गार्डन ऑफ़ ईडन

गार्डन ऑफ़ ईडन

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वह खुद को हव्वा समझती है और उसको आदम। सो अक्सर अकेले में जब वे दोनों साथ होते हैं तो एक दूसरे को इसी नाम से बुलाते भी हैं। आज भी वे एक दूसरे के साथ अकेले में हैं यानी अकेले-अकेले नहीं हैं, बल्कि साथ में अकेले और इसी दुकेले अकेलेपन की वजह से एक दूसरे के बहुत पास यानी एक दूसरे से सटे हुए एक दूसरे में समाने की कोशिश में बदस्तूर मशगूल हैं।

आदम उसका चुंबन ले रहा था, दोनों के होंठ एक दूसरे में गुम थे, लेकिन अचानक हव्वा चौक पड़ी। हालाँकि आदम को उसके चौक पड़ने का एहसास नहीं हुआ। इस वक़्त वह जिस तरह की दैहिक और हार्मोनल स्थिति में था वहां अगर उसके आस-पास बम भी फट जाता तो शायद उसे तब तक एहसास न होता जब तक कि उस बम के टुकड़े उसके जिस्म तक नहीं पहुँचते।

हव्वा इस कदर चौंकी कि एक बारगी उसे लगा जैसे वह कोई पाप कर रही है। हुआ यूँ कि उसे इन्हीं अन्तरंग क्षणों में अपने पुराने प्रेमी रोमियो की याद आ गई। रोमियो की याद आनी थी कि उसका गला रुंध गया। रोमियो और उसका सम्बन्ध खासा लम्बा रहा था। अब इस वक़्त उसकी याद आनी थी कि उसकी नथुनों में रोमियो की चिर-परिचित लेकिन लगभग भूल चुकी गंध समा गई। उन दिनों वह जूलियट हुआ करती थी।

रोमियो की याद के साथ ही उसे यह एहसास भी हुआ कि वह इस वक़्त आदम के साथ है और इसी एहसास के साथ ही एक नया एहसास उसमें जागा कि जिन होठों को वह चूम रही है वे सिर्फ़ आदम के न हो कर इनमे कुछ अंश रोमियो का भी है।

यह एक बिलकुल नयी तरह का अनूठा अनुभव था, वह एक बारगी बुरी तरह चौक गयी, इसके साथ ही अगले ही पल ये ख्याल दिल में आया कि उसे रोमियो की इस याद को पूरी तरह अपने में समो लेना है, वह लालची हो उठी, उसने आदम को और भी शिद्दत के साथ खुद से सटा लिया।

शाम बेहद रोमांटिक हो गयी थी। दोनों भूल चुके थे कि उन्हें कुछ ही देर बाद एक पार्टी में जाना है जो हव्वा की बिज़नस पार्टी है, उससे पहले कुछ वक़्त बिताने के लिए वे आदम के फ्लैट पर आये थे जो दरअसल उसका काम का अड्डा था।

वैसे वह रहता अपने परिवार के साथ है जहाँ उसके माता-पिता के अलावा तीन बड़े भाई और उनके परिवार भी है। यानी एक सम्मिलित मारवाड़ी परिवार, जो साउथ दिल्ली के एक शानदार पुश्तैनी बंगले में फैला हुआ है।

एक घंटे के अन्दर उन्हें उस पार्टी में पहुँचना था जो आदम के इस फ्लैट से लगभग एक घंटे की ड्राइव पर थी। लगभग एक ही घंटे के बाद उन्हें पार्टी की याद आयी तो हड़बड़ा कर उठे, हव्वा बाथरूम में घुस गयी शावर लेने के लिये।

हव्वा का असली नाम वीरा है और वह एक प्रतिष्ठित उच्च मध्यवर्गीय परिवार के दो बच्चों में से दूसरे नंबर की संतान है, उसका बड़ा भाई शादीशुदा है, दो बच्चों का बाप। बेहद ज़िम्मेदार आदमी, चाहता है वीरा भी शादी कर के घर बसाये लेकिन वीरा अभी तक कहीं मन टिका नहीं पायी है, तैंतीस की हो जाने के बावजूद ।

माँ-पिता दोनों ही दुनिया से कूच कर चुके है। वीरा पर शादी के लिए या फिर किसी भी तरह के फैसले के लिए दबाव डालने वाला कोई नहीं है। वैसे भी जिस तरह की शख्सियत की मालिक वीरा है। उस पर दबाव डालना काफी मुश्किल काम है, भाई कोशिश कर के हार चुका है, यहाँ तक कि भाई बहन के बीच अब बात-चीत भी बेहद मुख़्तसर हो कर रह गयी है।

जिस पुश्तैनी तीन मंजिला मकान में यह परिवार रहता है। उसके एक हिस्से में वीरा अपना अलग ठिकाना बना चुकी है, माता-पिता वसीयत में दोनों भाई बहन को बराबर का हिस्सेदार बना गए है। भाई के परिवार के अन्य सदस्यों से वीरा की बहुत अच्छी घुटती है। ख़ास कर भाई की दोनों किशोर बेटियों के साथ।

वे अक्सर वीरा के हिस्से में ही पड़ी रहती हैं, भाई और भाभी को भी इस पर कोई ऐतराज़ नहीं होता, वजह ये कि वीरा एक ज़िम्मेदार अभिभावक की तरह उनकी पूरी निगरानी करती है, दोनों शरारती लड़कियों के हर क्रिया कलाप की जानकारी वीरा को रहती है, खुद अपने पुरुष मित्रों से वह घर के बाहर ही मिलती है, ताकि बच्चों के मन में उसकी जीवन शैली को लेकर कोई सवाल न उठे और ना ही कोई प्रभाव पड़े।

लेकिन कई बार वीरा को लगता है जैसे वह एक दोहरी ज़िंदगी जी रही है, एक तरफ उसकी घर वाली ज़िन्दगी है जहाँ वह अपनी किशोर भतीजियों के लिए आदर्श बनी रहती है, उसका खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना सब इस लिहाज़ से होता है कि वे उसे फॉलो करें. और वे करती भी हैं, उन के लिए वीरा बुआ का शब्द अंतिम है। वैसे कई बार वीरा बुआ उन्हें उन मुश्किलों से भी निकालती है जो अक्सर वे अपने और अपने मम्मी-डैडी के बीच अपनी किशोर अवस्था के चलते खड़ी कर लेती है।

दोनों लड़कियों का समवेत स्वर में मानना है कि बुआ न होती तो वे अब तक मर ही गयी होतीं, यह वाक्य एक बड़े से, झूठे लेकिन मीठे से मज़ाक की तरह घर में अक्सर बोला भी जाता है, हालाँकि भाई को कई बार इस बात पर बुरा सा मुंह बनाते देखा जा सकता है। लेकिन भाभी और लड़कियों की माँ सिमरन खुद इस मज़ाक में शामिल होती है।

पति निर्मल सिंह का मुखर विरोध करने का ऐसा विरला मौका सिमरन को भी तो कभी-कभार ही मिलता है। इन्हीं सब वजहों से वीरा घर के अन्दर एक बेहद संतुलित और ज़िम्मेदार ज़िन्दगी बिताती है. यहाँ तक कि उसके दोस्त भी इस बात का बेहद ख्याल रखते हैं और वीरा के घर के अन्दर उनका व्यवहार और बातचीत बहुत संतुलित होते हैं।

दूसरी तरफ जो वीरा की निजी ज़िन्दगी है, वह ज़िंदगी जो घर में उसके बेडरूम और घर की देहरी के बाहर है, वहां वीरा बिलकुल बेखबर, बेलाग और बेख़ौफ़ आज़ाद परिंदे की तरह खुले आसमान में कुलांचे भरती है। यह ज़िंदगी उसके घर से बाहर क़दम रखते ही, अपनी गाड़ी में बैठते ही शुरू हो जाती है। बेलाग ज़िन्दगी उसके फ़ोन, टैबलेट और लैपटॉप में भी मौजूद है। हर एक लम्हे की एक वर्चुअल हैसियत के साथ। हाँ हर मिनट का एक लॉग बुक है, जो गूगल की निगाहों से बच नहीं सकता। जिसका हर एक लम्हा गूगल पर दर्ज है।

वीरा का मानना है कि गूगल आज का ईश्वर है जो हर पल उस पर निगाह रखे हुए है। उसकी हर हरकत पर गूगल की नजर है। यहाँ तक कि कब आदम यानी अरुण से वह मिलती है।

कब वे हम-बिस्तर होते हैं। कब सिर्फ बैठ कर बातें करते हैं, कब और कहाँ खाना खाने बाहर जाते हैं। कुछ भी गूगल से छिपा नहीं है।कई बार वह मज़ाक में अरुण से कहती भी है,"अगर हमने कभी शादी की और हमारे बच्चे हुए तो एक का नाम रखेंगे गूगल और दूसरे का क्रोम. "

इस बात पर दोनों एक जोरदार ठहाका लगाते हैं।

लेकिन अगले ही पल अरुण कह भी उठता है,"तुम शादी करोगी भी?"

वीरा खामोश हो जाती है। उसे शादी से बहुत घबराहट होती है। शादी के नाम पर उसे शहनाइयाँ या सुहाग रात या फिर हनीमून की जगह पर अपनी माँ तेजी और भाभी सिमरन के चेहरे याद आते हैं।

शादी के नाम पर उसे रसोई, बच्चों के नखरे, उनकी दूध की बोतलें, ढेरों-ढेर धुलते हुए, सूखते हुए कपड़े, लगातार पकता खाना, बाहर जाने के नाम पर बड़े बड़े बैग और साथ में लटकी हुयी बच्चों की आया.... ये सब नज़रों के सामने घूम जाते हैं।

जबकी वीरा की ज़िन्दगी के मायने अपना इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का कारोबार है, जिसमें दुनिया भर के दाव-पेंच हैं। जिसमें दुनिया भर की सैर है। जिसमें दुनिया भर के लोगों से मिलना जुलना है, जिसमें दुनिया भर की तमाम नायाब चीज़ों को देखना, परखना और जीना है, इस ज़िंदगी को वह किसी भी और वजह के लिए कुर्बान करने को कतई तैयार नहीं है, अरुण यह बात अच्छी तरह जानता है।

अरुण यह भी जानता है कि उससे पहले दो साल तक बिन्देश्वर के साथ सम्बन्ध में रही वीरा ने वह सम्बन्ध इसी वजह से तोड़ दिया था क्योंकि बिन्देश्वर ने उसे अल्टीमेटम दे दिया था शादी का। वो घर बसाने में देर नहीं करना चाहता था और वीरा घर बसाने के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं थी।

अरुण और वीरा की दोस्ती भी इसी दौरान ही हुई थी जब वीरा और बिन्देश्वर का अलगाव दोस्तों में बेहद चर्चा का विषय था।

इसीलिये अरुण ज़रा संभल कर इस फिसलन भरी ज़मीन पर पाँव रखता है। वीरा उसे बेहद पसंद है। स्वभिमानी लड़की , मानसिक, शारीरिक, बौधिक और आर्थिक हर तरह से खुदमुख्तार। ठीक उसी के जैसी बिंदास लड़की जिसके साथ वह एक खुशहाल ज़िंदगी जीना चाहता है।

अरुण के अपने पारंपरिक मारवाड़ी परिवार में धन-दौलत ऐश्वर्य की कमी नहीं लेकिन औरतों और मर्दों पर भी जिस तरह की पाबंदियाँ आम तौर पर लगाई जाती हैं, उनसे उसे परहेज है।

हालाँकि उम्र के साथ उसे यह भी महसूस होने लगा है कि जिस तरह उसके बड़े तीन भाई उन पाबंदियों और वर्जनाओं में अपनी खुशी संभाले मगन हैं, वह भी अपनी जगह अच्छा ही है. लेकिन अरुण खुद अपने आप को उस माहौल में नहीं देख पाता, परिवार का सबसे छोटा बेटा अरुण पिता के शौक के चलते एक महंगे बोर्डिंग स्कूल में पढ़ा, फिर एम.बी.ए. की पढ़ाई के लिए अमरीका चला गया, ज़ाहिर है उसकी तबीयत एक खुले माहौल में हुई है जो परिवार के पारंपरिक माहौल से मेल नहीं खाती।

अरुण खुली और आज़ाद तबीयत का मालिक है। उसे पुश्तैनी कारोबार और कपड़े की मीलों में, जो खानदान में तीन पीढ़ियों से हैं, कम दिलचस्पी है। वह अपने खुद के खड़े किये आर्ट-क्राफ्ट के बिज़नस को काफी ऊंचाई तक ले कर आ चुका है जो लगभग पूरे यूरोप में फैला है, और अब उसे संभालते हुए एक खुशहाल आज़ाद ज़िंदगी वीरा के साथ बसर करना चाहता है।

शादी करना चाहता है, घर बसाना चाहता है, बच्चों के बारे में अभी अरुण ने सोचा नहीं और यहीं आ कर वीरा और अरुण ठिठक जाते हैं. ख़ास कर वीरा, शादी के बाद के झमेलों से वीरा डरती है. अरुण उन पर ज्यादा नहीं सोचता. उसे लगता है शादी खुद अपनी राह तलाश लेगी, जबकि वीरा का कहना है कि सब कुछ पहले से ही साफ़ होना चाहिए।

वीरा का मानना है कि शादी होगी तो बच्चे भी आएंगे, और वह चाहती है कि अरुण इस बात को पहले ही पूरी तरह से स्पष्ट कर के यह तय करे कि बच्चे पालना सिर्फ वीरा की ज़िम्मेदारी नहीं होगी।

क्योंकि वीरा अपने घर में और अपने आस पास के समाज में रोजाना जो देखती है, वह इस बात की पक्की ताकीद करता है कि बच्चे पूरी तरह से माँ की ज़िम्मेदारी होते हैं ।वीरा इस बात पर समझौते को कतई तैयार नहीं है।

आज भी पार्टी के बाद जब अरुण वीरा को छोड़ने आ रहा था तो एक बार फिर अरुण ने अहिस्ता से शादी की बात उठाई थी, हलके फुल्के लफ्जों में और वीरा ने फिर वही राग छेड़ा था और एक मीठी सी बहस के दौरान वीरा का घर आ गया था। वीरा अन्दर आ गयी थी और अरुण अपने घर चला गया था ।

इस वक़्त शावर के बाद अपने बेड पर लेटी हुई वीरा नींद के इंतजार में थी जब एक बार फिर वही ख्यालात उसके मन में तरह-तरह के विचारों के साथ आने लगते हैं।

कई बार उसे लगता है कि वह अरुण से प्यार करती ही नहीं ।आज भी कुछ ऐसा ही ख्याल रह-रह कर उसके मन में उठ रहा है, प्यार नाम के सिक्के के दोनों पहलू देख लेने के बाद वीरा के दिल में कोई और बड़ा सवाल या शक या कौतुहल नहीं बचा है। उसे कई बार लगता है जैसे अब इस उम्र में इस जगह जहाँ वह खड़ी है, प्यार बेमानी हो गया है, या फिर उसके हिस्से का प्यार अब खत्म हो गया है।

वैसे कहने को तो लोग कहते हैं कि प्यार अँधा होता है, प्यार बेईमान होता है, प्यार नादान होता है, प्यार दीवाना होता है या फिर प्यार आज़ाद होता है रंजो-ग़म से।

लेकिन वीरा को लगता है प्यार के सिर्फ दो पहलू होते हैं। प्यार एक सिक्का होता है, दुनिया के बाज़ार में चलने वाला। वो इसलिए कि दुनिया के बहुत से कारोबार प्यार नाम के सिक्के के बल पर लोग चला ले जाते हैं।

सब से बड़ी कहानी तो शादी नाम के बंधन की है। शादी का सारा का सारा कारोबार लेन-देन के बल पर चलता है।और इस के मूल में माना जाता है कि प्यार है, औरत और मर्द के बीच का प्यार, अब कितना प्यार होता है और कितना कारोबार, ये अलग बात है, लेकिन माना तो यही जाता है और गीत भी प्यार के ही गाये जाते हैं।

तो बहरहाल वीरा ने इस प्यार नाम के सिक्के के दोनों पहलू देख लिए है। एक प्यार के इस तरफ वाला और दूसरा प्यार के उस तरफ वाला। यानी एक तो प्यार के होने वाला, जब दुनिया हसीन हो जाती है और दूसरा प्यार के उस तरफ वाला जब दुनिया नाकारा लगने लगती है। वीरा इन दिनों प्यार में होते हुए भी प्यार में नहीं है। उसे न तो दुनिया बेतरह हसीन लगती है और न ही पूरी तरह नाकारा।

वीरा एक अजीब परिस्थिति में खुद को पाती है। प्यार में होते हुए भी प्यार में न होना। उसे लगता है कि वह अरुण को बहुत चाहती है।लेकिन जब शादी की चर्चा उठती है और शादी के साथ जुड़े प्यार का ख्याल मन में आता है तो वह पाती है कि वह अरुण तो क्या किसी से भी इतना प्यार नहीं कर पायेगी जितना अपनी ज़िंदगी की राह मोड़ देने की हिम्मत बटोरने के लिए ज़रूरी होता है।

वीरा को लगने लगा है कि वह एक अकेली औरत है जो ज़िंदगी की रफ़्तार में नदी की तरह सिर्फ बहना जानती है। रुकने का मतलब होगा सडांध। जिसके लिए वह कतई तैयार नहीं है। और शादी उसके लिए रुकने का ही दूसरा नाम है. क्योंकि उसने अपने आस-पास आज तक यही देखा है ।

फिलहाल वो प्यार के इसी नरक और स्वर्ग के बीच का आनंद भोग रही है। इसके अलावा एक और बात है जो उसे शादी से परे धकेलती है। वह है उसका अपनी इस ज़िंदगी से बेहद मुतमईन होना। वीरा ने अपनी ज़िंदगी को काफी मेहनत के साथ इस मुकाम पर ला कर खड़ा किया है जहाँ वह अपने फैसले खुद लेने को आज़ाद है। वह जानती है शादी के बाद इस खुदमुख्तारी में सेंध लगनी वाजिब है। इसी के लिए वह खुद को तैयार नहीं कर पा रही, अरुण उसकी इस झिझक को समझते हुए भी कोई पुख्ता वादा नहीं कर पा रहा।

वीरा यही सब सोचते हुए चित्रा सिंह की जादुई आवाज़ में 'रात भी नींद भी कहानी भी...' सुन रही है. उसे नहीं पता आज अरुण को अपने घर पर एक पारिवारिक अदालत में बुलाया गया है जहाँ उसे कई मुश्किल सवालों के जवाब देने होंगें और अपने भविष्य का रास्ते के बारे में परिवार वालों को विस्तार से जानकारी भी देनी होगी।

ज़ाहिर है वीरा का ज़िक्र भी होगा, अरुण की बड़ी भाभी को वीरा से अरुण के संबंधों की जानकारी है और इसका मतलब है पूरा परिवार इस बारे में जानता है, शायद यही वजह है कि पिछले कुछ समय से उसे रिश्ते बताने का काम बंद कर दिया गया है।

हालाँकि पारंपरिक मारवाड़ी परिवार में अरुण जिस तरह की ज़िंदगी जी रहा है उसे बहुत पसंद तो नहीं किया जा रहा लेकिन आज़ाद तबीयत के सबसे छोटे और लाडले बेटे के नखरे माता-पिता शुरू से ही उठाते रहे है। अरुण की निजी ज़िन्दगी का ये मसला भी उन्हीं नखरों में से एक है।

पूरा परिवार इस बात को समझ चुका है और एक तरह से मान भी चुका है कि अरुण और सभी कामों की तरह इस बात में भी वही करेगा जो उसके दिल चाहेगा। सो वीरा एक तरह से अरुण की मंगेतर मानी जा चुकी है, हालाँकि अभी तक किसी ने भी उससे मुलाकात नहीं की है।

पिता ने बहुत सोच विचार के बाद पूरे परिवार की एक मीटिंग रखी है ताकि इस विषय पर खुल कर विचार हो और परिवार की मंशा अरुण को बता दी जाए, इसके अलावा बिजनेस से संबंधित कुछ मुद्दे भी हैं जिन्हें पिता अपने रहते ठीक-ठाक कर देना चाहते हैं।

और अब पार्टी के बाद वीरा को उसके घर छोड़ने के बाद अरुण अपने घर के लिविंग रूम में देर रात इसी पारिवारिक अदालत में केंद्र बिंदु बना बैठा है, कुछ घबराया हुआ तो है लेकिन तीनों भाइयों और ख़ास तौर पर भाभियों की मौजूदगी उसके लिए संबल का काम कर रही है।

उसे दो दिन पहले ही आज यानी रविवार के दिन शाम को यहाँ हाज़िर होने का आदेश मिल गया था। समय शाम के नौ बजे का दिया गया था लेकिन उसने सुबह ही पिता को और तीनों भाइयों को व्हाट्सएप्प पर मेसेज कर के समय अवधि बढ़वा ली थी।

कारण वही था,रविवार लगभग हर बार पूरा वीरा के साथ ही होता है और आज वीरा की एक पार्टी में अरुण का उसके साथ जाना तय हुआ था, वीरा की इन्हीं छोटी छोटी ख्वाहिशों का ख्याल रखने में उसे बहुत अच्छा लगता है।

इनके अलावा वीरा उससे कोई मांग करती भी नही, अपने-अपने बिज़नस दौरों के अलावा पूरा हफ्ता दोनों अपने अपने बिज़नेस में डूबे फोन पर बात करते हैं या फिर मेसेज का आदान प्रदान। कई बार तो व्यस्तता के चलते फ़ोन पर भी बात नहीं हो पाती, कभी अरुण की व्यस्तता तो कभी वीरा की।

आज रात की पारिवारिक मीटिंग का समय उसने ग्यारह बजे का रखा था, हालाँकि यह वक़्त उसके पिता के लिए कुछ सुविधाजनक नहीं था लेकिन वे मान गए थे,अरुण समझ गया था कि बात बेहद ज़रूरी है। दोनों भाइयों के लिए यह समय मुश्किल नहीं था, उनकी तरफ से वह निश्चिन्त था, उनकी आसान सी सहमति उसे मेसेज के जरिये पहुँच गयी थी, सबसे छोटा होने के नाते उसे सबका प्यार और लाड सहज ही मिलते हैं और वह इन्हें 'टेकन फॉर ग्रांटेड' भी लेता है, माँ तो बेहद प्यारी माँ है। उन्हें तो आधी रात को भी बिस्तर से उठा कर अरुण कही भी ले जा सकता है। छोटे होने के फायदे अरुण बखूबी जानता भी है और उठाता भी है।

जब वह गाड़ी पोर्च में लगा कर घर के अन्दर दाखिल हुआ तो परिवार के सभी व्यस्क उसे लिविंग रूम में ही मिले। पिता राकेश बंसल, माँ पूजा बंसल, तीनो भाई अजय, अमित और अनिल, तीनों की पत्नियां सुजाता, रश्मि और कोमल ।अरुण को अंदाज़ा तो था कि बातचीत गंभीर होने वाली है, और अब सभी को उसकी प्रतीक्षा में बैठे देख कर उसका अंदाज़ा यकीन में बदल गया।

ऐसी बैठक पिछली बार दो साल पहले हुई थी जब उनकी इकलौती बहन अरुणिमा को अपने ससुराल में मुश्किलों का सामना करना पड़ा था और वह अपने दो वर्ष के बेटे के साथ पिता के घर लौट आयी आई थी। ऐसी बैठकों और बहस मुबाहिसों के बाद मामला सुलझा था, कुछ ग़लती अरुणिमा की भी पाई गयी थी और दामाद को भुबनेश्वर से बुलवा कर दोनों पक्षों को आमने सामने बिठा कर सारे गिले-शिकवे दूर किये गए थे, दामाद अनुराग गुप्ता आदर और सम्मान के साथ अपनी पत्नी अरुणिमा को लिवा ले गया था।

एक बारगी अरुण को लगा कि शायद फिर कोई समस्या अरुणिमा की तरफ उठ खड़ी हुई है। लेकिन सब के चेहरे देखने पर अरुण ने भाँप लिया कि तनाव वाली कोई बात नहीं है। सो वह निश्चिन्त हुआ और आ कर बैठा ही था कि सबसे छोटी भाभी कोमल ने पूछा, "भैया आपके लिए खाना लगवाऊँ?"

बंसल परिवार में खाना शाम के आठ बजे तक निपट जाता है, लेकिन अरुण या कोई और भाई जब देर से आता है तो उनकी सुविधा के लिए बारी-बारी से एक बहू की ज़िम्मेदारी होती है देर तक लिविंग रूम में रुके रह कर इंतज़ार करने की, आज कोमल की बारी थी।

"नहीं भाभी खा कर आया हूँ, कॉफी पिला दें अगर तो ..." बात उसके मुंह में ही थी जब उसने देखा कॉफी टेबल पर कॉफी , कुकीज़ और केक मौजूद थे, कोमल भी तब तक टेबल की तरफ बढ़ चुकी थी।

अरुण पिता की बगल में रखे टू सीटर सोफे पर बैठ गया जिस पर अजय पहले से ही बैठा था, राकेश बंसल अपने ख़ास सोफे पर थे, उस पर उनके सिवाय घर के बच्चे ही शरारत में बैठते थे, लेकिन वे भी दादाजी के आते ही उठ जाते थे।

अरुण की माँ बड़ी बहु सुजाता के साथ एक सोफे पर थी।

जो अहिस्ता अहिस्ता उनके एक-एक हाथ को बारी बारी से अपनी गोद में रख कर दबा रही थी। पूजा बंसल गठिया की बीमारी से परेशान रहती हैं ।कोई उनके हाथ-पैर दबाता रहे तो उन्हें अच्छा लगता है। ज़्यादातर ये काम सुजाता करती है, बुलंदशहर की सुजाता की अपनी माँ बचपन में ही गुज़र गयी थी। संयुक्त परिवार में ताई-चाची के कड़े अनुशासन में पली-बढ़ी सुजाता माँ का विशेष ख्याल रखती है और इसी वजह से घर की सबसे चहेती बहू भी है। घर का हर काम सुजाता की देख रेख में होता है।

इस सोफे की बगल में रखे बड़े सोफे पर अमित, अनिल और रश्मि बैठे थे। कोमल माँ के पास रखी एक कुर्सी पर बैठी थी जहाँ से वह आसानी से सबकी कॉफी पानी आदि की ज़रुरत का ख्याल रख रही थी ।अरुण कई बार हैरान होता था किस दक्षता के साथ यह इतना बड़ा कुनबा उसकी माँ चलाती है।

छोटी मोटी कोई बात हो जाये तो अलग, लेकिन कभी कोई बड़ा विवाद घर की व्यवस्था को लेकर उसने कभी नहीं देखा या सुना था। कई बार उसे लगता कि वह खुद जो अपना कारोबार इतनी दक्षता से खड़ा कर के चला रहा है, इसमें उसकी पढ़ाई का तो योगदान है ही, साथ ही माँ पूजा से मिली विरासत भी है। उसके डी.एन.ए. में ही दक्ष मैनेजर के गुण मौजूद हैं, दिन भर वीरा के साथ बिता कर घर आया अरुण एक बार फिर यह सारी सुघड़ व्यवस्था देख कर मन ही मन बेहद खुश हुआ और गौरान्वित भी महसूस किया।

"अरुण, बेटा तुम आ गए हो तो बात शुरू करते हैं" पिता का गंभीर स्वर गूंजा तो कॉफी का सिप लेते हुए अरुण ने उनकी तरफ देखा।लगा वे थके हुए हैं। रात के लगभग सवा ग्यारह बज चुके थे। इस वक़्त वे अमूमन अपने बेडरूम में होते हैं। और शायद सो भी चुके होते हैं।

शादियों पार्टियों में जाना भी वे कई साल पहले छोड़ चुके हैं। अब ये काम उनके बेटे और बहुएँ संभालते हैं। रिश्तेदारों मित्रों को मिलना हो तो वे लोग दिन में उनसे क्लब में मिलते हैं या समय ले कर घर पर आ जाते हैं । अरुण को लगा उसने देर से आकर पिता पर जुल्म किया है। लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता था सो चुप रह कर उनकी बात सुनने लगा।

"ऐसा है बेटा, हम सब तो ये सारी बातें आपस में तय कर ही चुके हैं बस तुमसे फाइनल बात हो जाये तो आगे की कार्यवाही की जाए."

ये कह कर पिता ने कमरे में मौजूद सभी सदस्यों पर एक सम्मिलित नज़र डाली। उस एक ही नज़र में अरुण समझ गया कि जो बात आने वाली है उसमें पूरी परिवार की सहमति है। ज़ाहिर है वह चौकन्ना हो गया । ऐसी कौन सी बात है जो इतनी महत्वपूर्ण है और उसे हवा तक नहीं लगी। लेकिन अगले ही पल ख्याल आया कि वह घर में रहता ही कितना है? ज्यादातर टूर पर, देश से बाहर या फिर अपने फ्लैट पर काम में बिजी या वीरा के साथ।

वह दम साधे पिता की तरफ देखने लगा। वे समझ गए अरुण की बेचैनी को, हस कर बोले, "परेशान होने की ज़रुरत नहीं है बेटा, कोई परेशानी नहीं है इत्मीनान रखो."

अरुण की सांस में सांस आयी, बाकी लोग एक हल्की सी हंसी हंस पड़े और फिर खामोश हो गए ताकि पिता अपनी बात जारी रखें।

"ऐसा है बेटा, अब मैं और तुम्हारी माँ की उम्र काफी हो गयी है, कारोबार तो सारा तुम्हारे भाइयों ने संभाल ही लिया है, घर भी हमारी इन बेहद प्यारी और लायक बहुओं ने पूरी तरह अपनी निगरानी में ले लिया है,अब मैं चाहता हूँ कि तुम भी अपनी ज़िम्मेदारी समझो। एक तो तुम्हें घर बसाने के बारे में सोचना चाहिए, अगर बसाना है तो, जो काम भी करो सही समय पर करना चाहिए, तुम तीस के हो गए हो, ये समय सही है शादी करने का, तुम जल्दी ही शादी कर लो, हम सभी को वीरा पसंद है। उसे हमसे मिलाओ, घर ले कर आओ हमारे परिवार से उसका मेल-जोल होना ज़रूरी है। और शादी का दिन तय करो, हमें उसके भाई से भी मिलवाओ, हम रिश्ते की बात करेंगे."

अरुण कुछ हैरत में पड़ गया। तो पिता वीरा के बारे में तफसील से सब जानते हैं, इस पर उसे हैरानी थी। ये काम सुजाता भाभी का ही लगता है। एक तरह से अच्छा ही लगा की अब उसे कुछ कहना सुनना नहीं पड़ेगा, इसके साथ ही उनकी इस खुली सहमति से सुकून भी मिला. मन में कहीं यह शंका थी की वीरा का पंजाबी परिवार से होना मुश्किल खड़ी कर सकता है ।लेकिन वह डर एक ही झटके में दूर हो गया।

उसने एक छिपी सी नज़र सुजाता की तरफ डाली वो मुस्कुरा रही थी, याने ये इन्हीं का किया धरा है. चलिए कोई बात नहीं. आप को भी देख लेंगे. आँखों ही आँखों में सुजाता को चेतावनी दे कर अरुण ने पिता की तरफ रुख किया और बोला," जी पापा मैं बात करता हूँ."

लेकिन मन ही मन कुछ घबरा भी गया, पिता से किस मुँह से कहे कि वीरा अभी शादी के लिए तैयार नहीं है।

फिर एक नज़र सुजाता पर और डाली," ये किस मुश्किल में डाल दिया भाभी."

सुजाता ने भी एक शरारती नजर के साथ उसको आँखों आँखों में ही जवाब भी दे दिया, "भुगतो देवर जी भुगतो, इश्क की यही सजा होती है" और अपनी गोद में रखे सास के हाथों को दबाती रही।

"दूसरी बात अरुण मुझे कारोबार के सिलसिले में करनी है, तुम चूँकि अपना कारोबार जमा चुके हो और हमारे खानदानी करोबार में दिलचस्पी नहीं है तो मेरे ख्याल से तुम्हें इसके अपने शेयर तीनों भाइयों को सौंप देने चाहिए, वे तुम्हें इसका ख़ामियाजा देंगे जो ज़ाहिर है मार्किट रेट से कुछ कम होगा। मैंने सब तय कर दिया है, तुम्हारा पूरा ख्याल रखा गया है, तुम्हें निराशा नहीं होगी और भाइयों को भी लाभ होगा। मेरा और तुम्हारी माँ का हिस्सा हमारे बाद तुम चारों भाई और तुम्हारी बहन में बराबर बराबर बाँट दिया जायेगा। इसका मैंने इंतजाम कर दिया है."

अरुण क्या कहता? उसे पिता पर, भाइयों पर और खुद से तीन साल बड़ी बहन पर पूरा भरोसा है।

"जी पापा, जैसे आप कहते हैं, बिलकुल सही है. आप जब कहेंगे, जहाँ कहेंगे मैं दस्तख़त कर दूंगा। सब कुछ आप लोगों का ही बनाया हुआ है, मैं तो हमेशा अपने ही काम में लगा रहा हूँ। आप जो करेंगे मुझे स्वीकार है."

मीटिंग का गंभीर मुद्दा खत्म हो चुका था, पिता ने आगे कहा, "मैं तुम्हारी वजह से यहाँ रुका हुआ था अब जाऊंगा सोने. तुम लोग बैठो बातचीत करो, कागजी कार्यवाही इस हफ्ते में शुरू कर देंगे। कल हमारे वकील जैन साहिब आ जायेंगे, तुम उनके साथ बैठ कर सब कुछ समझ लेना और हाँ अजय तुम भी अरुण के साथ रहना जैन साहिब के साथ मीटिंग के दौरान "

"जी पिताजी" दोनों भाइयों ने एक स्वर में कहा था और राकेश बंसल उठ कर अंदर चले गए थे।

देर रात परिवार के लोग बातचीत करते रहे, कई तरह की बातें हुई। वीरा का ज़िक्र हुआ, कुछ देर अरुण चुपचाप सुनता रहा, आखिरकार उसे हस्तक्षेप करना पड़ा , "मैं अगले वीकेंड पर वीरा से इस सिलसिले में बात करूँगा। उसके भाई और भाभी से भी, फिर एक मीटिंग रखते हैं दोनों परिवारों की, देखते हैं आगे क्या होता है?"

"देखते हैं से क्या मतलब है बेटा? " इस बार माँ का सवाल था, पूजा बंसल ने पहली बार अरुण और वीरा के रिश्ते को लेकर मुंह खोला था। वे कई वजहों से इस रिश्ते के पक्ष में नहीं थी।

ये बात अरुण खुद और बड़ी भाभी सुजाता सिर्फ दो ही लोग जानते थे और भी कोई जानता हो तो यह सुजाता की वजह से ही हो सकता था। बड़े भाई यानी सुजाता के पति तो ज़रूर जानते ही होंगें तभी मुंह पर ताला लगाये बैठे थे। वैसे भी अजय का मन और दिमाग सिर्फ और सिर्फ बिज़नेस में ही चलते हैं और खूब चलते हैं। घर-परिवार पूरी तरह उसने अपनी पत्नी सुजाता के हवाले कर रखा है।

माँ की नज़र से अरुण ने भी कई बार अपने और वीरा के रिश्ते के बारे में सोचा था। वीरा पंजाबी परिवार की आधुनिक इंडिपेंडेंट युवती है उस पर अरुण से उम्र में तीन साल बड़ी ये दो वजहें बहुत बड़ी थीं पूजा की नजर में वीरा के लिए उनके घर की बहू न होने की दलील देने के लिए।

लेकिन अरुण जानता है कि जिस तरह की ज़िन्दगी वह जीता है उसके साथ वीरा ही क़दम से क़दम मिला कर चल पायेगी। सुजाता या कोमल जैसे मिजाज़ की पत्नी वह नहीं झेल पायेगा। जो उसके हर मिनट का हिसाब-किताब रखे और जिसके हर पल की ज़िम्मेदारी अरुण पर हो।

लेकिन एक बहुत बड़ी उलझन अरुण के सामने मुंह बाए खड़ी है वह ये कि वीरा जैसी बहू इस संयुक्त परिवार में खटनी वाकई मुश्किल काम है। और इसी वजह से वह अपनी माँ पूजा बंसल की हिचक और असंतोष को समझ सकता है।

कई बार इस विषय पर सोचने पर उसे लगा था कि उसे इस घर से अलग वीरा के साथ घर बसाना होगा। जो यहाँ दिल्ली में तो संभव नहीं हो पायेगा, कई तरह के सवाल उठेंगें और वह खुद भी इतना बड़ा क़दम माता-पिता के रहते नहीं उठा पायेगा। उनका परिवार पीढ़ियों से संयुक्त रहा है और बड़े मज़े से चल रहा है। अरुण इस संयुक्तता को खुद भी बेहद पसंद करता है। इसमें सेंध लगाने की हिम्मत वह नहीं जुटा पा रहा था ।

तो क्या किया जाये? यही समझ नहीं आ रहा, जबकि दूसरी तरफ वीरा शादी के नाम से ही घबरा उठती है। वह वीरा की हिचक को काफी हद तक समझ सकता है, उसे अक्सर लगता है कि वीरा की हिचक उसके संयुक्त परिवार को लेकर है। अगर वह उसे साफ़ तौर पर बता दे कि उन दोनों को संयुक्त परिवार में नहीं रहना है तो शायद उसकी हिचक दूर हो जाए।

फिलहाल तो माँ की बात का जवाब देना ज़रूरी है।

"मम्मी, अभी हम दोनों ने शादी के बारे में बात नही की है" अरुण सफेद झूठ बोल तो गया लेकिन जुबां लड़खड़ा गयी।

"देखा मैंने कहा था न ये लड़का ऐसा ही है। अरे इतने दिन से साथ हो शादी न करोगे लड़की से?" माँ का ये रूप अरुण के लिए नया था। इससे पहले की वह कोई प्रतिवाद करता वे आगे बोल पड़ी , "देख बेटा, जो शादी न करनी तो उससे मिलना जुलना छोड़ दे। हमारे घर के लड़के इस तरह के कामों में नहीं पड़ते, तेरे लिए एक से एक लड़कियों के रिश्ते हैं मेरे पास। तू खुद पसंद कर लेना जैसे तेरे सारे भाइयों ने पसंद की, चारों भाई और उनकी बहुएं मजे में एक ही घर में रहेंगे सोच ले बेटा। दूसरी जात की आयेगी तो घर में न रह पायेगी "

माँ की इस बात में सच्चाई तो थी लेकिन आधी, अरुण खुद ही कहाँ इस संयुक्त परिवार में लम्बे समय तक रह पायेगा, हॉस्टल छोड़ कर जब आया था तो घर में रहने में उसे बंधन लगता था। हर काम नियत समय पर बंधा बंधाया, हॉस्टल की ही तरह तो निकल भागा था अमरीका आगे की पढ़ाई के लिए।

फिर अपना कारोबार जमाने में लग गया, आये दिन देश-विदेश की यात्रायें। और अब भी जब काम जम गया है तो पैर में चक्कर रहता ही है, इसी में उसे सुकून भी मिलता है, फिर वीरा से इस तरह के माहौल में रहने की उम्मीद कैसे कर सकता है अरुण? उस वीरा से जो एक दिन दिल्ली में होती है, तीसरे दिन पेरिस में और पांचवें दिन मिलान में।

माँ की बात पर उसे कुछ गुस्सा भी आया लेकिन पी गया, उठ खड़ा हुआ।

"मैं चलता हूँ सोने, कल वकील साहिब के साथ मीटिंग भी है। अजय भैया आप मुझे साथ ही लेते चलना ऑफिस। सुबह मैं तैयार रहूँगा पहला वाक्य सब की तरफ उछाल कर और दूसरा भाई को मुखातिब कर के वह सीढ़ियाँ चढ़ गया, अपने दूसरी मंजिल के बेडरूम की तरफ।

इस वक़्त अपने बेड पर लेटा नींद के इंतजार में है, एक जी किया वीरा को फ़ोन कर के इस मसले पर बात की जाए, लेकिन अगले ही पल इस ख्याल को सिरे से ख़ारिज कर दिया, वीरा तो पहले ही शादी की गेंद अपने पाले में रखे बैठी है, उसके प्रस्ताव का खुल कर जवाब नहीं दे पा रही, इस नए अल्टीमेटम से तो और उखड़ जायेगी।

तो क्या किया जाए?

वैसे अरुण इस बात से बहुत इत्मीनान में है कि आखिरकार पुश्तैनी पारिवारिक बिज़नस से उसका हिस्सा हट जाएगा तो वह अपनी निजी ज़िन्दगी के फैसले लेने को कुछ और आज़ाद हो जायेगा, अब तक इस वजह से भी वह संकोच में था।

एका एक उसे ख्याल आया कि क्यों न वह और वीरा शादी कर के यूरोप में ही कहीं बस जाएँ ? दोनों का कारोबार भी वहां है, इस व्यवस्था से परिवार के साथ कोई संशय या मन मुटाव की स्थिति भी नहीं बनेगी।

ये ख्याल आते ही अरुण का मन पंख की तरह हल्का हो आया ।अब सिर्फ वीरा को इस नए विचार के साथ शादी का प्रस्ताव रखना है। जीना चाहता है अरुण वीरा के साथ और जानता है वीरा भी ऐसा ही चाहती है। लेकिन वीरा की झिझक में जितने भी तत्व हैं उन्हें एक एक कर के हटाता हुया अरुण आश्वस्त हो चला है।

उसे लगता है कल दिन भर वकील जैन साहिब के साथ मीटिंग के बाद उसकी शाम अच्छी सी होने वाली है वीरा के साथ। शायद वे दोनों अंगूठी पसंद करने भी जाएं, कैसी अंगूठी वीरा को पसंद आयेगी यह अभी नहीं सोच पाया अरुण। उसकी आँखें बोझिल हो चुकी हैं और वह नींद में गाफिल पूरी तरह।

ख्वाब देख रहा है अरुण।आदम और हव्वा गार्डन ऑफ़ ईडन में मिल रहे हैं। दुनिया का इतिहास बदलने नही पायेगा।


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