जंगली फूल

जंगली फूल

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धूल मिट्टी से लथपथ कुछ कच्चे-पक्के टेढ़े मेढ़े रास्ते से, आड़ी टेढ़ी चलती चुनरी को घाघरी में समेटती, खलिहानों को ठेकती...

चारा बटोरती घरवाले को झूठ-मूठ कोसती, चिल्लाती चली आ रही नंगे फ़टे पैरों पे दौड़ती झुमरी...

ओ कजरी,ओ भौजी अरी ओ सीता मौसी जल्दी से सारी औरतों को जमाकर कुँए के पिछवाड़े आओ, इस रामजी की घरवाली को दर्द उठा है लगता है शहर की अस्पताल तक नाहीं पहुँच पावेगी।

रानी दर्द सहती पेट को पकड़े हिम्मत से होठों को दाँतों तले दबोचे शान से चलती झट से कुएँ के पिछे घास के बिछोने पर लेटती दर्द लेने लगी।

ससुरी आ गई सब ? ए कलमुँही कमला तू अपनी चुनरी उतार ओर तनिक पर्दा कर दे।

सारी औरतें पास-पास एक दो चुनरी फैलाये खड़ी हो गयी। ज़ोर लगाओ बच्चा अभी हो जावेगा ओ साँवरी मूई जाके कुँए से पानी सींच के ला तो।

बस बस लियो ये सर निकल आया तनिक ओर जोर लगा.....उंवाँ उंवाँ इ ले रानी तोहार बिटवा हुआ है ले राधा बचवे को नहला दे।

रानी थोड़ा आराम कर ले फ़िर हम सबके साथ घर चली आना। रानी भी मानों कुछ ना हुआ हो उठाया बच्चा चल दी तुनक कर। हफ्ता भर थोड़ी सुस्ताय ली फ़िर चल दी काम पे पगली...

एक दुनिया ये भी है जिसे ना बड़ा अस्पताल चाहिये, ना गद्दा बिस्तर, जंगल या खेत खलिहानों में भी बच्चे पैदा कर लेते हैं...

है दम किसी शहरी लड़की में या है इतनी हिम्मत ?

हाँ हम जानते है की सबकी परवरिश अलग अलग ढंग से अलग अलग तरीके से होती है पर बात यहाँ हौसलो की है....

है तो वो भी इंसान उसे भी उसी प्रकार दर्द होता है उसी प्रकार तकलीफ़ होती है..

पर इसकी पीर किसको नज़र आती है जंगल के फूलों को भी चाह होती है बगियन की, पर हाथों में लकीर नहीं होती गद्दे की।


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