इंसान
इंसान
शकुंतला अपने पति अमरेन्द्र जी और अपनी दो बेटियों के साथ पटना जंक्शन पर बक्सर जाने के लिए सवार हुई।
माँ यहाँ सब बैठते हैैं, गाड़ी में अभी भीड़ कम है न माँँ
--श्रुति,शकुंतला की बड़ी बेटी बोली।
अमरेन्द्र जी-सब कोई यही बैैठ जाते है।अभी गाड़ी छूटने में देर है।भीड़ हो जाएगी।
इतना कह कर वे एक बगल की खिड़की वाली सीट पर जा बैठे।
शकुंतला अपने दोनो बेेटियों श्रुति और स्नेहा के साथ बगल मेें जगह पर बैठे।
शकुंतला-आप भी यही पर आ जाईए न,सब साथ होंगें,भीड़ मेें तकलीफ होगी।
उसने यह बात अमरेन्द्र से कही।
सुुुनिए यहीं बच्चों के पास आकर बैठिए-उसने फिर कहा।
अमरेन्द्र जी-आराम से बैठो,मैैं यहाँ ठीक हूँ।
अब तक गाड़ी छूटने का समय हो चला था और गाड़ी मेें भीड़ की धक्का धुुुुक्की चरम पर आ गई थी।शकुंतला
अपने बच्चों को संभाले चुप बैठी थी,अमरेन्द्र जी भी चुप थे।
गाड़ी खुली लेकिन भीड़ एक दूसरे को रौंदने को तैयार थी।
पाँच जने के बैठने की जगह पर शकुंतला अपने बच्चों के साथ छः जनो के धक्के झेेल रही थी।
उसने अमरेन्द्र जी से कहा-सुनिए,स्नेहा को अपने साथ बिठा लें,बड़ी परेशानी है।
अमरेन्द्र जी- हाँ दो उसको मुुझे,आराम से बेठो।
गाड़ी कुछ पल के लिए दानापुर में रूकी।कुछ लोग गाड़ी
से उतरे,कुछ मुसाफ़िर पुनः साथ थे। शाम में साढे सात बज रहे थे।
दाानापुर से सवार एक यात्री कुछ दर्द से बहुुत तकलीफ में नजर आ रहा था,यह बात शकुंतला ने अपने आप भांप ली।
गाड़ी में भीड़ बहुत हो गई थी।बैठने की कौन कहे खड़ा होना भी मुश्किल हो रहा था तब।
अचानक उस बीमार से लगने वाले व्यक्ति ने कहा-मैं एक पुलिस का सिपाही हूँ।कल से बुखार मेें तप रहा हूँ।आज
घर जाना चाह रहा था,अपने परिवार के साथ।
कोई उसकी नही सुुन रहा था।सब को अपनी अपनी फिक्र थी।
उसने फिर कहा-कोई थोड़ी जगह दे मुझे बैठने दे,खड़ा हुआ नही जा रहा।बड़ी कृपा होगी आप सब की।
किसी ने उसकी बात पर कोई ध्यान नही दिया।
वह बेचैन,चुुप खड़ा था।ऐसा लग रहा था कि वह अगले
कुुछ पल में जमीन पर गिरने ही वाला हो।
शकुंतला चौंंक गई इस स्थिती को देखकर।उसने अपने पति अमरेन्द्र जी की ओर देखा।उन्हें आवाज दी।पर भीड़ के कारण यह संभव न हो सका।
शकुंतला धक्का देकर किसी तरह एक आदमी के बैठने के लिए जगह बना लेेेती है।
शकुंतला-आईए,आप यहाँ बैठ जाईए।आपको आराम मिल जाएगा।
वह व्यक्ति थके कदमों के साथ शकुंतला के बगल वाली सीट पर निढाल बैठा।
तबियत उसकी बिगड़ती जा रही थी।उसकी बेचैनी बढ रही थी।ऐसा लग रहा था कि उसे साँस लेेेने में भी परेशानी हो रही थी।
शकुंतला यह सब देख रही थी।उसने पूछा-आप ठीक हैैं न।
व्यक्ति ने जवाब दिया- जी,आपपपका बहुत शुक्रिययययय,कहते कहते वह बेहोश हो गया।
उस बोगी में सब मौन थे।अमरेन्द्र जी चुप थे।सब उस बीमार को घूूर रहे थे बस।
शकुंतला चुप न रह सकी।वह उठी- श्रुति पानी का थर्मस
दो और एक तौलिया।
श्रुति और स्नेहा दोनो माँ केेे साथ खड़ी हो गई।
शकुंतला ने पानी के छीटें उस व्यक्ति के मुँँह पर मारे और
भींंगे तौलिया से उसकी हथेेली और तलवा पोछे।
माँ को यह सब करते देेख श्रुति और स्नेहा भी उस बीमार का सिर सहलाने लगे, पीठ पैैैर धीरे धीरे दबाने लगे।
उस व्यक्ति की तबियत धीरे धीरे संभलने लगी।बेचैनी कम हो गई।वह शांत हो गया।
थोड़ी देर बाद उसने आँँखे खोली।
शकुंतला श्रुति और स्नेेहा संंग अब भी उसकी तीमारदारी
मेें जी जान से लगी है।
उसकी आँखे भर आई।वह जान सका की इस भीड़ मेें
उन बहनों ने उसकी जान बचा ली है।
वह शकुुंतला के पैरों पर सिर रख सुुुबकते हुुए बोला- दीदी आप मेरे लिए भगवान हैं।जीवन के किसी भी पल
मेें मेरी जरूरत हो तो मुझे बताए।यह जान अब आपका।
शकुंतला बोली- यह आप मत कहिए।जो मैने किया एक
मानव का धर्म था,भैयाजी। आप कृप्या घर जाए और
आराम करें।
उस व्यक्ति ने हाथ जोड़े, झुुक कर श्रुति,स्नेेेहा को ढेरों आशीर्वाद दिए और पुनः शकुुंतला के रोकते रोकते उस
औरत के कदमोों में झुुक गया।
शकुंतला के कुछ कहने के पहले वह बोला- इंंसान होने का अर्थ अब आपसे और आपके बच्चों से ही सीखा।
इस खचाखच भरे बोगी मेें इंंसान तो शकुंतला और उसकी बेटियाँ है।ये सच्चे इंंसान है।
वह फिर से शकुंतला के पैर पर झुका।दोनो बच्चों के सिर
पर हाथ से सहलाया।
कृृृतज्ञता का भाव चेहरे पर छाया था।
"हैरान न हो,घर पर आराम किजिए,ठीक हो जाऐंगेें"-शकुंंतला ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
"आप मानव रूप मेें देवी हैं दीदी,मैैं आपका यह स्नेह
ताउम्र न भूूल पाऊँगा।यह मेरा परिचय पत्र है,आप रखिए।इस भाई की जब जरूरत हो,याद कर लिजिएगा"-
उस व्यक्ति ने धीरे धीरे सब बातें कही।
मानव की जीत हुई।मानवता की जयकार हुई।
