हर फिक्र को धुएँ मे उड़ा

हर फिक्र को धुएँ मे उड़ा

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जगतकमल नाम का एक मस्त मौला किस्म का आदमी, जिसे लोग `जग्गू' के नाम से बुलाते थे, वह अपने दो कमरों के मकान में अकेले रहता था। मकान क्या था, वो तो सिर्फ सर ढकने की छत थी। कमरे की दीवारों में से ईटे झाँकने लगी थी। खिड़की और दरवाज़े न जाने कौन, कब चुरा कर ले गया, जग्गू को खबर ही नहीं और न ही कभी कोशिश की उसने कुछ पूछताछ करने की, वो तो बस अपनी ही धुन में जीता था। 

सुबह सात बजे उठना और तैयार होकर सामने वाले कीकू चाचा की चाय की टपरी पर चाय की चुस्की लेना। 

उसके बाद पास ही में रोड़ पर बने सरकारी दफ्तर में चौकीदार की नौकरी करना, फिर रात को घर आते हुए बाजार से खाना ले आना और खाते ही, अपने टूटे फूटे रेड़ियो पर दिल खुश गीत सुनते हुए बीड़ी पीना, और फिर सो जाना। बस इतनी ही तो थी जग्गू की दिनचर्या । लेकिन ये जग्गू और उसकी जिंदगी हमेशा से ऐसी नहीं थी। जग्गू का वो टूटा फूटा छप्परी मकान, कभी खुश नुमा जिंदगीयों का प्यारा सा घर था और जग्गू तब जगतकमल हुआ करता था 

जगत के पिताजी उसे बहुत प्यार किया करते थे। वे एक रिटायर्ड पुलिसकर्मी थे। जगत की माँ, भले सौतेली थी लेकिन सगी माँ की तरह जगत की हर खुशी का ध्यान रखती थी। जगत उस समय एक टीचर था। जगत की पत्नी उमा, थोड़ी गुस्सैल और लापरवाह औरत थी। उमा ने अपने सास ससुर की कभी सेवा नहीं की बस सारा दिन घर के बाहर बैठकर लड़के लड़कियों से बतियाती रहती थी। जगत की खुशी, उसका नन्हा मुन्ना प्यारा सा बेटा था। शाम को नौकरी से आकर जगत अपने माँ बाबूजी और बेटे के साथ बैठकर अपनी पूरी थकान उतार देता। एक दिन जब जगत नौकरी से घर लौटा तो जगत के माँ बाबूजी घर पर खून से लथपथ ज़मीन पर पड़े थे और जगत का आठ महीने का बेटा, उन बुजुर्ग दम्पति की लाश के पास बैठा रो रहा था। दरअसल, जगत की पत्नी उमा अपने सास ससुर का खून करके वहाँ से सारा सोना और पैसा लेकर भाग गयी थी। जगत की हँसती खेलती दुनिया एक पल में लुट चुकी थी। अब जगत की जिंदगी का एकमात्र सहारा था उसका बेटा। 

मगर जिंदगी को जगत से और भी कुछ लेना बाकी था, जगत का आठ महीने का बेटा, किसी बड़ी बीमारी की वजह से जगत को अकेला छोड़कर इस जिंदगी से जा चुका था। जगत बुरी तरह टूट गया था मगर जिंदगी का साथ देने की जो कला जगत के बाबूजी ने जगत को सिखाई थी, जगत उसी रास्ते चलने लगा। 


अगले ही दिन, जगत फिर से नौकरी पर जाने लगा। सब कुछ भूला कर जिंदगी को हर हाल में जीने की कोशिश करने लगा। मगर टीचर की जॉब करते हुए न जाने क्यूँ जगत को छोटे बच्चों में अपना बेटा याद आने लगा। जगत ने वो नौकरी छोड़कर घर के ही पास कोई साधारण सी नौकरी करना शुरू किया। 

इस घटना को सात साल बीत गये। इन सात सालो में जगत ने किसी बात पर ध्यान नहीं दिया न अपनी सेहत पर, ना घर की हालत पर। अब वो समय का पाबंद रहने वाला, एक नियम अनुसार जीवन जीने वाला जगत कहीं पीछे छूट चुका था। अगर अब कोई था तो था सिर्फ जग्गू। उसके घर के सामने कीकू चाचा की बेटी जो बचपन से जग्गू को देखती आई थी, उसने आज कीकू चाचा से जग्गू की कहानी जानकर जग्गू से पूछ ही लिया, 

`जग्गू भैया, आप पढ़े लिखे है, अच्छी नौकरी भी कर सकते है एक अच्छा घर भी ख़रीद सकते हैं फिर इस टूटे फूटे मकान में क्यूँ रहते है और क्यूँ अपनी जिंदगी इस तरह बीड़ी पीकर खराब कर रहे है। आये दिन कुछ न कुछ चोरी हो जाता है आपके खुले मकान से, आपको कोई फ़िक्र है या नहीं। '

`ये टूटा फूटा मकान.... मुझे मेरे अपनों के साथ बिताये गये वो खुशी के पल याद दिलाता है जो मेरे तन्हाई के ग़म से ज्यादा कीमती है। और कोई क्या चोरी करेगा यहाँ, मेरी मीठी अनमोल यादें तो मेरे पास ही है। '

अपनी बात खत्म करके जग्गू बीड़ी पीते हुए वहाँ से निकल गया और तभी कीकू चाचा की चाय की टपरी पर लगे रेडियो में गाना बजता है -

`मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया 

हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया

हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ा.. '


दोस्तों, हम औरतों के बारे में काफी कुछ लिखते है और सही भी है, औरत अपने आप में ही सशक्त होती है। लेकिन कहीं न कहीं कोई एक ऐसा मर्द भी होता है जिसे जिंदगी ने ग़म दिये मगर फिर भी वो आगे बढ़ता रहा। ये कहानी ऐसे ही एक आदमी की है। 


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