STORYMIRROR

Vishaljeet Singh

Abstract Inspirational

3  

Vishaljeet Singh

Abstract Inspirational

इन्सान और जानवर

इन्सान और जानवर

3 mins
291

"सर्दियां आने को हैं" पहाड़ों पर गिरी बर्फ को देख कर उसने अनुमान लगाया। गाड़ी धीमी रफ्तार से ढलानों के तीखे मोड़ों को पार करते हुए आगे बढ़ रही थी। लंबे सफर के कारण थकान महसूस हुई तो सोचा रास्ते में किसी ढाबे पर थोड़ी देर सुस्ता लिया जाए। कुछ देर बाद सड़क के बगल में पहाड़ के बढ़े हुए हिस्से पर एक छोटा सा ढाबा दिखा। ढाबे के पास ही एक छोटा सा मंदिर भी बना हुआ था। मंदिर के आस पास उगी हुई घास के कारण मंदिर काफी पुराना लग रहा था। ढाबे के बाहर मूँज की चारपाइयां बिछी थीं। उन्हें देखकर उसका वहीं रुकने का मन किया। "आज कल ये चारपाइयां भी कहाँ देखने को मिलती हैं" हंसकर उसने अपने मित्र से कहा। गाड़ी से उतर कर उसने ज़ोर से अंगड़ाई ली ताके शरीर की अकड़ाहट कुछ कम हो।


"मैं दो कप चाय के साथ कुछ खाने के लिए लेकर आता हूँ बड़ी भूख लगी है" मित्र कहते हुए अंदर चला गया। ढाबे पर इक्का दुक्का लोग ही थे। पहाड़ की ढलान के नज़दीक एक चारपाई बिछी देख वो उसके ऊपर आ कर लेट गया। "ओह.. कितना सुकून मिला रस्से की बनी इस चारपाई पर। ऐसा सुकून तो शहर की महंगे बिस्तरों पर भी नहीं। शायद सफर की थकान है" उसका चारपाई पर से उठने का बिल्कुल भी मन नहीं था। एक अजब सी शांति थी उस जगह में। धीमी धीमी चल रही पहाड़ी हवाओं में कुनकुनी सी सर्दी महसूस हो रही थी। ढलते हुए दिन का डूबता सूरज बहुत मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। पर वो तो पीठ के बल लेट हुआ एकटक नीले गगन में चहचहाते हुए पक्षियों को अपने घरों की ओर जाते हुए निहार रहा था। कहीं दूर से छोटी छोटी घंटियों का मधुर संगीत उसके कानों में सुनाई दिया।

बकरियों का एक झुंड मंदिर की घास को देख कर उसकी और तेज़ी से बढ़ता हुआ आया और चरने लगा। पीछे से एक बूढ़े बाबा डंडे से उन्हें हांकते हुए चले आये। सिर पर नमाज़ वाली टोपी और बढ़ी हुई सफेद दाढ़ी। उम्र के इस दौर में भी बाबा की फुर्ती देखते ही बनती थी। बाबा ने एक नज़र उसकी तरफ अंजान नज़र से देखा और फिर उसकी चारपाई से थोड़ा सा दूर साफ सी जगह देख कर बैठ कर बकरियों का इंतज़ार करने लगे। समय गुज़ारने के लिए उसे बाबा के साथ कुछ शरारत करने का मन बनाया। 

"बाबा ज़रा ध्यान दें..आपकी बकरियां हिंदूओं के मंदिर की घास चर रही हैं" उसने चुटकी ली। बाबा ने एक पल उसको देख कर बकरियों की ओर देखा और हल्की सी मुस्कुराहट से बोले "जानवर हैं..(हंसते हुए)... ये फर्क करना नहीं जानते" बाबा के जवाब से उसके चेहरे पर बिखरी शरारत भरी मुस्कान गायब हो गयी। कुछ पल वो किसी सोच में डूब रहा। जब तक वो अपने ख्यालों से आज़ाद हो पाता "चाय तैयार है जल्दी आ जाओ वार्ना ठंडी हो जाएगी" मित्र ने उसे आवाज़ दी। उठ के वो अंदर की और जाने लगा। जाते हुए उसने पीछे मुड़ कर बाबा और उनकी बकरियों की एक आखिरी बार देखा। बकरियां मंदिर की घास चर के फुदकते हुए बाबा के आगे आगे तेज़ी से जा रहीं थी। उनकी गर्दन में लगी छोटी छोटी घंटियों का मधुर स्वर उसे किसी मंदिर की घंटियों से कम नहीं लग रहा था।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract