कहानी अंधेरे से उजाले तक
कहानी अंधेरे से उजाले तक
दूर पश्चिम में रक्त -रंजित सूर्य सागर के पानी को किसी सुहागिन की मांग की तरह भर रहा था। पक्षी दिन भर की उड़ान के बाद अपने घोंसलों की ओर जा रहे थे। ठंडी हवा मानो दिन भर की उमस को अपने आंचल में लपेटे, ठंडी हिलोरें दे रही थी। धीरे -धीरे अंधेरे की चादर चारों और फैलने लगी इस इंतजार में कि कल फिर उजली किरणों का स्वागत वह नई उमंग के साथ करेगी। यह आज से नहीं सदियों से चला आ रहा है
सागर की लहरें किनारों को छूने का प्रयत्न कर रही थीं । एक के बाद एक लहर ऐसे उठ रही थी मानो उनमें होड़ लगी हो किनारे पर पहुंचने की। क्या वास्तव में उन्हें किनारा मिल जायेगा? असंभव ,इस जीवन रूपी नदिया के दो किनारे भी कहीं मिले हैं! अगर मिले हैं तो नदी अपना अस्तित्व खो देती है, वो नदी नहीं कहलाती। ठीक इसी तरह जीवन की धारा में दुख -सुख की लहरें, मनुष्य को इतना बलवान बना देती हैं कि वो इस वास्तविकता को अपना लेता है कि यही जीवन है।
रात के इस अंधेरे ने मेरे जीवन के उन अंधेरों को एक नई रोशनी दी और जीवन के वो पल मेरी आंखों के सामने चलचित्र की तरह आने लगे। वो आम के बागों से, आमों को तोड़ कर, नदी किनारे की रेत में दबाना, ऊंची- नीची पगडंडियों पर नंगे पांवों भागना, शीत की वर्षा में ठिठुरते हुए नहाना और गर्मी की रातों को खुले आसमान के नीचे, हरी -हरी घास पर बैठ कर चांद को निहारना। बरसाती नालों में, कागज की नाव को छोड़ कर आनंद उठाना। वर्षा के रुकने पर वृक्षों के पत्तों से गिरती बूंदों को अपनी नन्ही हथेलियों में समेटने का प्रयत्न करना। नंगे पांवों घास पर चलना। सुबह -सवेरे आंगन में लगे गुलाब की पंखुड़ियों पर पड़ी ओस की बूंद को देखकर प्रसन्न होना। चढ़ते सूरज की लाली का पूरब से फैलना और देखते ही देखते हर कली का फूल बनना ------क्या कुछ नहीं याद आया।
अचानक पैरों को किसी चीज ने छुआ तो एहसास हुआ कि पानी उस पत्थर तक पहुंच गया था, जहां मैं बैठा था कितना समय गुजर गया इसका मुझे एहसास तक न था, शायद रात आधी से ज्यादा गुजर चुकी थी ठीक उसी तरह जैसे मेरे जीवन के कितने वसंत और पतझड़ गुजर चुके थे अब।
