जाको राखे साइयां .....।
जाको राखे साइयां .....।
अक्सर सुना है लेकिन मतलब उस दिन समझ आया जब जोखिम में जान थी और बचाने वाला एक अदना सा रूप में ईश्वर प्रकट हुए । हां वो ईश्वर का ही प्रतिरूप रहा होगा जिसने मेरे रक्षा की, एक बच्ची के पिता की रक्षा की, एक वृद्ध माता-पिता के सपूत की रक्षा की सिर्फ इतना ही नहीं देश के एक सैनिक की रक्षा की ।
जहां बम ब्लास्ट हुआ था वहां का दृश्य देखने वालों का दिल दहल गया था । एक एक इंच के टुकड़ों में बिखर गया था उस हाॅल का सारा सामान । कुछ जल भी चुका था । बिजली कट गई थी । चारों तरफ अंधेरा और सिर्फ अंधेरा छा गया था । सन्नाटा ऐसा जैसे गहन विरानी हो । लगभग बीस मिनट बाद सुबेदार साहब उठ खड़े हुए और अपनी वर्दी को यूं झाड़ने लगे जैसे साधारण सी धूल मिट्टी लग गई हो । खड़े होकर देखने लगे नरेन्द्र को वो कहां चला गया ? कहीं ऐसा तो नहीं मुझे बचाने में वो ..... नहीं नहीं दूसरों का भला सोचने वालों के साथ कभी बुरा नहीं हो सकता । यही कहीं होगा, अपने मन को समझाते हुए चारों तरफ नज़र दौड़ाई । दिखाई दे गया थोड़ी दूर पर वो भी लेटा हुआ था । अगला आदेश आने तक उसी पोजीशन में रहना था उसे । जल्दी ही आदेश मिला और सब बैंकर में पहुंच गये । वहां पहुंच कर सुबेदार साहब ने नरेंद्र से पूछा तुमने ऐसा क्यों किया ?
"साहब कुछ नहीं बस आपको चाय पिलाने का मन हो रहा था ।" "सिर्फ चाय पिलाने का मन हो रहा था ?" या "मेरी जान बचाने का मन हो रहा था ?" जी, साहब पता नहीं क्यों मेरा मन हुआ आपको बाहर बुला लूं ।
बाहर का माहौल सहज हो गया तब सब लोग डाइनिंग हॉल में पहुंचे । सारे रिपोर्ट मिल गये थें । कुछ खास नुकसान नहीं हुआ था । सभी सैनिक सुरक्षित थें दफ्तर में कुछ नुकसान जरूर हुआ था । क्यू आॅफिस पूरा का पूरा खाक हो चुका था । जहां विराजमान थे एकमात्र सुबेदार साहब । बिजली कट चुकी थी फिर भी कुछ बहुत जरूरी काम था जिसे निपटा कर ही उठना चाहते थें और इतना बैक अप तो मिल ही जाता की वो काम पूरा कर सकें । लेकिन नरेन्द्र ने जबरदस्ती करके सुबेदार साहब को चाय पिलाने के लिए बाहर ले जाना चाहता था । बेमन से लगभग खीझ कर उठे थे जोर से कुर्सी पीछे ढकेल कर दरवाजे तक पहुंचें ही थें की जोरदार धमाका हुआ । बड़ी फुर्ती से जमीन पर लेट गये और थोड़ा घसीट कर और आगे को बढ़ लिए थें । पिछे मुडकर देखा तो लगा एक पल जो रूक गये होते तो कंप्यूटर और टेबल कुर्सी के साथ निपट गये होते ।
ढ़ाई महिने की बच्ची को छोड़कर आया था । उससे बात भी नहीं कर सकता हूं । यूं तो हम हर पल अपनी जान कुर्बान करने को तैयार रहते हैं । लेकिन जब देखा मौत को करीब से तब जिंदगी की अहमियत समझ में आई है ।
"जाको राखे साइयां मार सकें न कोय " ईश्वर की मर्जी थी कि घर लौट कर अपनी बिटिया रानी के साथ खेलूं बात करूं इसीलिए बाल बाल बच गए।
