इरा
इरा
आज बहुत खूश थे कि आज की शाम इरा के साथ चाय पीयेगेंऔर खूब ढेर सारी बातें करेगें।
बहुत दिन बाद मिलना होगा इरा के साथ। असल में इरा हमारी दीदी की सहेली थी। शाम का समय था हम और इरा दीदी दोनों बात करते हुये चले जा रहे ठंडी ठंडी हवा चल रही थी, पता ही नहीं चला कि हम कब इरा के दरवाजे पर पहुँचें। दरवाजा काफी देर तक खटखटाया तब जाकर अंदर से झुझलाती सी आवाज आयी। कौन है ?
एक लडके ने आकर दरवाजा खोला, हम दोनों हँसते हुये बोले अरे देखो कौन ? अरे हमलोगों को देखते ही लगभग काँपते हुयें अंदाज में बोली कि आप लोग चले जाओ तुंरत चले जाओ, नहीं तो यह हमको फिर से मारेंगे।
अरे, हम लौग चौंकने तथा अपमान का मिलजुला सा भाव अनुभव करते हुये वहाँ से चले आये। इरा कोई कम आयु की महिला नहीं वरन अधेड़ महिला है। फिर भी अपने लिये लड़ काहे नहीं पा रही है या मान आपमान सब भूला कर पशु समान जीवन बिता रही है। यह तो वही बता सकती है। अगर आजाद देश के आजाद नागरिक ही अपनी आजादी को ना समझ पाये तो जीवन ही बेकार है।