GOPAL RAM DANSENA

Tragedy Inspirational

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GOPAL RAM DANSENA

Tragedy Inspirational

कांतार जीवन

कांतार जीवन

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ये रामू आज साहब नहीं आए, .....

..........अरे भाई लोग साहब का कुछ खबर है क्या ?

एक शहर के व्यस्त चौराहे पर भीख माँगने वाला राधे ने अपने पास कटोरा लिए बैठे भिखारियों की और खोजी नजर से देखा,

आप को भिखारियों के मुँह से किसी को खोजने की बात से अनुमान लग रहा होगा कि साहब को पूछ रहे हैं तो भीख के लिए होगा,पर ऐसा नहीं है, साहब से इनका रिश्ता कुछ अलग है।

चलिए साहब को हम भी जान लेते हैं, साहब असल में एक रिटायर्ड कर्मचारी है, अपने युवा काल में उन्होंने खूब कमाया, बालबच्चों की हंसी से गूंजता हुआ घर आंगन। चारों ओर खुशियां ये सब देखकर साहब अपने आप को भाग्यशाली समझते। समय बीतता गया, साहब के चार सन्तान थे, दो लड़की और दो लड़के। उनके पढ़ाई में कमी नहीं की, और कर्म का फल भी सकारात्मक मिला, चारो बच्चे ऊंचे ओहदे का सरकारी अफसर बन गए। इसी बीच साहब पर समय ने कुठाराघात किया, उनकी पत्नी का आकस्मिक निधन हो गया, साहब टूट से गये, बच्चे दूर शहरों में काम करते थे, बच्चों के आते तक साहब अपने पत्नी के पास अकेले रोते रहे उन्हें जीवन का अर्थ समझ आ गया था, और संसार में यहीं होता है, इंसान सात जन्मों तक साथ निभाने की बात तो करते हैं पर कौन कब छोड़ जाए कोई नहीं जानता। समय बीतता गया,साहब अब घर में अकेले रहते जीवन दिन रात उन्हें कचोटती,बुढापा पास खडा दिख रहा था।

चारो सन्तान की शादी कर साहब ने अपने पिता होने का फर्ज पूरा किया । बेटीयां ससुराल में और दोनो बेटे अपना घर दूसरे शहर में लेकर रहने लगे। दोनो लड़कों के बहूओं में मतभेद हो गया जिस कारण दोनों बेटों मे अनबन हो गया।इस का परिणाम ये हुआ कि बाप का फिक्र किसी को न रहा। कोई उन्हें अपने साथ रखने को तैयार न हुआ। शायद हर परिवार में बुढ़े माँ बाप का यही हाल होता है। औलाद सिर्फ दौलत तक ही साथ देते हैं, वरना इस भारत भूमि में श्रवण की कथा इतनी पावन न होती।

साहब किसी तरह दिन काटते जीवन व्यतीत कर रहे थेI पेंशन के कुछ रुपये मिल जाते उन्हीं से गुजारा करते। पर कोई अपने उनसे बात करने को न था, कभी कभार बेटियां चंद घण्टे के लिए आ जाते, और कभी-कभी साहब उनके घर चले जाते।

साहब का शरीर थकने लगा था, कहीं आना जाना मुश्किल हो गया, पर कोई अकेले बंद कमरे में कितना

बैठे, पास में ही मन्दिर के पास चौराहा था। जहाँ गरीब और अनाथ लोग अपना कटोरा, चादर फैलाए बैठे रहते।

बुढ़ापे में एक खास आदत विकसित होती है

अपने पास से गुजरने वाले, तथा अपने पहचान वालों खासकर हमउम्र की पूछ परख ऐसे करते हैं जैसे युवा अवस्था से हमेशा करते आ रहे हैं। पर इस मानव उम्र की बिडम्बना ही कुछ अलग है। समय के साथ साथ हर चीज़ अपने आप पनपने लगता है जिस पर हमारा कोई नियन्त्रण नहीं होता।

साहब के उम्र का एक मजदूर जिसको वे अक्सर तीज त्योहार पर काम पर बुलाते और वह हमेशा उनके कहने पर काम पर आ जाता,क्यों न आता साहब ज्यादा पगार जो देते साथ ही अपने पुराने चीज़ जिनसे उनका मन भर जाता उसे दे देते।

साहब मंदिर अक्सर जाते, कुछ रुपये गरीबों को देते कुछ समय पास खड़े होकर उनका परिचय पूछते। फिर जब थकान अनुभव होता वापस घर आ जाते। पर उन गरीबों के बीच बैठ कर बात करने की हिम्मत न करते। पहले पहले खड़े होने में भी संकोच हुआ,पर उनके साथ एक घटना ने इस संकोच को दूर कर दिया।

वह मजदूर जिसे वे अक्सर काम पर बुलाते उसका नाम राधे था, जो इस कहानी के शुरू में साहब को ढूंढ रहा है। वह भी अब बुढ़ा हो गया था अब वह काम पर नहीं जा सकता था, गरीबों के जीवन में काम करने का तरीका भी समय के साथ बदलता जाता है, निर्मम तन की भूख उन्हें किसी भी तरीके से काम करने को मजबूर कर दिया करती है। राधे अब पेट के खातिर इन गरीबों के बीच बैठने लगा।

अचानक एक दिन साहब की नजर उस पर पड़ी, वे रुक गए।

राधे तुम दिखते नहीं थे। क्या करते हो आजकल, साहब ने पूछा।

क्या करूंगा साहब, शरीर अब साथ नहीं दे रहा, बेटा बहु काम पर जाते हैं फिर भी घर नहीं चल पाता है। घर पर पड़े रहने से अच्छा कुछ मांग कर अपना पेट भरने के लिए यहां पर बैठने लगा हूं। और आप कैसे हैं।

राधे ने पूछा!

ठीक हुँ राधे......एक लम्बी साँस लेकर साहब फिर बात करने लगे, साहब रोज जाते राधे से बात करते इसका असर ये हुआ कि सब बुजुर्ग जो वहां भीख मांगने बैठते वे सब उनको जानने लगे। साहब त्यौहारों पर सबको कुछ दे जाते।

आत्मीयता के कारण व्यक्ति ऊंच नीच,अमीर गरीब का भेद भूल जाता है। साहब अब उनके पास ज्यादा वक्त बिताते। उनके सुख दुख में सहयोग करने के लिए तत्पर रहते, वे भी उनकी खूब सम्मान करते। हमेशा उनके आने पर कटोरा किनारे कर आपसी सुख दुख की बातचीत करते, कभी कभार साहब के घर तक हाल पूछते पहुँच जाते। जब कभी साहब बीमार होते उनमे से कोई साहब के घर में रात गुजारते। मानो उनका कोई अपना बीमार हो। साहब तब सोचते कि दुनियां में अपने और पराये की परिभाषा क्या है। उन्होंने तो जीवन अपनों के बीच शुरू किया पर अपनेपन के परिभाषा की आईने पर से जमी धूल समय के झोंकों से हटने लगी थी, वे अब स्पस्ट देख रहे थे जीवन में अपने की अमिट छवि,जिसके अंगों पर कहीं कांटे तो कहीं फूलों सी कोमलता, जिसके बाहों में वे खुद थे कराहते और खुश होते। और उनकी आंखे भीग जाती दुख और खुशी से। वे विस्मित हो निरुत्तर हो जाते की जीवन पथ पर फूल कांटे और कांटे फूल कैसे बन जाते हैं।


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