खिचड़ी
खिचड़ी
जाने नाम में ही ऐसा क्या है ? कभी अच्छी लगी ही नहीं। नाम सुनकर ही न जाने क्यों ऐसा लगता कि जैसे किसी फीके बेस्वाद खाने का नाम ले लिया हो।
उसी खिचड़ी को याद करके आज मैं मन ही मन अकेले में मुस्कुरा रहा था। पिछले एक हफ्ते में ही मेरे अन्दर ये बदलाव आया है।
मैं इस शहर मे, इस शहर क्या दुनिया में ही एक तरह से अकेला रहता हूँ। आगे पीछे कोई नहीं है। दरअसल पहले मेरा भी एक भरा पूरा परिवार था, माँ, पिता जी,दो छोटे भाई और एक प्यारी बहन भी थी। पिता जी सरकारी नौकरी में थे और माँ घर गृहस्थी संभालती थीं।
मैं सबसे बड़ा था। अभी मैंने बारहवीं की बोर्ड की परीक्षा दी ही थी कि पिता जी की एक रोड एक्सीडेंट ने जान ले ली। हमारी तो अचानक दुनिया ही बदल गई। सोचा क्या क्या था?और क्या हो गया? मैंने बोर्ड की परीक्षा के साथ साथ विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी की थी और बहुत सम्भव था कि किसी अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में मेरा नाम भी लिख जाता। लेकिन होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। पिता जी तो रहे नहीं, घर के खर्च पूरे होने ही मुश्किल थे ऐसे में मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई का खर्चा करने कि तो सोच ही नहीं सकते थे। माँ की पढ़ाई कम होने से उन्हें चतुर्थ श्रेणी की नौकरी ही मिल सकती थी, अंत में सबने मिलकर मेरा ही पिता जी के दफ्तर में नौकरी करना सही समझा।
इस तरह समय की मार ने मुझे समय से पहले ही बड़ा कर दिया। एक बार फिर से ज़िंदगी पटरी पर आ गई। जीवन अपनी गति से चलता रहा। मैं तो इंजीनियर नहीं बन पाया, लेकिन दोनों छोटे भाइयों को जरूर इंजीनियर बनाया। दोनों ने नौकरी लगते ही अपनी साथियों के साथ शादी कर ली और अपनी अपनी ज़िंदगी मे व्यस्त हो गए। छोटी बहन को पढ़ने लिखने का कोई शौक नहीं था, किसी तरह से ग्रेजुएशन किया,जाति बिरादरी में देख कर उसकी शादी भी हो गई। ये सब करते करते मैं पैंतीस साल का हो गया कभी किसी ने मेरी शादी की कोई चर्चा ही नहीं की।किसी को लगा ही नहीं कि मेरी भी शादी होनी चाहिए। मैं भी समय से पहले ही बुजुर्ग सा हो गया। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर। घर भी पिछले साल तक ही घर रहा, पिछले साल माँ भी ये दुनिया छोड़ कर चली गईं।इस तरह मैं, इस दुनिया में ही अकेला रह गया।
पिछले हफ्ते अचानक मुझे वायरल बुखार ने जकड़ लिया। वो भी इतना तेज की मैं दो दिन तक घर से ही नहीं निकल पाया। तीसरे दिन शाम के समय घर की घण्टी की आवाज से मैं लगभग बेहोशी की हालत में उठा तो सामने के फ्लैट में रहने वाली शोभा जी दरवाजे पर थीं।क्या बात हुई मुझे कुछ याद नहीं। बाद में पता चला कि मैं तो दरवाजे पर ही गिर कर बेहोश हो गया था। शोभा जी ने ही डॉक्टर को बुलाया, मुझे किसी तरह बिस्तर पे पहुंचाया और दवा लाकर दी। मेरे सिर पर बराबर पट्टी रखी। जब बुखार कुछ उतरा तो खाने के लिए खिचडी लाकर दी।गरमा गरम खिचड़ी खा कर दिमाग कुछ ठिकाने आया।
शोभा जी मेरे सामने वाले फ्लैट में अकेली ही रहती हैं।छे महीने पहले ही उनके पति के जगह उनकी नौकरी लगी है।बाल बच्चे कोई हैं। कोई भी पड़ोसी उनसे सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। महिलाएं तो ऐसे देखती हैं कि जैसे उनके पति को ही न शोभा जी छीन लें।
देखते ही देखते चार दिन बीत गए।अब मेरी तबियत कुछ ठीक हुई। आज जैसे ही शोभा जी शाम को खिचड़ी ले कर आईं मैंने बिना किसी लाग लपेट के उनसे कह ही दिया कि क्या वो मुझसे शादी करेंगी ? मुझे पता है वो मुझसे शायद दो एक साल बड़ी ही होंगी लेकिन जीवन अभी बहुत बाकी है।क्यों न हम दोनों मिलकर एक नई शुरुआत करें। शोभा जी मुस्कुरा दीं और बोलीं 'आप भी अच्छी खिचड़ी बना लेते हैं।लेकिन मेरे लिए ये सब इतना आसान नहीं होगा।मेरे पति की मृत्यु हुए अभी आठ महीने ही हुए हैं। अभी तो उनकी यादें ही नहीं गईं, हम दोस्त बनकर रहते हैं और बाकी की समय पर छोड़ देते हैं।
मैं सोच रहा था 'खिचड़ी'।