जनवरी की वो सर्द रात
जनवरी की वो सर्द रात
जनवरी माह की वो सर्द रात। मुनिसिपल अस्पताल का जच्चा- बच्चा वार्ड भी मानो ठंड की चादर ओढ़े शांत सा पड़ा था। यह एक छोटा अस्पताल था। जिसमें केवल एक वार्ड। और उस वार्ड में केवल दस बेड थे। जिसके एक बेड पर मै अपनी नवजात बेटी, जिसका जन्म आज सुबह हुआ
था, के साथ लेटी थी। बाकी सभी बेड खाली थे। एक डॉक्टर व नर्स भी सर्दी के कारण अपने कमरे में थे। मुझे नींद नहीं आ रही थी। खिड़की से बाहर धुंध की एक चादर सी पसरी हुई थी, कुछ दिखाई ना देता था। बीच बीच में पेड़ों की सरसराहट व कुत्तों के भोंकेने की आवाज़ शांति भंग कर देते थे। तभी अहाते में एम्बुलेंस के रुकने की आवाज़ सुनाई दी।
एम्बुलेंस के रुकते ही मेरा ध्यान भी दरवाज़े पर टिक गया। एक गर्भवती महिला अपने पति व दो बच्चियों के साथ करहाती हुई अन्दर दाखिल हुई। दोनों डॉक्टर के कमरे में चले गए और बच्चियां वहीं बेड पर बैठ गई। कुछ देर बाद वह आदमी एक पर्चा लेकर बाहर निकला और बच्चियों को लेकर चला गया। नर्स ने उस महिला को एक इंजेक्शन लगाकर बेड पर लेटने की हिदायत दी और कहा , " डिलीवरी में अभी कुछ समय है।" फिर वह अन्दर चली गई। वह महिला देखने में मुझे मजदूर लग रही थी। तभी तो प्रसव पीड़ा को भी कैसे सहजता से सहन कर रही थी। उसे देख मेरा दिल सहानूभूति से भर गया। मुझे ध्यान आया कल रात जब मैं इस पीड़ा से गुजर रही थी तो कैसे मेरा परिवार मुझे संभाल रहा था।
अपनों का साथ हो तो पीड़ा कुछ हद तक कम हो ही जाती है। लेकिन यह महिला इस असहनीय पीड़ा को कैसे अकेले ही अन्दर ही अन्दर जज्ब कर रही थी, मैं आश्चर्यचकित थी। शायद उसे अपने जीवन में इससे ज़्यादा दर्द मिला हो या मेहनत मजदूरी ने इसके शरीर को इतना कठोर बना दिया हो की यह पीड़ा उसके आगे कुछ ना हो। मेरे विचारों की तंद्रा उसके पति व बच्चियों के आने से टूटी। वह उसके पास ना रूक सीधा डॉक्टर के पास चला गया। बच्चियों अपनी मां से लिपट गईं। किन्तु उस महिला ने उनके लिए कोई भाव ना दिखाया।
तभी वह कमरे से बाहर निकला, उसकी ओर बिना देखे व बोले बच्चियों को लेकर बाहर निकल गया। मुझे उस महिला व उसके पति का व्यवहार कुछ रुखा सा लगा। किन्तु अगले पल ही मुझे विचार आया कि शायद वह दर्द में है। इसलिए बच्चियों की ओर ध्यान ना दे पाई हो। हां, ऐसा ही होगा! नहीं तो कौन मां अपने बच्चो को प्यार ना करती होगी।
लेकिन इसका पति कैसा हृदय हीन है। अगर दो घड़ी इसके पास रूक जाता तो इसे कितनी तसल्ली मिलती। परन्तु पुरुष समाज इस पीड़ा को कहा समझता है। उसके लिए तो संतान उत्पन्न करना भी नारी का एक दायित्व है। तभी नर्स बाहर आयी और उसे लेकर अन्दर चली गई। मैं भी अपनी बेटी को आगोश में लेकर लेट गई। विचारों में मगन कब मेरी आंख लग गई पता ही ना चला। वार्ड में शोरगुल सुन मेरी नींद खुली। घड़ी में चार बजे थे, बाहर अभी भी धुंध छाई थी। तभी नर्स उस महिला पर फिर से चिल्लाई। मैंने उस ओर देखा, उसके पास एक बच्चा लेटा था शायद देर रात इसका जन्म हुआ होगा। तभी डॉक्टर भी बाहर आ गई । उसने नर्स से हंगामे की वजह पूछी। नर्स उसी आवेग में बोली, " देखिए मैडम कैसी मां है ये ?
इसने बच्ची का क्या हाल किया ? खुद दोनों कम्बल ढक कर सो गई और इसे ठंड में मरने के लिए छोड़ दिया।" डॉक्टर ने बच्ची को चैक किया। डॉक्टर के चेहरे पर चिंता साफ नजर आ रही थी। उसने बच्ची को अन्दर लाने को कहा।
"अरे मारना ही था तो पैदा क्यों किया था ? ऐसे नहीं मारेगी ये।"
नर्स यह कहते हुए बच्ची को लेकर चली गई। वह महिला अब भी वैसे ही जड़ थी। निर्लिप्त, शांत। उसके इस कुकृत्य ने मेरे हृदय में विचारों का झंझावात फिर से उठा दिया उसके प्रति मेरी सहानुभूति अब घृणा में बदल चुकी थी।
कैसे कोई मां इतनी निष्ठुर, संवेदनहीन हो सकती है ? क्या इसकी कोई मजबूरी थी ? थी भी तो क्या इस नन्ही जान के प्राणों से बढ़कर थी? यह महिला मंदबुद्धि तो नहीं? मैं इन सबके जवाब उससे चाहती थी और इसके लिए शब्द तलाश ही रही थी कि नर्स बाहर आई। उसपर एक हेय दृष्टि डाल बोली , " बच्ची की हालत नाज़ुक है। उसे बड़े अस्पताल लेकर जाना होगा।" सायरन बजाते हुए एक एम्बुलेंस फिर आहते में रुकी। शायद इस बच्ची के लिए अायी होगी। तभी उसका पति भी अन्दर आया। इस बार बच्चियां उसके साथ नहीं थी। बड़ी बेरुखी से उसने नन्ही बच्ची को उठाया और महिला को घूरते हुए बाहर निकल गया। महिला बिस्तर से उठी। पहली बार उसने मेरी ओर देखा। मुझे उसकी आंखों में पीड़ा व बेबसी के भाव दिख रहे थे।
मैं कुछ कहती उससे पहले ही उसने अपना मुंह फेर लिया और लड़खड़ाते हुए कदमों से बाहर की और चल दी। मैं निस्तब्धता से उसे जाते हुए देखती रही।