घर वही था… आँगन वही… पर अब वो आवाज़ें बदल गई थीं।
आशा, जो कभी पूरे घर को सँभालती थी, आज बीमारी से बिस्तर पर थी। कमज़ोरी ने शरीर तो थका दिया था… मगर आत्मा अब भी जिंदा थी।
राधा, उसकी सास, दिन-भर तानों की मशीन बनी रहती थी।
राधा (कड़वे शब्दों में):
"बीमार हो? तो घर क्यों बैठी हो? औरत की असली परीक्षा तो तभी होती है जब वो थकी हो!"
आशा की आँखें भर आईं… पर जवाब न दिया।
किचन की चौखट पर खड़ा था दीपक — उसका पति।
अब तक तो वो माँ के हर कहे पर चुप रहता था। पर आज कुछ बदल रहा था…
उसकी नज़रों में आँसू थे, पर इस बार पत्नी के लिए।
वो धीरे से अंदर आया, माँ के सामने खड़ा हुआ।
दीपक (गंभीर स्वर में):
"माँ… आपने सिखाया था कि औरत घर की इज़्ज़त होती है।
फिर आज आप ही अपनी बहू की इज़्ज़त क्यों छीन रही हैं?"
राधा स्तब्ध थी।
दीपक:
"जब तक आशा ठीक नहीं हो जाती, वो एक पल भी इस घर का बोझ नहीं उठाएगी।
अगर किसी को बोझ लगती है… तो मैं खुद उसे मायके छोड़ आता हूँ… सम्मान के साथ!"
अगले ही पल दीपक, आशा को उठाकर बाइक पर बैठा चुका था।
गाँव की गलियों में बाइक की आवाज़ से ज्यादा चर्चा उसके साहस की थी।
सासुमा... खड़ी रह गईं। और आशा...?
आज उसकी आँखों में पहली बार इज़्ज़त की नमी थी... दर्द की नहीं।