कालिख़
कालिख़
"क्या हुआ?"
"सब लोग काहे को जमा हैं?"
"क्या, फिर कोई डूब गया नदी में क्या?"
कोयला-खानों के मज़दूरों की बस्ती के पास वाली नदी पर भीड़ निरंतर बढ़ती जा रही थी। कुछ देर बाद तैरती हुई युवती को किनारे पर लाया गया - गोमा की लाश थी। गोमा, बंसी की जवान बेटी, जो पिछले दो दिनों से ग़ायब थी...
"अब यह कैसे डूब गई?"
"ससुरी ने खुदकुसी कर ली क्या?"
मज़दूर लोग अपने दिमाग़ को एक सीमित दायरे में दौड़ाते हुए नतीजे पर पहुँचने की कोशिश में लगे थे।
और इधर रधिया...परेशान-सी, बस्ती की एक वृद्धा से पूछ रही,
"चाची, क्या हुआ अपनी गोमा को?"
"होना क्या है री?! मुंह काला करवा आई होगी कहीं से करमजली...और फिर खुदकुसी कर ली...”
"यह खुदकुसी क्या होता है चाची?"
यह और बात है कि… रधिया की अल्हड सी बुद्धि में मुंह काला करवाने वाली बात भी नहीं आई थी...'कोयला खानों में काम करने वाले मजूरों का मुंह भी तो काला होगा ही...!' रधिया अभी पन्द्रह ही की थी, परन्तु उसके मानसिक और शारीरिक विकास में बहुत फ़र्क़ था।
"अरी पगली, जब कोई लड़की नदी में डूब मरती है तो उसको खुदकुसी कहते हैं...," चाची ने समझाया।
इतने में मालिक साहब की सफ़ेद, लम्बी गाड़ी वहाँ आ पहुँची - तहक़ीक़ात के लिए।
रास्ता छोड़ कर पीछे हटती भीड़ में मालिक साहब ने रधिया को देखा……
"अपने हरिया की बहन है साब!" उनके 'ख़ास आदमी' ने कान में बताया।
रोते-बिलखते बंसी को मालिक साहब कफ़न-दफ़न के लिए दो हज़ार रुपये देकर, सहानुभूति जता कर, थोड़ी देर बाद अपनी गाड़ी में बैठ कर लौट गए....
....और कुछ दिन बाद -
नदी किनारे फिर भीड़ जमा थी।
सब हरिया को सांत्वना दे रहे थे...!!