कहानी " क्रंदन:मानस-मंथन"

कहानी " क्रंदन:मानस-मंथन"

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"क्रंदन :मानस-मंथन" "जीवन में एक सितारा था, माना वह बेहद प्यारा था, वह छूट गया तो छूट गया , अंबर की छाती को देखो , कितने इसके तारे टूटे , कितने इसके प्यारे छूटते , जो छूट गये फिर कहाँ मिले, पर बोलो टूटे तारों पर कब अंबर शोक मनाता है, जो बीत गई सो बात गई ..." कवि हरिवंशराय बच्चन की कविता पढ़ते-पढ़ते वे व्याकुल और भावुक हो उठे ।ये पंक्तियाँ कितनी गहराई से जीवन में मिलने-बिछुड़ने की नियति को बखान करती है... सच ही, जो जीवन के सफर में साथ छोड़ गया वो फिर नहीं लौटता...पर क्या इतना आसान है भुला पाना..." कि बीत गई सो बात गई "की तर्ज पर जीवन भर जिन रिश्तों को जिया और उनके लिए समर्पित रहे उन्हें बीती बात की तरह बिसार कर आगे बढ़ चलें ।" , अमरनाथ बाबू ने गहरी उच्छ्वांस ली। "गीता को गुजरे आज करीब दस वर्ष होजाएंगे...पर ऐसा लगता है कि जैसे वह अभी आकर उन्हें स्नेह से झिंझोड़ देगी और शाम को सोने का उलाहना देते हुए कहेगी -" उठो जी , मंदिर हो आएं और अपने बाग के आम भी लेते आएं " । सच, उसके होने की महक , उसकी गरिमा... गहरे लाल रंग की किनारी की पीली साड़ी में सजी, माथे पर दिपदिपाती बड़ी सी गोल बिंदी, आँखों से बरसती ममता, सलज्ज वाणी और सधी चाल उसको एक अनूठा आकर्षण प्रदान करते। दोनों पुत्र माँ के आगे नतमस्तक रहते और बहुएं आज्ञाकारी...परंतु उसके जाते ही....सब कुछ रीता-रीता सा होगया...हर जगह उसकी यादें बिखरी हैं,  उसकी छुअन , उसका समर्पण ...बहुएं भी कहाँ उस घरौंदे को सँवार पाईं जो उन्होंने बड़े जतन से अपनी जीवन भर की जमापूँजी लगाकर बनाया था...या उनको ही आदत थी उसके होने की सो किसी और का अब रूचता नहीं ...पर एक घर तो सच्चा घर बनता है उसमें रहने वालों के गहन समर्पण,  आपसी विश्वास,  देखभाल और जिम्मेदारी की भावना से... कैसे मान लें कि बीत गई सो बात गई ... हाँ जिम्मेदारी की, खुद्दारी की भावना ही तो थी जो अपने पिता की लंबी-चौड़ी जायदाद और जमीनें होते हुए भी , वहाँ से दूर शहर में रहकर वकालत पढ़ी और छोटे -मोटे कार्य कर अपना खर्च निकाला। आज करीब पचास सालों की मेहनत ने इतनी सम्पन्नता प्रदान की है वरना ऐसे भी दिन देखे हैं जब फाके करना पड़े। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। " अमरनाथ बाबू अतीत में खो से गये थे। " ऐ मनवा, बीड़ी जलाइ देब, तनिक आराम रहे इस जाड़ा मा", रतन माली की टेर ने उन्हें मानो जमीन पर ला पटका... "हाँ इस बार कड़क जाड़ा ही तो है। बूढ़ी हाड़ कँपाता हुआ...", सहसा वो गाना कौंध गया दिमाग में -" बीड़ी जलाइ ले जिगर से पिया... जिगर मा बड़ी आग है", " ऐसे-ऐसे गाने अब सुनने को मिलते हैं, मानो कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया हो। कहाँ गये वे दिन जब उनका कवि रसिक मन , सारे संगी- साथियों के साथ कवि सम्मेलन में ढोल मंजीरे के साथ कविता पाठ का आनंद लेता था । आज के नौनिहाल क्या सीख रहे हैं! ! उनका ही पाँच वर्षीय पोता जब ठुमके लगा कर कजरारे-कजरारे गाता है और परिवार निहाल होजाता है तो वे समझ नहीं पाते की हर्षित हों या खेद व्यक्त करें । उनका कवि ह्रदय ठेस खाता है। उस समय की रचनाएँ...वो बात ही अलग थी...अपनी माटी की खुशबू और संस्कृति से सराबोर ....नहीं -नहीं वह गलती पर हैं ...आज भी अच्छी रचनाएँ सुनने को मिलती हैं । अच्छा -बुरा तो हर चीज में , हर जगह , हर वक्त में होता है। ये तो मानव मन की प्रवृत्ति है हर बात को अच्छे-बुरे की कसौटी पर कसने लगता है ....और कसौटियाँ भी वक्त के साथ बदलती जाती हैं ..." यादों की जुगाली चलती ही रहती है। बीता जीवन चलचित्र की तरह आँखों के सामने से गुज़रता रहता है। मानो कल की ही बात हो... "ट्रिन-ट्रिन.."...गहन निद्रा से जाग पड़े थे अमरनाथ बाबू ,  सुशांत का फोन था - "बाबू जी मैं  आतंकवादी हमले में फँस गया हूँ ...मैं और मेरे साथी होटल ताज के तलघर में छिपे हुए हैं ...बड़ी मुश्किल से आपको काॅल कर पाया हूँ " , " खट्..!!." , फोन कट गया ... बस यही अंतिम संवाद था उनके ज्येष्ठ पुत्र का ... ये आवाजें एक भूतहा क्रंदन की तरह उनके जेहन में गूँजती हैं । " आह....इतनी पीड़ा ...अब सही नहीं  जाती , गीता तुम कहाँ हो ...देखो न हमारा सुशांत अब कभी नहीं आएगा ...अपने दोस्तों के साथ मुंबई गया ...अब वो कभी घर नहीं आएगा...नहीं -नहीं,  अरे वो आया था...शांत ...बर्फ की तरह ठंड़ा , नीला , गोलियों से दागा हुआ...मैंने ही मुखाग्नि दी ...जा बेटा...तेरा ये बूढा पिता ही अब तेरे पुत्र का पालन करेगा...आह इतना बड़ा वज्रपात....हे ईश्वर! !" "मृदु मिट्टी के हैं बने हुए , मधुघट फूटा ही करते हैं, लघुजीवन लेकर आए हैं, प्याले टूटा ही करते हैं, वह सच्चा पीने वाला है , जिसकी ममता घट-प्यालों पर, जो सच्चे मधु से जला हुआ, कब रोकता है , चिल्लाता है, जो बीत गई,  सो बात गई ..." एक गहरी उच्छ्वांस ...मानो प्राण ही गले में अटके हों ...ना निकलें और ना ही बने रह पाएं... समय की बेरहम मार किसी को नहीं छोड़ती...अपने-अपने हिस्से का सुख-दुख सबको ही मिलता है ...जो हर घड़ी धीरज से निभा ले वही सच्चा योगी है...  "हाँ जो सच्चे मधु से जला हुआ हो , केवल ईश्वर से प्रेम रखता हो....वही तो..., केवल वही तो...कब रोता है, चिल्लाता है ...पर क्या इतना आसान है???अपने ही ह्रदय के टुकड़े को चिता में धू-धू कर जलते देखना...!" "युवा वधु भी अपने जीवन के बसंत में यह घोर वज्रपात झेल नहीं पाई और असमय ही मृत्यु को गले लगा बैठी...अरे ये बूढ़ा ही बेशरम बना जीवित बचा रह गया...आह....हे ईश्वर !!" शोक संतप्त मन से अमरनाथ बाबू कराह उठे। " कहाँ से आते हैं ये लोग?? कौन हैं? ??क्या हाड़-माँस के ही बने हुए???क्या माँ के ही जने हुए?? पिता की ही गोद में खेले हुए... कहाँ से आते हैं ये लोग??"। "एक जीवन जो ...माँ की कोख में नौ माह में आकार लेता है और फिर इस धरती पर पल-पल बढ़ता...पोषित होता है...अपनी चमक बिखेरता है इस धरा पर अपने होने से...वही जीवन...उसी जीवन को एक क्षण में रौंदने वाले...  कहाँ से आते हैं ये लोग???...आह (दीर्घ उच्छ्वांस )हे ईश्वर .." " बाबा-बाबा"  , अमरनाथ बाबू अपनी पीड़ा से जागे...नन्हा प्रबीर...बिल्कुल सुशांत का नन्हा स्वरूप ... "बाबा आज मेला  चलो" ,   प्रबीर ठुनका , " हाँ बेटा, मेला चलेंगे "...अमरनाथ बाबू ने उसे बहलाया। " बाबा मैं मेले में बंदूक लूँगा ...ठाँय-ठाँय ...सबको मार ड़ालूंगा...टीवी के हीरो की तरह..." , प्रबीर इठलाया। "ना ...हे ईश्वर ...", अमरनाथ बाबू कराह उठे। " ना मेरे बेटे, ऐसा नहीं कहते ", गहन दुख पोर-पोर में मानो भुजंग सा रेंगने लगा..." ये टीवी और बाढ़ से बढ़ते चैनल...झिन्न-भिन्न होती अपनी वसुधैव कुटुंबकम संस्कृति ..क्या सीख रहे हैं अपने नौनिहाल ..." अमरनाथ बाबू चकराये। "हाँ मैं तुझे बंदूक दिलाऊँगा...तू जाना ...और ...अपने देश, अपनी धरा के दुश्मनों का नाश करना...मानवता का नहीं ..उनका, उन लोगों का, उनके दूषित मानस का...जो अपने हथियारों,  अपनी ताक़त, धर्म -जाति, क्षेत्र के दंभ में  , अपनी कुंठाओं की तृप्ति के लिए निर्दोषों को अपने आतंक का शिकार बनाते हैं...हे ईश्वर ...!!" भोर के सुनहले उजास की तरह...एक संकल्प उनके अंतस में जन्मने लगा..." हाँ प्रबीर अकेला तू ही क्यों ...!!, मैं अपनी समस्त संपदा अनाथों, विपदाग्रस्तों के उद्धार को समर्पित कर देता हूँ । पीड़ा,  क्षोभ, कुंठा में नित गलते रहने से बेहतर यही होगा ..." ,  मन ही मन अमरनाथ बाबू का संकल्प दृढ़ होने लगा...अपने ही मकान में एक विद्यालय का स्वरूप आकार लेने लगा... हमें ही अपने नौनिहालों को सिखाना होगा, देशभक्ति का पाठ पढ़ाना होगा...भले-बुरे की पहचान...न्याय -अन्याय का माद्दा...देश, धर्म,  जाति से बढ़कर मानवता पाठ पढ़ाना होगा...जिससे कि फिर कोई नहीं पूछे यह प्रश्न...कि 'कहाँ से आते हैं ये लोग...???...कि फिर कभी कोई माता-पिता किसी के आतंक के चलते अपने पुत्र -पुत्री को ... कि कोई पत्नी अपने पति को ...कि कोई पुत्र -पुत्री अपने माता-पिता को ना खोए...असमय अनाथ ना हो...हाँ हमें ही मानवता को इतना सुदृढ़ बना देना होगा कि किसी भी तरह का आतंकवाद सिर ना उठा सके... हमें ही अपनी नई पीढ़ी में दृढ़ संस्कारों के ऐसे बीज बोने होंगे कि वे इस धरा से आतंक के साये का समूल नाश कर सकें ...परस्पर भाईचारे की संस्कृति को पोषित कर सकें ।" उनकी ऐसी सोच से अचानक मानो कुहांसा छँट गया...अपने पीड़ा विगलित मन में उन्होंने जीवन के प्रति एक सोद्देश्य आशा और विश्वास की चमक महसूस की । "हाँ बेटा मेले चलेंगे ", और अमरनाथ बाबू ने प्रबीर को ह्रदय से लगा लिया । मानो प्रकृति ही उससे कह रही हो - "तू धूप है , छम से बिखर...!!" © अर्पणा शर्मा ( कहानी हरिवंशराय बच्चन जी कविता का तथा प्रसून जोशी जी की पंक्ति का उद्हरण - साभार)


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