जवाब -2
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तुम्हें याद है, एक बार सब आपस मे एक दूसरे के आंखों के रंगों की बात कर रहे थे। तुम सीढ़ियों पर बैठे थे,और मैंने तुम्हारी आँखों का रंग देखने के लिए खड़े खड़े तुम्हारी आँखों मे झांका था। तुम्हारे चश्मे को हटाते हुए अनजाने ही तुम्हारे चेहरे के काफी करीब आ गयी थी। आंखों के रंग की बात तो भूल ही गयी थी, कुछ अलग सा लगा था..कुछ था जो आंखों से बस तेजी से मुझमे भरता हुआ सा लगा था..सच, बहुत डर गई थी मैं। बिना कुछ कहे वापस तुम्हारा चश्मा वापस रख सामान्य सी बर्ताव करने लगी थी।उस दिन तुम्हारी ओर फिर देखा ही नहीं।
उस दिन, सारा दिन परेशान रही।तुम्हारे साथ तो कभी पहले ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ। जबकि सारा दिन हम साथ रहते थे। बाकी तुम्हारे साथ क्या, पहले कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ था। तुम्हारे साथ तो मैं, मैं होती थी। पर उस दिन वो क्या था? तब समझ ही नहीं आया।और उस उलझन में अजीब सी चिढ़ बढ़ने लगी थी उस भावना से।सब फिर बिखरने लगा था।तुम भी शायद मेरे अजीब से बर्ताव से हर्ट हुए थे। हम धीरे धीरे एक दूसरे से, एक दूसरे की जिंदगी से दूर हो गए थे।
अब इतने सालों बाद जब जिंदगी समझ आने लगी है तब समझ आता है। वो जीवन मे पहली झलक थी अपने लिए किसी के मन मे गहरा प्रेम देखने का,जो बस पहुंचना चाहता था दिल तक।दिल जिसे इस भावना का "अ ब स" तक पता नहीं था। मगर तुम जानते थे लेकिन कभी साफ साफ कह नहीं पाए। हमारे बीच जबकि बेहद साफगोई रहती थी।
तो मैं जानती भी तो कैसे? फिर कभी भी खुद को उस नजर से देखा नहीं जैसे उस उम्र में लड़कियां खुद को महसूस करती हैं, देखती हैं। हाँ, अगर जाना होता उस तरह से तो तुम यकीनन बेहद खुशनसीब होते क्योंकि तब कोई और नहीं था मेरा, मेरे आस पास... तुम्हारे सिवाय।
तुम कहते हो "मैं आज भी बचती हूँ, उस भावना के बारे में बात करने को "। तो चलो आज बता देती हूँ,पर वादा ले रही हूँ कि वजह जानने के बाद अब उस भावना का जिक्र हमारे बीच आगे कभी नहीं होगा।वजह बहुत साधारण सी होते हुए गंभीरता लिए हुए भी है।कम में ज्यादा समझना।
वजह ये जीवन की समझ ही है। पहले जानती नहीं थी, समझ नहीं थी जीवन में आते खूबसूरत पलों को समझने -जीने की, उनके होने की वजहों की, उनके प्रभाव की पर अब ....सब जानती हूँ।
जानते हो न! जीवन में समय बहुत आगे बह चुका। तुम बार बार वापस वहां मत जाया करो। और जाते भी हो तो बस हमारे आपस के उस विश्वास और साथ की सरलता को देखना। सच लिखूँ! मैं अतीत में कभी नहीं जाती। वैसे भी मुझे पसंद ही नहीं उन सभी बातों,नातों,लोगों को याद करना जहां वापस जाना मुमकिन नहीं । कठोर लगती हूँ न ! मगर हाँ, जब कभी तुम बात छेड़ते हो तो मैं बस वही "साथ और विश्वास" की खूबसूरती को देख मुस्कराती हूँ। मैं तुम्हारी कोमल भावना की उपेक्षा या निरादर नहीं करती। बात बस इतनी सी है कि वो उम्र का एक दौर था जिसे तुमने जिया और मैं समझ नहीं पाई।
और देखो ये भी क्या दौर है जीवन का, हम दोनोंअपने जीवन मे कितना खुश हैं। जो पास है उसमें कितने संतुष्ट है। कितना खुश होते हैं हम दोनों एक दूसरे के जीवन मे आती खुशियों से।जो कुछ मिलता, जुड़ता जा रहा है वो भी तो हमे जीवन को समझा रहा है।
वाकई मैं यही मनाती हूँ कि ईश्वर की कृपा सब पर ऐसे ही बनी रहे। ये कृपा ही तो है कि हम आज भी जब चाहे खुले मन से एक दूसरे से साफगोई से मन की बात कह पाते हैं। वरना न तुम बात छेड़ते न मैं कह पाती।
खुश रहना, खुश रहूंगी।
