Aditi Jain

Romance Others

4.0  

Aditi Jain

Romance Others

हमेशा-हमेशा - 5

हमेशा-हमेशा - 5

6 mins
280


पूरा हफ़्ता स्कूल के काम-काज में कैसे गुज़र गया, शमा को पता ही नहीं चला। एग्ज़ाम हो कर हटे थे। रिज़ल्ट और पैरेंट टीचर मीटिंग में वक़्त कैसे गुज़रा, उसे कुछ पता ही नहीं चला। आज संडे था। शमा ने सोचा था कि पूरे हफ़्ते की नींद आज पूरी करेगी। गहरी नींद में बिस्तर पर सोई शमा की नींद लगातार बज रही मोबाइल फोन की रिंगटोन से खुली। अनमने ढंग से शमा ने फोन उठाया और कान पर लगा लिया। 

"हैलो मैडम!" उधर से मानव की उत्साह से लबरेज़ आवाज़ सुनाई दी। 

शमा के चेहरे पर नींद टूटने की खीझ के बावजूद एक मुस्कान तैर गयी। मानव ने उसे याद दिलाया कि आज उन्हें लंच पर जाना था। बारह बज चुके थे और वो डेढ़ बजे उसे पिक करने आने वाला था। शमा फटाफट नहाकर तैयार हुयी और अपने लिए एक कप चाय बनाकर बॉलकनी में जा बैठी। बॉलकनी से उसके अपार्टमेंट को आने वाली सड़क, अपने पिछले घुमाव से पूरी नज़र आती थी। यहाँ इत्मिनान से चाय पीते हुए वो मानव का इंतज़ार कर सकती थी और हमेशा ही करती भी थी। कुछ ही देर में मानव की लाल गाड़ी, काली सड़क के पिछले मोड़ पर चमकी। शमा ने जल्दी से कप सिंक में रखा, फोन और पर्स उठाकर दरवाज़ा लॉक किया और बिल्डिंग की एंट्रेंस पर जा खड़ी हुयी। कुछ ही पलों में वो मानव के साथ उसकी गाड़ी में थी।

मानव काफ़ी खुश नज़र आ रहा था। आज अच्छी धूप खिली थी। जल्द ही एक गार्डन रेस्ट्रां में आमने-सामने बैठ, दोनों ने अपना आर्डर दिया और खाने के इंतज़ार के साथ बातें शुरू हो गयीं। शमा ने मानव से पूछा कि क्या ख़ास बात बताना चाह रहा था वो, पर, जवाब में मानव बस नीचे देख कर मुस्कुराता रहा। कुछ देर में खाना आया, खा भी लिया गया पर मानव यहाँ-वहाँ की बातें करता रहा। शमा से रहा नहीं गया। उसने बनावटी गुस्से से मानव को डाँटा। आखिर उसकी क्यूरिऑसिटी इतनी बढ़ा कर वो मज़े से पनीर टिक्के उड़ा रहा था। शमा के चेहरे पर सवाल देखकर मानव ने बिल पे किया और दोनों फिर से गाड़ी में बैठ गये। 

"तुम लंच पर मुझे कुछ बताने वाले थे, पर नहीं बताया! अब कहाँ जा रहे हैं हम?" शमा ने पूछा।"

"ग्रीन वैली।"

"पर वहां क्यों? बहुत दूर है वो।" 

"सब्र करो। वहां जाकर सब पता चल जाएगा मैडम।"

कुछ ही देर में दोनों ग्रीन वैली पहुँच गये। गाड़ी पार्क कर के दोनों वॉक करने लगे। आज काफ़ी लोग थे यहाँ। कुछ टूरिस्ट्स फोटोग्राफ लेने में बिज़ी थे और बाकी हरियाली को निहारने में। मानव के चेहरे पर एक सौम्य मुस्कराहट थी पर वो ख़ामोश था। शमा की बेसब्री बढ़ती जा रही थी। कुछ देर वॉक करने के बाद मानव थोड़ा सा अलग जाकर फ़ोन पर किसी से बात करने लगा। फिर वापस आकर शमा से कहा, चलो, थोड़ा और आगे चलते हैं। 

झुंझलाती हुयी शमा ने गुस्से में कुछ कहने को मुँह खोला ही था कि एक टैक्सी बिलकुल उनके पास आकर रुकी। एक लम्बा, हैंडसम लड़का टैक्सी से बाहर निकला और शमा का मुँह खुला का खुला रह गया। उतरने वाला शख़्स और कोई नहीं बल्कि अकरम था। मानव ने आगे बढ़कर उस से हाथ मिलाया और पलट कर शमा की ओर देखा। 

शमा को हैरान देखकर मानव मुस्कुराते हुए उसके पास आया और उसके पीछे-पीछे अकरम भी। मुस्कुराते हुए मानव ने कहा, "पिछले हफ़्ते इन्हीं के बारे में बात करना चाह रहा था पर समझ नहीं आया कैसे शुरू करूँ। 

शमा को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है और कैसे! दिल की धड़कन अकरम को देखकर बेकाबू हुयी जा रही थी। दिल दो हिस्सों में बंट गया था। एक हिस्सा कह रहा था दौड़कर अकरम के गले लग जाए और उसे कभी कहीं जाने न दे। और दिल का दूसरा हिस्सा ये सोचकर परेशान था कि इस भूली बिसरी दास्तान में मानव क्या रोल निभा रहा है।

मानव ने शमा की उलझन को दूर करते हुए उसे बताया कि भले ही वो लखनऊ छोड़कर शिमला आ गयी पर कुरैशी साहब और उनकी बेगम हर लम्हा अपनी बेटी के लिए फ़िक्रमंद थे। जब अग्रवाल साहब का घर छोड़कर शमा अपने अपार्टमेंट में आ गयी तो ये फ़िक्र और बढ़ गयी। आख़िरकार पूजा और उसके पापा अग्रवाल साहब के बहुत समझाने पर कुरैशी साहब ने अकरम के वालिद से बात की। उम्मीद के उलट वो शमा और अकरम के बीते कल के बारे में सुन कर बहुत खुश हुए। उनका लाडला, मंझला बेटा शादी से दूर क्यों भागता है, ये राज़ जो उन्हें समझ आ गया था। फ़ौरन दोनों मिले और अकरम को मुंबई फ़ोन लगाया। उसकी रज़ामंदी मिलने पर पूजा को उसका मुंबई का कॉन्टैक्ट नंबर दिया और अग्रवाल साहब ने दोनों को मिलाने की ज़िम्मेदारी मानव को सौंपी।

एक-एक कर सारी कड़ियां मिल चुकी थीं और अब सारी बात शमा के सामने साफ़ थी। उसकी नज़रें अकरम से मिलीं और अकरम उसकी तरफ बढ़ा। अकरम क़रीब आकर उस से कुछ कहने को हुआ पर शमा ठिठककर दो क़दम पीछे हो गयी। इशारे से उसने अकरम को रुकने को कहा। इस रिएक्शन की उम्मीद शायद न तो अकरम को थी और न ही मानव को। दोनों सकपकाए से एक दूसरे को ताकने लगे। शमा ने मानव से कहा वो घर जाना चाहती है और तेज़ क़दमों से गाड़ी की ओर चल पड़ी। हड़बड़ाया मानव कभी उसे तो कभी अकरम को देखने लगा। 

अकरम ने मुस्कुराकर मानव से कहा, "दोस्ती और प्यार में एक बहुत छोटा लेकिन अहम फ़र्क़ है और यही दोनों को अलग करता है वर्ना दोनों ही रिश्ते बहुत प्यारे और ख़ास हैं।"

"और क्या है वो फ़र्क़?" मानव ने पूछा। 

"डॉक्टर साहब, दोस्ती हक़ से सवाल करती है और प्यार सब्र से इंतज़ार करता है। दोस्त से हम जो दिल में आये वो कह डालते हैं, और प्यार, बिना कहे भी सब समझ लेता है।" 

मानव कुछ कहे इसके पहले अकरम ने शमा की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि वो अकेली काफ़ी आगे निकल गयी है, दोनों को चलना चाहिए। शमा गाड़ी में आगे बैठी और अकरम पीछे। विंग मिरर में से शमा का चेहरा अकरम को नज़र आ रहा था। अकरम टकटकी लगाकर उसे देखता रहा। रह-रह कर दोनों की नज़रें मिलतीं और शमा रूख़ बदल लेती। पूरे रास्ते यही चलता रहा। अपार्टमेंट आने पर शमा फटाक से उतरी और बिना कुछ कहे, गोली की तरह दनदनाती हुयी गायब हो गयी। आज उसने पलट कर भी नहीं देखा। मानव को अजीब लगा। 

"यार ये तुम दोनों का सीन मुझे समझ नहीं आ रहा है। दोपहर तक खुश थी। तुमसे मिलकर मुझ पर क्यों भड़क गयी?"

"भड़की नहीं है। जज़्बाती हो गयी है। हमारे सामने रोना नहीं चाहती थी। कमज़ोर नहीं दिखना था न उसे। आखिर पिछले पांच साल से वो, यहां, हर रोज़, ख़ुद को एक झूठ पर एतबार दिलाती है कि वो अकेली खुश है, ठीक है। पहले से मज़बूत है और उसे किसी की कोई ज़रूरत नहीं। आज अचानक उसके झूठ का भरम टूटा है तो उसे तकलीफ़ तो होगी न ये एक्सेप्ट करने में कि हाँ वो अकेली है और उसे भी किसी के साथ की ज़रूरत हो सकती है।" अकरम ने समझाया। 

"हम्म! बात में दम तो है। पर यार अकरम तुम्हें कैसे पता?"

"मुझे?! क्योंकि पिछले सात साल से मैं भी तो यही कर रहा था न ख़ुद के साथ!" कहकर अकरम ने मानव की नज़र बचाकर आँख के किनारे छलकने को बेताब आंसू को हमदर्दी के साथ पोंछ डाला।

क्रमश: 



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