"सुपात्र" - लघुकथा
"सुपात्र" - लघुकथा
सहसा उसने कार रोकी , वही बरसों पुराना जाना-पहचाना मकान। आज न जाने किस मनोदशा के वशीभूत हो उससे मिलने चला आया।
"करीब दस-बारह वर्ष हुए जब अपने कारोबार के सिलसिले में अमेरिका जाने की बात कहकर वहाँ से चला आया था। वह भी एकरस जीवन में बदलाव चाहता था।" , ये सोचते पल्लव के मन में शब्दों का ताना-बाना जुड़ रहा था कि शुचि को वह कैसे समझायेगा...
धीरे से लाॅन का गेट खोला, तो वहाँ लगे झूले पर एक नवयुवती मगन होकर झूलती दिखाई दी, उसके गुनगुनाने की मद्धिम सी स्वरलहरी फूलों की खुशबू के साथ वहाँ फैली हुई थी। पीछे से उसके लंबे, घने , काले केश ही देख पारहा था।
" सुनिये, शुचि से मिल सकता हूँ क्या?", उसने पुकार कर कहा।
वह नवयुवती पलटी, इकहरी , खूबसूरत मगर गरिमामय । धीरे-धीरे उसके पास आकर बोली कहिये ।
वह हक्का-बक्का रह गया। वही वर्षों पुरानी शुचि... जरा भी समय की धूल नहीं चढ़ी, तनिक भी दुःख में नहीं घुली..वही सलज्ज, मासूम आँखें , आत्मविश्वास से दमकता चेहरा और कोमल मुस्कान ।
सारे रास्ते बुने उसके संशय, विचार और पौरूष का दर्प धुआँ-धुआँ हो उड़ चले थे। " वो, वो मैं यूँ ही जरा आज इधर आया था तो सोचा कि तुम्हारा हाल जान लूँ", वह हकला गया। मानो जिह्ववा में कोई शक्ति ही ना हो ।
शुचि की हँसी वहाँ खनकती बिखर गई -" क्या हाल जानना है मेरा, बोलो..?? जब तुम एक सधे व्यापारी से नाप-तौलकर, सब हिसाब कर आगे बढ़ लिये थे तो आज इतने बरसों बाद क्या देखने आए हो...??? ...तुमने सोचा होगा कि मैं तुम्हारे दुख में विगलित , संतप्त जीवन काट रही होऊंगी। पर मैंने तुम्हारे धोखे की पीड़ा को अपनी जीवन धरा की खाद बनाकर उस पर हँसी-खुशी के उजास उपजायें हैं । ",
पल्लव अपराधी सा सिर झुकाए सुन रहा था।
मेरा विश्वास तो सच्चा था न , तो तुम्हारे धोखे की सजा मैं स्वयं को क्यों दूँ!! ईश्वर नहीं चाहते थे कि मेरे सच्चे विश्वास को गलत हाथों में सौंपें इसलिए उन्होंने तुम्हारी जगह रिक्त कर दी , जिससे कि सर्वथा उपयुक्त पात्र ही उसका हकदार बने..!! कहकर मुस्कुराती वह पुनः झूले की ओर चल दी ।
©अर्पणा शर्मा, भोपाल 🌸