुछ खोकर यह जाना है… सम्मान कमाना मुश्किल है, और खोना बहुत आसान।”
और शायद यही उसकी सबसे बड़ी सज़ा थी—और सबसे बड़ी सीख भी।
