प्रेम और देह
प्रेम और देह
"तुम अपने जिस्म को लेकर इतनी कॉन्शस क्यूँ हो?”
"तुम जिस्म को लेकर इतने उतावले क्यूँ हो?”
"यार! मैं तुमसे प्यार करता हूँ। तुम्हे प्यार करना चाहता हूँ। ”
"तो इसमें जिस्म कहाँ से आता है? प्यार करते हो तो करते रहो न। किसने रोका है?”
"कमाल है? खुद ही रोकती हो? और कहती हो किसने रोका है?”
"कहाँ रोका?”
"मैं तुम्हें और तुमसे प्यार करना चाहता हूँ। तुम्हें अपने प्यार की गर्माहट से वाकिफ करवाना चाहता हूँ। ”
"मैं जानती हूँ तुम मुझसे बहुत प्यार करते हो। फिर ये गर्माहट दिखाने की बात क्यूँ?”
वे दोनों एक कमरे में आमने-सामने के सोफों पर बैठे थे। वो चाहता था कि ये उसकी बगल में आकर बैठे और वो ऐसा करने से डरती थी। उसे लगता था कि एक बार प्यार में जिस्म की आजमाईश शुरू हुयी तो एक के बाद एक मंजिल तय होती जायगी और वे वहां तक पहुँच जायेंगे जहाँ तक वो फिलहाल नही जाना चाहती थी। शादी से पहले तो हरगिज़ ही नहीं।
हालाँकि दोनों के बीच औपचारिक मंगनी दोनों के परिवारों की रजामंदी और दोस्तों-रिश्तेदारों की मौजूदगी में हो चुकी थी। इस मंगनी में दोनों ने एक दूसरे को सोने की अंगूठी पहनाई थी। लड़की के परिवार की तरफ से उसे थ्री पीस सूट का कपड़ा, पचास हज़ार रुपये नकद का शगुन, एक स्कूटर की चाबी, जूते, यहाँ तक कि बनियान, अंडर-वियर और मोज़े भी भेंट किये गए थे। जबकि उसके परिवार की तरफ से लड़की को एक बनारसी साड़ी मय ब्लाउज, पेटीकोट, परांदा, लिपस्टिक, बिंदी के पांच पैकेट, फाउंडेशन, कॉम्पैक्ट, काजल, ब्लशर, मेकअप ब्रश वगैरह के साथ दो जोड़ी चप्पलें और सोने के कानों के झुमके भी भेंट में मिले थे।
लड़का किसी सरकारी दफ्तर में लिपिक के पद पर था। लड़की ने इतिहास में एमए, कर लिया था और फिलहाल एक प्राइवेट फर्म में सेक्रेटरी की नौकरी कर रही थी। उसे इस नौकरी में कोई मज़ा नहीं आ रहा था और उसका पक्का इरादा था कि ये सिर्फ वक़्त काटने के लिए है। साथ ही ससुराल वालों को ये भरोसा दिलाने के लिए है कि लड़की कामकाजी है। कि शादी के बाद एक बंधी-बंधाई तनख्वाह घर में आती रहेगी। उसकी माँ और बाबा ने भी उसे समझाया था कि नौकरी छोड़ देने की बात वह अपने मन में ही रखे। ससुराल वालों को इसके बारे में कत्तई न बताये।
हालाँकि ये दोनों ही परिवार बेहद परम्परावादी थे। मगर नए रंग-ढंग के अनुसार लड़के लड़की को शादी तय होने से पहले आपस में मिलवा दिया गया था। वैसे रिश्ते की हां या ना में उन दोनों का कोई ख़ास रोल नहीं था। दोनों के परिवार वालों को ये रिश्ता जम गया था तो मंगनी कर दी गयी थी। शादी तीन महीने बाद होनी तय हो गयी थी। पंडित जी से पूछ कर शादी की तारीख़ फिक्स कर दी गयी थी।
शादी की तैयारियां दोनों घरों में शुरू हो गयी थी। अक्सर लड़की लड़के की माँ और भाभी के साथ बड़े बाज़ार में साड़ियाँ पसंद करती पाई जाती थी। ऐसे ही एक दिन शनिवार को जब दोनों की छुट्टी थी लड़के ने अपनी भाभी को पटा कर लड़की से अकेले में मिलने का ये कार्यक्रम तय कर लिया था।
इस वक़्त वे एक दूसरे के आमने-सामने बैठे थे। ये एक स्टूडियो अपार्टमेंट था जो लड़के के एक दोस्त का था। जिसे लड़के ने अपनी सारी कहानी बता कर उससे अपार्टमेंट की चाबी ले ली थी और दोस्त को ताकीद कर दी थी कि जब तक वो उसे फ़ोन न करे वह अपने घर न लौटे।
दोस्त ने शाम को दारू और चिकन की पार्टी की शर्त पर ये सौदा मंज़ूर कर लिया था और इस वक़्त शहर के एक मशहूर मॉल में घूम कर वक़्त काट रहा था। जहाँ उसका खाना खा कर फिल्म देखने का इरादा था । फिल्म की टिकट उसके फ़ोन में मौजूद थी।
तभी लड़की का फ़ोन बज उठा। उसकी रिंग टोन खासी तीखी सी थी। जिसके चलते लड़का बुरी तरह चौंक उठा। लड़की ने फ़ोन के स्क्रीन पर देखा। उसकी माँ का फ़ोन था। वो माँ से ऑफिस में ओवरटाइम की बात कह कर आयी थी। माँ को अगर पता लग जाता कि वो लड़के से अकेले में मिलने आयी है तो उसका बाज़ार जाना तो क्या ऑफिस आना-जाना भी पिता या बड़े भाई की निगरानी में हो जाने वाला था।
अपनी ऐसी बेईज्ज़ती के लिए वह हरगिज़ तैयार नहीं थी। सो झूठ का सिरा पकड़ते हुए उसने आवाज़ में नाराज़गी लाते हुए कहा, “मम्मी, आप को कहा था न ऑफिस में हूँ। बिना बात फ़ोन मत करो। बॉस सब देखते हैं। ”
लड़की के इस प्राइवेट ऑफिस में बॉस बिलकुल बनिए की तरह पेश आता था। ऑफिस में रहने का मतलब है पूरी तरह से ऑफिस का काम करना। बेकार चुहलबाजी बिलकुल नहीं। घर से फोन आया है तो भी मुख़्तसर बात करो और फ़ोन बंद करो। दोस्तों से गपशप का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
"न बेटा। मैं तो ये पूछ रही थी कि कल सन्डे को तेरे ससुराल वाले आ रहे हैं। तेरी सास और ननद। तो कल का ओवरटाइम की हामी मत भर लेना। अच्छा बेटा। फ़ोन रखती हूँ। "
"जी मम्मी। " लड़की ने कहा और फ़ोन काट दिया।
उसे डर लगने लगा था कि कहीं मम्मी कुछ और न पूछ ले और उसकी बातों से झूठ का पता न लग जाए। झूठ बोलने में वह सिद्धहस्त नहीं थी।
इस बीच लड़का उसकी बगल में आ कर बैठ गया था। मगर दो हाथ की दूरी बनाते हुए। वो कुछ संकोच में भर गयी। असहज होते हुए उसने एक बार सोचा कि उठ कर सामने वाले उस सोफे पर जा कर बैठ जाए जहाँ अब तक लड़का बैठा हुआ था। मगर फिर कुछ सोच कर वहीं बैठी रही। मन में भावी पति के साथ बैठे होने के कारण अजीब तरह की तरंगें उठ तो रही थीं मगर साथ ही दुनिया वालों के, ख़ास कर माता-पिता के डर से और एक सहज स्वाभाविक संकोच के मारे मरी जा रही थी। आँखें तमाम कोशिश के बावजूद उठ ही नहीं रही थी। खुद पर क्षोभ भी हुया। आधुनिक ज़माने की पढ़ी-लिखी लड़की हो कर भी संकोच और डर से सिमटी जा रही थी। जिसके मारे वह खुद से ही नाराज़ भी थी मगर इस संकोच को किसी भी तरह से तोड़ने की राह उसे नहीं सूझ रही थी।
अब तक लड़के को भी उसके असहज होने ने असहज कर दिया था। वह कुछ देर उसके पास बैठा उसे नज़र भर कर देखता रहा। अहिस्ता-अहिस्ता उसे भी लड़की की तरफ देखने में दुश्वारी होने लगी। उसे लगने लगा शायद इस तरह लड़की को यहाँ अकेले में बुला कर और उससे इस तरह बेतकल्लुफ होने की उसकी कोशिश एक बेजा हरकत थी।
अब उसे इस सारी कवायद पर अफ़सोस हो रहा था। उसे लग रहा था कि बेकार ही यह सब झमेला किया। शादी तीन महीनों बाद होने ही वाली है। तब तक संतोष करना चाहिए था। बातचीत, मिलना-जुलना तो उसके बाद निर्बाध होना ही है। लड़की उसे बेहद पसंद थी और अब उसके हाव-भाव देख-परख कर, उसकी सहज संकोची प्रवृति देख कर उसे खुशी ही हो रही थी। मन में सोचा कि अच्छा ही है। आजकल की मॉडर्न लड़कियों की तरह बेतकल्लुफ नहीं है। उसके घर-परिवार में, जहाँ आधुनिक तौर-तरीके ज़्यादा पसंद नहीं किये जाते, ये अच्छी तरह निभा लेगी।
मन ही मन खुश होते हुए उसने अपना एक हाथ उठाया और आहिस्ता से लड़की के हाथ पर रख दिया, जो लकड़ी की गोद में था। संकोच से लड़की और सिमट गयी। लगा जैसे डर से काँप भी गयी। लड़के का मन किया उसे बाहों में ले कर दिलासा दिलाये कि उसके इरादे नेक हैं, कि वह उससे प्रेम करता है और उसकी मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं करेगा, कि वह शादी तक हर बात के लिए इंतज़ार करेगा और यह भी कि वह जीवन भर उसका साथ निभाएगा।
दरअसल लड़के का मन कर रहा था कि वह जीवन भर के वादे आज ही उसके साथ कर ले। उसे इस एक पल में लड़की से बेइंतेहा प्रेम का एहसास हो गया था। वह समझ गया था कि उनका भावी वैवाहिक जीवन बेहद सुख से भरा होने वाला है।
मगर लड़की के संकोच से भरे पूरे व्यक्तित्व ने उसे यह सब करने से रोक दिया था। वह एक झिझक के साथ उठ खड़ा हुया और फिर से सामने वाले सोफे पर बैठ गया। लड़की उसकी इस हरकत से डर गयी।
उसने आँख उठा कर उसकी तरफ देखा तो वह आँखों में प्रेम लिए उसकी तरफ देख रहा था और मुस्कुरा रहा था। वह उसकी दृष्टि में उलझ कर रह गयी। आँखें नहीं झपका पायी। एकटक उसकी तरफ देखते हुए उसे खुद अपने भीतर प्रेम का एक बवंडर उठता हुआ महसूस होने लगा।
कुछ लम्बे पल इसी तरह बीत गए। आखिरकार वह खुद पर नियंत्रण नहीं रख पायी। उठ कर खड़ी हो गयी। नहीं जानती थी कि उसका अगला कदम क्या होगा। बिना सोचे-समझे वह खड़ी हुयी तो लड़का भी उठ कर खडा हो गया। कुछ कदम उसकी तरफ बढ़ा तो दो कदम वह भी आगे बढ़ आयी। अगले ही पल दोनों एक दूसरे के सामने खड़े थे।
इतना करीब वे एक दूसरे के खड़े थे कि उनकी साँसे टकराने लेगी। लड़की ने महसूस किया कि उसकी साँसे रुकने लगी थीं। वह सिमट गयी और उसके पाँव कांपने लगे। डर एक बार फिर संकोच के साथ उस पर तारी हो गया। उसने खुद को संभालने की कोशिश की तो वह लडखडा गई। लड़के ने उसकी लडखडाहट देखी तो हाथ बढ़ा कर उसे सहारा दिया।
अगले ही पल दोनों एक दूसरे की बाँहों में थे। लड़की ने अपना सर उसकी छाती पर टिका दिया था। वह आँखें मूंदे थी। लड़का सर झुका कर उसके चेहरे की टोह ले रहा था। वह खुद भी संकोच में ही था। समझ नहीं पा रहा था कि लड़की की इस हरकत से वो क्या समझे। स्वीकरोक्ति या आत्म-समर्पण? दोनों ही सूरतों में अगला कदम उसे ही उठाना था। और वह अगला कदम क्या हो इस पर खुद भी असमंजस में था।
कुछ देर की खामोशी में दोनों एक-दूसरे के प्रति समर्पण को महसूस करते पीते रहे। आखिरकार लड़के ने चुप्पी तोड़ी ।
“मैं जानता हूँ तुम्हें किस बात का डर है। मगर तुम मेरी पत्नी होने वाली हो। मैं ऐसा कुछ भी नहीं करने वाला या तुमसे करवाने वाला जिससे तुम्हारी और मेरी प्रतिष्ठा को आंच आये। भरोसा रखो मुझ पर। ”
"मुझे तुम पर भरोसा है। मगर डर लगता है। ”
"किस बात का डर ?”
"रिश्ते को आगे बढ़ाने का डर। शादी से पहले सब कुछ कर लेना का डर। ”
"मगर ये बताओ। हम दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं। शादी भी होने ही वाली है। तो मिलने से, एक दूसरे के साथ अकेले में समय बिताने से संकोच कैसा?”
"देखो। संकोच तो है ही। और फिर देह से प्रेम करना क्या ज़रूरी है? तुम जानते हो मुझे तुमसे प्रेम है। शादी होने वाली है। देह से प्रेम जताना ज़रूरी है क्या? मन से प्रेम करना काफी नहीं हैं क्या?”
"देखो। मैं तुम पर किसी भी तरह का दबाव नहीं डालना चाहता मगर मुझे सिर्फ एक बात का जवाब दो। जो भी कहोगी मुझे मान्य होगा। बस अपने दिल की बात कहना। क्या देह तुमसे अलग है? हम अपनी देह में ही तो रहते हैं। इस देह से हम सारे जहां के काम करते हैं। इस देह से ही इस संसार में जीते हैं। यहाँ तक कि देह ही मरती भी है। जब सब कुछ इसी देह के चलते होता है तो प्रेम जब हम दोनों में है तो प्रेम का इज़हार हम देह से ही तो करेंगे? देह को अलग कर के क्यूँ रखें? और कैसे रखें? मन का प्रेम पूरा तो देह से ही करेंगें न? मन को, अंतस को, देह से ही तो पहचानेंगे। तुम ही बताओ, क्या मैं गलत कह रहा हूँ?”
लड़की ने आँख उठा कर एक भरपूर नज़र उस पर डाली और इसके साथ ही उसकी बाहों में और सिमट आयी। शायद उसकी बात का जवाब अपने ही भीतर ढूंढ रही थी।

