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कहानी में हीरो नहीं है

कहानी में हीरो नहीं है

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कल रात बिस्तर पर लेटे हुए ख्याल आया कि हमारे आस-पास के इंसानों पर तो हम सब कहानियां लिखते हैं और पढ़ते हैं। क्यूँ न अपने इर्द गिर्द रहने वाले जानवरों पर एक कहानी लिखी जाये। जब कहानी लिखने की बात आयी तो सबसे पहला सवाल यह उठा कि हमारे हीरो का नाम क्या हो ? तो जनाब इसके साथ ही एक और मसला आन खड़ा हुआ कि ये हमारा हीरो मर्द हो या औरत?

दरअसल हमारा समाज दो वर्गों में बटा हुआ है। एक तो गाली देने वाले लोग और दुसर गाली खाने वाले लोग। होता यूँ है कि अक्सर गाली देने वाले मर्द कहलाते हैं और गाली खाने वाले औरत। अब आप सवाल करेंगे कि ऐसा भेद-भाव क्यूँ? तो जनाब आपकी मुश्किल हल करने के लिए मैं आपसे ही एक सवाल पूछती हूँ कि गाली तो औरत के लिए ही बनी है फिर चाहे वो मर्द को ही क्युं न दी जाए। मर्द को दी जाने वाली गाली से भी सिर्फ और सिर्फ औरत की ही बेईज्ज़ती होती है। मर्द तो साफ दामन बचा कर निकल जाता है। मर्द के लिये देखा जाये तो कोई गाली बनी ही नहीं है। औरत अगर खाए तो गाली उसको और अगर मर्द को दी जाये तो भी गाली औरत को ही लगती है

तो सवाल ये उठता है कि औरत नाम की ये जीव इस समाज में रहती क्यूँ है? जहाँ हर बात पर उसे गाली पड़ती है। और रहना तो चलो मान भी लिया जाए आखिर वो मर्द बच्चे क्युं पैदा करती है?

अच्छा चलो ये भी मान लिया जाए कि बच्चा मर्द या औरत पैदा करना औरत के हाथ में नहीं है। तो फिर वो मर्द के लिए बच्चा क्यूँ पैदा करती है। खुद अपने लिए क्यूँ नहीं करती?

मैंने ये सवाल कई औरतों से पूछा। किसी के पास कोई जवाब नहीं था, वे बगलें झाँकने लगीं। तो मैंने एक नतीजा खुद ही निकला लिया कि वे खुद नहीं जानतीं कि वे क्यूँ और क्या करती हैं

तो अगला सवाल ये उठता है कि क्या वे ऐसी ही बेसमझ और नादां पैदा होती है या फिर बाद में बना दी जाती हैं।तो इस पर एक और सवाल उठा कि अगर बना दी जाती हैं तो उन्हें ऐसा कौन बनाता है? औरत या फिर मर्द?

क्यूंकि हमारे देश में बच्चे को बड़ा करने में मर्द का तो कोई योगदान होता नहीं है। तो फिर औरत ही आखिर औरत को ऐसा क्यूँ बना देती है? नासमझ तो मर्द और औरत दोनों ही पैदा होते हैं। या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि कुदरत ने कोई साज़िश औरतों के खिलाफ रच रखी है। कि मर्दों को तेज-तर्रार पैदा किया जाये लेकिन औरतों को बेवकूफ।

इसी तरह के सवाल दर सवाल उठ खड़े होते रहे और मैं रात भर सोचती रही कि आखिर इस भूल-भुलैया का कोई सिरा अगर है तो कहाँ है। क्यूंकि इंसानों की दुनिया में तो ये हो नहीं सकता। यहाँ तो हर तरफ नासमझी बिखरी पड़ी है, हर तरफ बेअक़ली। तो जनाब यही जवाब था मेरे सवालों का कि मेरे सवालों का जवाब मुझे शायद जानवरों की दुनिया से मिल जाये। तो मैंने सोच लिया कि एक कहानी ज़रा जानवरों की भी देख ली जाए।

तो मैंने खुद को उठाया, जूते पहने, अपने कुत्ते को लगाम पहनाई , एक डंडा उठाया और घर से निकलने की तैयारी की। सबसे पहला सवाल तो मैंने अपने कुत्ते से ही पूछा था " यार तुम जो हर वक़्त मेरी बात मान लेते हो, मुझे इतना प्यार करते हो, इसकी वजह क्या है?"

वो जोर-जोर से पूँछ हिलाने लगा। प्यार से उसने मेरे हाथ चाटे जो उसे लगाम पहना रहे थे। फिर मेरा मुंह भी चाट लिया। मैंने डांट लगाई तो रुक गया और जोर-जोर से पूंछ हिलाते हुए बोला," तुम मुझे मेरा मन-पसंद खाना खिलाती हो, मुझे साफ़ सुथरा रखती हो, मुझे साफ़ बिस्तर में सुलाती हो, मुझे प्यार से सहलाती हो, मेरी देख-भाल करती होमुझे तुम कोई वजह दो कि मैं तुमसे प्यार ना करूँ। मैंने प्यार से उसे एक थपकी दी और हम चल पड़े। घर से बाहर निकलते ही मुझे कुर्सी पर बैठा सियार मिल गया। वो रोटी खा रहा था। टेबल पर एक प्लास्टिक के डब्बे में आलू गोभी की तरकारी रखी थी। जिसमें लगा कर वो ठंडी मोटी लेकिन खुश्बुदार रोटी खा रहा था। मैंने उसे डिस्टर्ब करना उचित नहीं समझामैं और कुत्ता आगे चल पड़े।

कुछ क़दम ही चले थे कि एक भारी सी चीज़ तेज़ी से आ कर मेरे सर से टकराई और मैंने संतुलन खो दिया। मैं गिर पड़ी, कुत्ते ने फ़ौरन मोरचा संभाल लिया। उसने मेरे चारों तरफ एक घेरा अपने पंजों से खींच दिया। अगर कोई उस घेरे में क़दम रखता तो जल कर भस्म हो जाता। फिर उसने वो चीज़ तलाश की जिसने मुझे चोट पहुंचाई थी। वो थी एक लाल रंग की गेंद, जिस पर सुनहरे अक्षरों में कुछ समझ ना आने वाली इबारत में लिखा था। वो उसे अपने दांतों से दबा कर मेरे पास लाया। अब तक मेरे चारों तरफ मजमा लग चूका था। मैंने तब तक अपना होश सम्भाल लिया था। मेरे माथे पर एक मोटा सा गूमड़ निकल आया था जिसमें तेज़ दर्द रह-रह कर उठ रहा था।

लोग तरह तरह की बातें कर रहे थे, कोई पूछ रहा कि किस चीज़ से चोट लगी? मैंने लाल सुनहरी गेंद दिखाई कि इससे चोट लगी है तो सब लोग एक-एक कर के उस गेंद को हाथ में लेकर देखने लगे। तरह-तरह के ख्याल उस गेंद के बारे में प्रकट किये जाने लगे। किसी ने कहा कि ये कोई क्रिकेट की गेंद है जिससे बच्चे खेल रहे थे और मुझे घायल देख लिए जाने के बाद वे बच्चे डर के मारे भाग गए हैं।किसी ने कहा कि नहीं ये कोई बिना फटा बम है जिसे किसी उग्रवादी ने पकड़े जाने के डर से फेंका होगा और वो मेरे ऊपर गिर गया। मुझे खुदा का शुक्र मनाना चाहिए कि वो फटा नहीं और मेरी जान बाच गयी। किसी ने तो यहाँ तक कहा कि ये पुराने ज़माने का कोई श्वेत -पत्र है जो ज़मीन में दबा हुआ था किसी कुत्ते ने निकल दिया होगा और किसी तरह उड़ कर मेरे सर से जा लगा। किसी का ख्याल था कि ये धरती से दूर किसी ग्रह की कोई वास्तु है जो किसी दूसरे ग्रह के यान से छिटक कर मुझसे आन टकराई है।

यानि जितने मुंह उतनी बातें। मैंने जब आवाजों की तरफ नज़र उठाई तो मुझे कई तरह के चेहरे नज़र आये। इनमें गीदड़, भेदिये, सांप, बिच्छु, चमगादड़, चील, कौवे, यहाँ तक कि तोते भी नज़र आये, लेकिन कहीं कोई शेर, चीता, भालू, पेंगुइन या फिर हाथी नहीं था। मेरा दिल उदास हो गया, मेरे कुत्ते ने मेरी बात समझ ली। उसने अपनी लगाम मेरे हाथ में थमाई और मुझे ले कर वहां से निकल गया।एक बार फिर मैं आगे-आगे और वो मेरे पीछे-पीछे था।लेकिन असल में देखा जाये तो मैं ही उसके पीछे-पीछे थी।इसकी वजह ये कि जब जहाँ जाना होता वो लगाम को एक हल्की सी जुम्बिश देता और मैं समझ जातीऔर आगे आगे चल पड़ती। और वो मेरे पीछे पीछे आता। देखने वालों को लगता जैसे मैं उसे टहला रही थी लेकिन असलियत क्या थी वो सिर्फ मैं और मेरा कुत्ता ही जानते थे। या फिर हम दोंनों का खुदा, या शायद मेरा खुदा और उसका खुदा। देखा जाये तो ये दोनों अलग अलग होने चाहियें। उसका खुदा और मेरा खुदा एक नहीं हो सकते।किसी हालत में भी नहीं, वो कुत्ता है मैं एक औरत हूँ, हमारे भगवान् कतई एक नहीं हो सकते।

एक बार पहले भी मुझे इस अलहदगी का ख्याल आया था और मैंने उसे कहा था कि वो मेरे खुदा को अपना खुदा बना ले ताकि मुझे आसानी हो जाये। तो उसने फ़ौरन कहा था ,"किस आसानी की बात करती हो? क्या परेशानी है तुम्हें? मेरे खुदा के अलग होने से? क्या मैं तुम्हें काटता हूँ या मेरा खुदा तुम्हें पसंद नहीं?" मेरे पास उसकी इस बात का कोई जवाब नहीं था और उस दिन के बाद मैंने कभी इस बारे में उससे कोई शिकायत नहीं की।

खैर हम आज के उस सीन पर लौट आयें जहाँ मैं अपने चारों तरफ खड़े चेहरों को पहचानने की कोशिश कर रही थी। वे सब अपनी-अपनी बात कहने के बाद मेरे जवाब का इंतजार कर रहे थे। लेकिन मैं अपने दर्द में डूबी सिर्फ उनके चेहरे देख कर और परेशान हुई जा रही थी। तभी कुत्ते ने मुझे वहां से निकाल लिया था। हम आगे चल पड़े, सड़क आगे मुड़ रही थी, खासा तेज़ मोड़ था। एकदम नब्बे डिग्री का, मैंने अपनी रफ़्तार कम तो की फिर भी तेज़ी से आगे आते हुए एक बतखों के झुण्ड से टकरा ही गयी। सबसे आगे जो बतख चल रही थी उसने टकराने के बाद अपना माथा सहलाया और घूर कर मुझे देखा। मैं घबरा गयी, मैंने हडबडाते हुए खुद को संभाला," माफ़ कर दो, मैंने तुम्हें आते हुए देखा नहीं था।"

उसने रुक कर मुझे अच्छी तरह कुछ देर और घूरा। फिर बोली," ज़ाहिर है, देखा होता तो यूँ टकराती नहीं। अच्छा है माफी तो मांग रही हो। वैसे अक्सर लोग लड़ने को तैयार हो जाते हैं, तुम माफी क्यूँ मांग रही हो?" "इसलिए कि मैंने तुमसे टकराने की गलती की है। "

"इमानदार लगती होया सिर्फ बनती हो?" मुझे कुछ बुरा लगा, मैंने गलती की, अब उसकी माफी मांग रही हूँ, फिर भी..... खैरतब तक कुत्ते ने मुझे इशारा किया यानी जुम्बिश से लगाम खींची। हम दोनों आगे निकल पड़े। बतख ने एक बार फिर मुझे घूर कर देखा, उसका ख्याल था कि शायद मैं रुकुंगी, सिलसिला आगे चलेगा लेकिन उसे मायूसी हुई मुझे भी। मुझे इस बात की मायूसी हुई  कि बतख हो कर भी उसने औरतों जैसी हरकत की थी। मैं जानती हूँ औरतों को अच्छी तरहमैं खुद भी तो औरत हूँ। अब तक हम आधा रास्ता तय कर चुके थे। लेकिन अभी तक किसी समझदार प्राणी से मुलाकात नहीं हुई थी।मैंने कुत्ते से कहा,"तुम आज किस रास्ते पे ले आये हो? यहाँ तो कोई मिल ही नहीं रहा, किससे बात करें? खामख्वाह चोट भी खा ली। "

अब तक चोट का दर्द ख़तम हो गया था और मैं अच्छे मूड में थी, कुत्ता तो हमशा ही खुश रहता है। बोला," तुम पर ये हर वक़्त बातें करने का जूनून क्यूँ तारी रहता है? खुद से बातें किया करो, तुम अच्छी बातें करती हो। मैंने अपना सर पीट लिया। अब भला खुद से कोई कितनी बातें कर सकता है, खुद ही खुद से सवाल पूछो और खुद ही जवाब देते रहो। अगर सवाल पसंद न आये तो खुद से ही लड़ भी लो।ज्यादा गुस्सा आ जाए तो खुद को एक अदद चांटा भी लागा दो। ये भला क्या बात हुई ? मुझे सचमुच गुस्सा आ गया। "कैसी फिजूल बात कह रहे हो तुम? जानते भी हो क्या कह रहे हो?" "देखा? की ना तुमने औरतों वाली बात।गुस्सा आ गया तुम्हें? हा हा हा हा हा " ,"ओये, मैं औरत हूँ तो औरतों जैसी बात ही तो करूंगी। इसमें इतना हंसने वाली क्या बात है।" मेरा गुस्सा अभी वहीं था। उसने घबरा के मुझे देखा,"सॉरी, मैं तो मजाक कर रहा था। प्लीज, गुस्सा मत करो।"

उसकी भोली सी प्यारी सी सूरत देख कर मुझे उस पर बहुत सारा प्यार उमड़ आया। मैंने सड़क के किनारे बैठ कर उसे गोद में बिठा लिया। सहलाते हुए मैंने सोचा कि इसमें इस बिचारे की क्या गलती है। मुझे बेवजह उस पर गुस्सा नहीं करना चाहिए था। लेकिन तब तक वो मूड में आ चूका था। उसने फ़ौरन मुझे चाटना शुरू कर दिया। मैंने प्यार से उसे झिड़का और उठ कर हम आगे चल दिए। सड़क आगे मुड़ रही थी, हम कॉलोनी से बाहर निकल आये थे, इस तरफ मैं अक्सर नहीं जाती हूँ। आज निकल आयी तो लगा एक चक्कर जंगल का भी लगा ही लिया जाये। कॉलोनी में आज लोग घरों में बैठे क्रिकेट का मैच देख रहे थे इसलिए किसी से मुलाक़ात नहीं हो पाई।इधर जंगल में न तो माल्स हैं, न ही घर घर में कारें और टेलीविज़न। सो अक्सर लोग सड़कों पर नज़र आते हैं।

मोड़ मुड़ते ही मेरा सामना हाथी से हो गया। उसके मुंह में एक बड़ा सा गन्ना था जिसको वो मज़े ले कर खा रहा था।मुझे देख कर उसने गन्ना चूसना छोड़ दिया और तेज़ी से मेरी तरफ आया। "अरे आओ?आज इधर कैसे? "उसकी खुशी छलकी पड़ रही थी। "बस यूँहीजी उदास था खुश होने चली आयी हूँ।" मैंने इमानदारी से उसके सीधे से सवाल का खरा सा जवाब दे दिया। वो जोर से हंस पड़ा। "कौन है जो आपको उदास करता है? नाम ले लो, उसकी खैर नहीं।"अच्छा! तुम क्या करोगे भला? तुम्हें तो गुस्सा तक नहीं आता। तुम्हारी हंसी से कोई नहीं डरने वाला।मैं हाथी की खुशमिजाजी की हमेशा से कायल रही हूँ।

उसने एक जोर का ठहाका लगाया। "अरे आप नाम तो लो, फिर देखना मैं क्या करता हूँ ?" "तुम करोगे क्या? तुम सचमुच किसी को डांट भी नहीं सकते, मार पीट की तो बात ही दूर है।" मैं अपने इस दोस्त को बहुत अच्छे से जानती हूँ। "अरे दीदी, मुझे कुछ करने की ज़रुरत ही कहाँ है? मैं तो बस उसके ऊपर बैठ जाऊंगा। उसका तो इतने से ही काम हो जाएगा।इसके बाद तो हम तीनों जो हँसे तो हमारे पेट में दर्द हो गया। कुत्ता ज़मीन पर लोट-पोट हो गया। मैं अपना पेट पकड़ कर सड़क के किनारे पत्थर पर बैठ गयी। और हाथी हो-हो करता हुआ सड़क पर गोल गोल चक्कर काटने लगा।हम तीनों ही उस दृश्य की कल्पना अपने दिमाग में कर रहे थे। वाकई हाथी हमारे दुश्मनों के ऊपर बैठा नज़र आ रहा था और हम उसकी दयनीय हालत देख देख कर आनन्दित हो रहे थे। हमारे इस हंसी मजाक से इतना शोर हो गया कि जंगले के लगभग सारे लोग अपने अपने घरों से निकल कर बाहर आ गए।

लोमड़ी तो अपने बाल धो रही थी, उसके बालों से अभी तक पानी टपक रहा था। उन बूंदों को झटकती बोली," आय-हाय, क्यूँ हाथी भई दीदी को क्या सुना दिया।?" हम अभी तक हंसी से छूटे नही थे। किसी तरह कुत्ते ने अटकते अटकते हाथी की कारस्तानी की कहानी बयान की तो पूरा जंगले ठहाकों से भर गया। चूहा कांपते हुए बोला," मैं तो डर गया भाई साहिब।शेर ने दहाड़ते हुए कहा," ओए, जो डर गया समझो वो मर गया।इस पर एक और जो ठहाका इतना ज़बरदस्त लगा तो अचानक ठहाकों के शोर से जंगल में भूकंप आ गया। हाथी ने मुझे आगाह किया।"अब आप अपने घर जाओ, लगता है यहाँ कुछ हुआ है। यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं। फ़ौरन निकल जाओ।ठहाकों और भूकंप की गढ़गढ़ाहट के बीच हम दोनों वहां से निकल लिए। 

मोड़ मुड कर अपनी कोलोनी में कदम रखा ही था कि पैरों के तले से ज़मीन खिसक गयी। याने कि भूकंप दूर-दूर तक फैला था। कॉलोनी में अफरा-तफरी मची थी। लोग अपने अपने घरों से तेज़ी से बाहर निकल रहे थे। औरतों के हाथों में उनके पर्स थे। मर्दों ने छोटे बच्चों को उठा रखा था, कुछ मर्दों ने अपने बीमार बूढ़े माँ-बाप को। जो औरतें अकेली रहती हैं उन्होंने छोटे छोटे सूटकेस उठा रखे थे। जो मर्द अकेले रहते हैं वे खाली हाथ लटकाते हुए मज़े से सड़कों पर चले जा रहे थे, खुली जगहों की तलाश में। सभी खुली जगहों की तरफ दौड़ रहे थे। लेकिन जंगल के मोड़ तक जा कर रुक जाते थे, हालाँकि जंगल में सिर्फ और सिर्फ खुली जगह ही है। कोई ईमारत नहीं जिसके धराशायी हो कर किसी पर गिरने का अंदेशा हो लेकिन जंगले की इमानदारी से इंसानों को डर लगता है। वे उसका सामना नहीं कर सकते इसलिए जंगल के अन्दर जाने की हिमाकत कभी नहीं करते।

मैं तो अपने पर्स ले कर कुत्ते के साथ घूमने नहीं गयी थी।सो मैंने सीधे अपने घर का रुख किया। कुत्ते ने कहा भी," अब अन्दर जाना खतरे से खाली नहीं है, कहीं ईमारत हमारे ऊपर गिर गयी तो?" उसके स्वर में घबराहट थी। "जाना ही पड़ेगा अन्दर, देखो अगर हम बाहर इसी तरह रहे बिना पर्स के तो भी हम  मरे समान ही होंगें। असल में हमारी हालत मरे हुओं से भी बद्तर हो जायेगी। न पैसा होगा, न पहचान पत्र ,न पासपोर्ट। इनसब के बिना हम मरे हुए ही होंगें। सो एक चांस ले लेते हैं, अगर जिंदा बच गए तो जिंदा रहेंगे, वर्ना तो ठीक है मौत ही सही। "

मैंने सोच समझ कर डांवाडोल होते हुए घर के भीतर डांवाडोल मन के साथ क़दम रखा। गिरते पड़ते बेडरूम तक पहुँची। पर्स उठाया और भागते-दौड़ते डरते-कांपते बाहर निकल आयी। कुत्ता पूरे वक़्त मेरे क़दमों से लगा रहा। इमारतों से दूर खुले में जब तक हम दोनों पहुंचे तो धरती हिलनी बंद हो चुकी थी। लोग भी दहशत के मारे कुछ शांत लग रहे थे। मैंने ज़मीन पर बैठ कर अपना पर्स खोला और हर बार की तरह देख-परख कर दिल को तसल्ली दी। पर्स में मेरे सारे पहचान पत्र, पासपोर्ट, देसी-विदेशी पैसे , बैंक के कागज़ात सभी कुछ था।

अब मेरा ध्यान कुत्ते की तरफ गया, वो मुझसे चिपक कर एकटक मेरे चेहरे को देखे जा रहा था। उसकी आँखों में मेरे लिए मोहब्बत और इन्साफ था। मैंने उसे उठा कर गोद में लिया और सीने से लगा लिया। बहुत देर तक हम ऐसी ही बैठे रहे, धरती वापिस स्थिर हो चुकी थी। लोग धीरे धीरे अपने घरों को लौटने लगे थे। ख़ास तौर पर वो जिनके साथ बच्चे और बूढ़े थे। जवान लोग अब भी मैदानों में बैठे बातचीत कर रहे थे और अपने अपने मोबाइल फ़ोन पर या तो बात कर रहे थे या फिर सोशल मीडिया पर विचारों का आदान प्रदान कर रहे थे।

कुत्ते ने कहा" मुझे भूख लगी है।तो मुझे ख्याल आया कि हमें घर से निकले लगभग सात घंटे हो चुके हैं। मैंने पर्स उठाया, खुद को उठाया, कुत्ते की लगाम पकड़ी और हम घर चल पड़े।

 


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