Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Inspirational

4.8  

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Inspirational

खंडहर के भूत

खंडहर के भूत

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सकीना और जुनैद बेहद गरीब थे। यूँ तो उनकी झोपड़ पट्टी में सब ही की माली स्थिति कुछ पतली सी ही थी, पर उनमे भी सबसे ख़राब हालात सकीना और जुनैद की ही थी। घर में बस बूढ़े अब्बा थे, जो जिंदगी भर रेत खोदने का काम कर कर के अपने फेफड़े में इतनी धूल समा चुके थे कि अब रात-दिन बस खांसते खंखारते रहते थे। वैसे उनकी मौजूदगी की बड़ी अहमियत थी। उनके खांसने के कारण नींद भी उन्हें कच्ची सी ही आती थी। एक बार पड़ोस के एक नंबर के आवारा सुलेमान ने खिड़की से सोती हुयी सकीना को ताकने की कोशिश की थी, तो उन्होंने झट से अपनी खांसी और खंखारने की लय और ताल को इतना बढ़ाया था, कि पास पड़ोस की झोपड़ियों से सब आंखे मलते बाहर आ खड़े हुए थे। फिर तो सुलेमान की इतनी लानत और मलानत हुयी की वो तो क्या उसकी सात पुश्तों में भी शायद अब कोई किसी खांसने -खंखारने वाले के घरवालों से पंगा लेने की हिम्मत ही न बटोर सकेगा। 

सकीना एक -दो घरों में चौका बर्तन का काम करती थी। जुनैद कचरा बीन कर जुम्मन कबाड़ी को बेचता था। दोनों मिल कर बस इतना कमा पाते थे की खाने को रोटी नसीब हो जाए और अब्बा के लिए दवा दारु। कोई शौक पालने का तो ख्याल ही कैसे आता। बस कभी कभार मेहंदी के झाड़ से पत्तियां तोड़ कर सकीना हाथों में हिना लगा लेती थी और जुनैद के बनाये टायरों से बने झूले में पींगे भर लेती थी। जुनैद भी कभी कभी चुपचाप सबसे आगे वाली सीट की सस्ती टिकट ले कर फ़िल्म देख आता था। 

पास पड़ोस में दोनों के दोस्त और सहेलियां तो थे पर ज्यादातर उन्हें किसी न किसी बात पर चिढ़ाने का ही काम करते थे। अब बॉबी, पिंटू और फरहान ने एक दिन जुनैद को कुछ ज्यादा ही चिढ़ा दिया कि उसके अब्बा तो जल्द ही खुदा को प्यारे हो जाएंगे और उनके जन्नत जाते ही सुलेमान सकीना का उठा ले जाएगा। जुनैद को कुछ ज्यादा ही गुस्सा आ गया और उसे उन की नाक तोड़ने से कोई गुरेज नहीं हुआ। अब वो तीनो रोने -पीटने लगे तो उनके घर वालों, मोहल्ले वालों और सबसे ज्यादा सकीना के डर से वो वहां से भाग कर पास के खंडहर में छुप गया। 

रात गहराने पर भी जुनैद घर नहीं पहुंचा तो सकीना के जेहन में बुरे ख्यालात घर करने लगे। हाथ में एक डंडा ले और सर पर दुपट्टा अच्छे से ओढ़, मुंह ढक कर वो जुनैद को ढूंढने लगी। पूरा मोहल्ला छान मारने पर भी नजर जुनैद को नही ढूंढ पायी, तो मायूस हो ही गयी थी कि तभी उसकी नजर ऊँचे टीले के खंडहर में जलती आग पर जा ठहरी। 

भूतों वाले खंडहर में कौन आग जला रहा था। भूत तो आग से डरते हैं, तो वो तो जलाएंगे नहीं। पर जिस खंडहर से दिन में भी लोग-बाग़ दूर ही रहते हैं , वहां रात को जाने की हिम्मत किसने जुटा ली। कहीं जुनैद तो नहीं ? बस इन्ही ख़यालात में मशगूल उसके कदम खंडहर की तरफ बढ़ चले। आल तू बलाल तू आयी बला को टाल तू -यही दोहराते हुए वहां पहुँची तो देखा जुनैद उदास और डरा डरा आग सेंक रहा था। 

सुकून और राहत से सकीना का चेहरा फिर से नूर टपकाने लगा। झट से वो वहीं आग के पास जुनैद के ठीक सामने हँसते हुए बैठ गयी तो अपनी आपा के मुस्कुराते चेहरे को देख जुनैद के चेहरे में भी रौनक आ गयी। दोनों वहीं बैठ बातें करने लगे। अपने अधूरे ख्वाब, छोटी छोटी ख्वाहिशें। कुछ देर आग सेंक और दिल के राज एक दूसर के सामने खोलने के बाद वो घर जाने लगे तो अचनाक जुनैद ने उम्मीद भरी आँखों से खंडहर की दीवारों को देख कर सकीना से कहा 

"आपा, काश भूत हमारे ख्वाब और ख्वाहिशें पूरी कर दें। ये भूत , प्रेत और जिन्न तो कुछ भी कर सकते हैं न। "

सकीना मुस्कुरा पड़ी। भूत, प्रेत और जिन्न तो कहानियों -किस्सों में ही होते हैं। असली जिंदगी में काश होते। पर उसने जुनैद को कुछ नहीं कहा। बस चुपचाप उसका हाथ पकड़ अपने मोहल्ले, अपनी झोपड़ी की तरफ चल पडी। 

पर अगले ही दिन जाने क्या चमत्कार हुआ। अब्बा से मिलने साफ़ सुथरे झक सफ़ेद कुरता पायजामा पहन कर दो तीन लोग मिलने आये। पड़ोस के मोहन चाचा भी साथ आये और जुम्मन मियां भी। सकीना और जुनैद को वजीफा मिल गया था। अब वो रोज पढ़ने जाएंगे। अब्बा के इलाज और दवा दारु का खर्च भी मिलने वाला था। 

सकीना और जुनैद हैरान थे। खुश भी थे। क्या सच में खंडहर के भूतों का असर था ? 

वो दोनों जो भी ख्याली जमा घटा करें उससे क्या फर्क पड़ता है। वैसे जमा घटा तो सारा मोहल्ला क्या सारा शहर ही कर रहा था। अफवाहों का बाजार गर्म था। सब को ये तो पता चल ही गया था की ये भला काम अशफाक मियां का है पर किया क्यों इसमें सबकी अपनी अपनी राय थी। कोई कहता की शायद अशफाक मियां जल्द ही चुनाव में खड़े होने वाले हैं और ये वजीफा बस आवाम को लुभाने की कोशिश है। कोई कहता की अशफाक मियां नहीं उनकी बीवी इस नेक काम की जड़ में हैं। सालों से औलाद के सुख के लिए तरस रही हैं और किसी मौलवी की सलाह पर ये नेक काम औलाद की मुराद पूरी करने के लिए किया गया है। बस पूछिए मत जितनी जुबानें उतने किस्से। कुछ किस्से तो ऐसे हैं की क्या कहें ! खैर छोड़िये ये सब, ये कहानी आप लोग पढ़ रहे हो, तो आप को सच बताने में कोई गुनाह नहीं है। 

वो खंडहर अशफ़ाक़ मियां की पुश्तैनी हवेली के हैं। अंग्रेजों ने गोले दाग कर तोड़ फोड़ डाली थी। अवाम यानी जनता अंग्रेजों की ये करनी न भूले इसलिए वहां से दूर नयी जगह पर हवेली बना दी गयी थी। बस अशफाक मियां रोज की तरह रात की सैर पर थे कि वहां जलती आग को देख वो भी वहां पहुँच गए थे और जान गए थे की सकीना और जुनैद के ख्वाब पढ़ने लिखने और अब्बा को सेहतमंद देखने के ही हैं। 


अब वैसे तो अशफाक मियां अपनी कंजूसी और चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए के वसूल के अमल के लिए ही जाने जाते थे। पर पता नहीं क्यों , उस दिन वो उन दोनों बच्चों के पीछे पीछे उनके घर चले आये। वहां खाट पर लेते उनके अब्बा को देख उन्हें याद आया की सालों पहले जब उन्हें किसी नामुराद सांप ने डसा था तो वो इन बच्चों के अब्बा ही थे जिन्होंने उनकी जान जहर चूस कर बचाई थी। उन्हें तब अपने अब्बा पर कोफ़्त हुयी थी जिन्होंने उनकी जान बचाने वाले को बस एक रुपया इनाम दे कर चलता कर दिया था। 

अब ये मदद का ख्याल खुद बी खुद अशफ़ाक़ मियां के ख्याल में आया या फिर उस दिन जलती आग ने उनकी कंजूसी को जला दिया या सच में खंडहर के भूतों को आग सेंकते सकीना और जुनैद पर इतना रहम आया कि उन्होंने अशफ़ाक़ मिया के जेहन में ये नेक जज्बा बो डाला ये हमें नहीं मालूम। 

हमें तो ये मालूम है की खंडहर में जलाई छोटी सी आग की रोशनी से सकीना और जुनैद की जिंदगी से अंधेरों के साये दूर हो गए हैं। हमेशा हमेशा के लिए। 

काश हर गरीब बच्चे के ख्वाब ऐसे ही पूरे हो जाएँ। कौन करता है उस से क्या फर्क पड़ता है ?


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