Aditi Jain

Romance Tragedy

4.0  

Aditi Jain

Romance Tragedy

"हमेशा-हमेशा" - 3

"हमेशा-हमेशा" - 3

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अब्बू के साथ घर पहुँची शमा किसी मशीन की तरह अम्मी से मिली और सीधे अपने कमरे में चली गयी। 'उसे अपने अतीत के हादसों से उबरने के लिए कुछ वक़्त चाहिए' ऐसा सोचते-सोचते जब काफ़ी वक़्त बीत गया और शमा की चुप्पी नहीं टूटी तो कुरैशी साहब ने शिमला में बस चुके अपने दोस्त को बुलाने का सोचा। उन्होंने पूजा को फ़ोन किया और सब कुछ बताकर इल्तिजा की कि वो अपने पिता के साथ जल्द लखनऊ आ जाए।

अपने दोस्त का मैसेज मिलते ही अग्रवाल साहब ने टिकट्स बुक किए और एयरपोर्ट पहुँच गये। जुब्बड़हट्टी एयरपोर्ट से लखनऊ की फ्लाइट लगभग सवा घंटे की थी। पूरे रास्ते दोनों शमा के लिए फ़िक्रमंद थे। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही अग्रवाल साहब के चेहरे पर मुस्कराहट तैर गयी। पूजा ने देखा तो बोली, "तो आप लखनऊ पहुँचते ही मुस्कुराने लगे?"

"अपने शहर की हवा, माँ की गोद जैसी लगती है। हिल स्टेशन की आबोहवा कितनी भी अच्छी क्यों न हो, अपना शहर आखिर अपना ही होता है।"

पूजा कुछ कहने को हुयी कि उसके फ़ोन पर कैब ड्राइवर का फ़ोन आ गया, वो पिक-अप के लिए पहुँच चुका था।

जाने-पहचाने रास्तों से होते हुए कैब हज़रतगंज में कुरैशी मंज़िल के सामने जा रुकी। न जाने कितने बरसों से ये हवेली इसी शान के साथ खड़ी थी। दरवाज़े पर खड़े गार्ड ने उन्हें पहचान कर फाटक खोला और ख़ूबसूरत लॉन के किनारे चलती हुई गाड़ी पोर्च में जा कर रुकी। अग्रवाल साहब को देखते ही हवेली के मुलाज़िम दौड़े आये और उनका सामान ले अंदर चल दिए। कुरैशी साहब और उनकी बेगम आये और उन दोनों को इज़्ज़त से घर के अंदर ले गये। पूजा सीधी शमा के कमरे में चली गयी।

कुरैशी साहब और अग्रवाल साहब चाय के साथ शमा के बारे में सारी बातें तफ़सील से डिसकस करते रहे।

लंच तक दोनों लड़कियां कमरे से बाहर नहीं निकलीं तो कुरैशी साहब ने बेगम से कहा कि ज़रा देख आयें पर अग्रवाल साहब ने उन्हें रोक दिया।

"भाभी, दोनों बच्चियां काफ़ी अरसे बाद मिली हैं। साथ खेली बढ़ी हैं, बहनों की तरह पली हैं, बहुत कुछ होगा एक दूसरे से बांटने के लिए। बेहतर होगा हम लोग बीच में न पड़ें।"

"बात तो आप सही कह रहे हैं भाई साहब। जो बात आपस में एक-दूसरे से करेंगी वो हमारी मौजूदगी में नहीं कर पायेंगी। बस शमा पहले जैसी हो जाए।" मिसेज कुरैशी कुछ मायूसी के साथ बोलीं।

तभी पूजा आयी और उसने कहा कि अगर बड़ों को बुरा न लगे तो वो शमा के बारे में बात करना चाहती है। अग्रवाल साहब से इशारा पाकर वो बोली, "पापा, शमा ने अपना कॉन्फिडेंस, अपनी जीने की ललक खो दी है। मुझे लगता है कि उसके किसी पैशन की तरफ उसे मोड़ दिया जाए तो उसका मन भी किसी दूसरी तरफ़ लगेगा और वो अच्छा महसूस करेगी।"

"हमसे बेहतर तुम अपनी सहेली को जानती हो पूजा। तुम ही कुछ बताओ उसके इंट्रेस्ट्स के बारे में!" कुरैशी साहब ने उम्मीद भरी नज़रों के साथ पूछा।

"अंकल, पढ़ाई करते वक़्त वो अक्सर कहती थी कि टीचिंग करूँगी और वो भी कॉलेज या यूनिवर्सिटी नहीं बल्कि प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाना चाहती थी। कहा करती थी कि छोटे बच्चे मासूम होते हैं। उनके साथ बिताया वक़्त हमें पाज़िटिविटी देता है और इसी बहाने बच्चों को कुछ अच्छा सिखाकर अपनी तालीम का सही इस्तेमाल करूँगी।"

कुरैशी साहब ने तुरंत कहा कि उन्हें कोई एतराज़ नहीं है। शमा बाहर जाएगी, लोगों में उठेगी बैठेगी, बात करेगी तो धीरे धीरे अपने ख़ामोशी के खोल से बाहर भी आएगी। पर सब जानते थे कि दिन-रात की मारपीट और ज़ुल्मों ने शमा को ज़ेहनी तौर पर थोड़ा कमज़ोर कर दिया था। रात में चौंक कर जाग जाती थी और बहुत डरने भी लगी थी। इसी बात से उसकी अम्मी परेशान थीं कि आखिर नौकरी कैसे करेगी!

उन्होंने बिना देर किए अपनी फ़िक्र ज़ाहिर की, "हम सभी जानते हैं कि शमा की ये हालत सुधर जाएगी, पर लड़की है। ऊँच-नीच कुछ नहीं समझती। घर के बाहर की दुनिया को नहीं जानती। इसकी हालत को लेकर सच्ची-झूठी बातें फैलेंगी और फिर....."

अग्रवाल साहब ने माजरे को समझकर कहा, "मैं आपकी फ़िक्र समझ गया भाभी। आप उसके फ्यूचर के बारे में सोच कर परेशान न हों। वो मेरी भी बच्ची है। पूजा, तुम कह रही हो कि वो पढ़ना चाहती है तो उसे शिमला ले चलते हैं। अपना शिमला में स्कूल है ही जिसकी डायरेक्टर तुम हो, वहीं से शुरुआत कर देते हैं। जैसे ही इसकी हालत थोड़ी बेहतर होगी, वहीं से बीएड भी करवा देंगे।"

"वो सब ठीक है भाई, पर ये जो रातों को उठकर चिल्ला पड़ती है, कांपने लगती है, उस सब का क्या?" कुरैशी साहब का सवाल जायज़ था।

"अरे आंटी! आप कैसे भूल गयीं कि मेरे ताऊजी के बेटे, मानव भैया आजकल शिमला में ही प्रैक्टिस कर रहे हैं। बहुत अच्छे साइकिएट्रिस्ट हैं। शमा का केस वो देख लेंगे। और फिर मैं और मम्मी पापा भी तो होंगे वहां।"

पूरे दो दिन के सोच-विचार के बाद भी जब कोई फ़ैसला नहीं हो सका तो अग्रवाल साहब ने कहा "यार कुरैशी! उसकी ज़िन्दगी का इतना बड़ा फ़ैसला तूने मिनटों में ले डाला था। अब इतना सोच-विचार क्यों?"

"उस फ़ैसले का अंजाम देख कर एक रात भी चैन से सो नहीं पाया। अपनी बेटी का गुनहगार हूँ मैं।"

"तो रोना बंद कर और पश्चाताप कर। उसके जो पर तूने काटे थे, उन पर मरहम लगा और उड़ने दे उसे अपने ख़ुद के आसमान में। मेरी बेटी भी है वो। अपने दोस्त पर तो भरोसा कर सकता है न? और जब जी चाहे आना उस से मिलने, तेरे यार का घर तेरा भी तो घर है न? इसी बहाने शिमला भी घूम लेना।"

कुरैशी साहब अचानक फूट-फूट कर रो पड़े। अग्रवाल साहब ने सहारा देकर उन्हें बैठाया, मिसेज कुरैशी ने पानी का ग्लास पकड़ाया। पानी के दो घूंट गले से नीचे उतारकर कुरैशी साहब ने अपने आंसू पोंछे और कहा, "बेटियां बाप की शान होती हैं। जिगर का टुकड़ा होती हैं। एक रुई के फाहे सी नाज़ुक, नन्ही परी जैसी शमा को जब पहली बार इन बाज़ुओं में उठाया था तो खुद से वादा किया था कि कभी किसी ग़म को इसे छूने भी नहीं दूंगा और देख, ख़ुद अपने हाथों से उसे जहन्नुम में धकेल दिया। आज क्या हाल है मेरी बच्ची का। डरता हूँ कहीं अनजाने में उसके साथ कोई और ज़ुल्म न कर बैठूं। उसके लिए न जाने कितनी रातें जाग-जाग कर दुआएं मांगता रहा हूँ इन दिनों।"

कुरैशी साहब आगे बोल न पाये। आंसुओं और जज़्बातों ने उनके लफ़्ज़ों का रास्ता रोक लिया। बस अग्रवाल साहब की ओर देखा और हाथ जोड़ लिये।

अग्रवाल साहब ने कुरैशी साहब को यकीन दिलाया कि वो शमा का पूजा की ही तरह ख़याल रखेंगे।

आखिरकार काफ़ी समझाने पर कुरैशी साहब और बेग़म साहिबा राज़ी हुए और शमा लखनऊ से शिमला के लिए रवाना हो गयी।


....... To be continued 



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