हम साथ -साथ हैं।
हम साथ -साथ हैं।


शहर के अखबारों के मुख्य पेज पर यह प्रकाशित हुआ था कि सखागृह में तीन दिवसीय महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है प्रथम दिवस हस्तकला प्रदर्शनी दूसरे दिन कवि सम्मेलन और तीसरे दिन लघु नाटिका नृत्य संगीत आदि ।
कुछ लोगों को तो पता था किंतु शहर की आधी से ज्यादा आबादी को सखागृह बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जिज्ञासा सबके अंदर हुई कि कहां है? टिकट की अग्रिम बुकिंग हो रही थी ।
ऐसा नहीं था कि शहर में पहला ऐसा कार्यक्रम हो रहा था, इसके पहले भी कार्यक्रम होते रहते हैं ,किंतु सखा गृह नाम अलग से सुनकर उसके बारे में जानने की जिज्ञासा हो रही थी। कार्यक्रम के निश्चित दिन पहले दिन प्रदर्शनी का शुभारंभ दिन के 12:00 बजे से होना था मुख्य अतिथि डी•एम• की माता जी एवं पिताजी मुख्य अतिथि थे। जिनकी डी•एम• साहब को भी बड़ा अचरज हुआ था। जब सखा गृह के सदस्य ने उनसे उनके माता-पिता को मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित करने का निवेदन किया था। जब सखा गृह की सदस्य मीना जी ने अपने मन की बात उनके सामने रखी थी, वह तुरंत सहमत हो गये। प्रदर्शनी में स्टाल के पास कोई युवा युवती या बच्चे नहीं थे बल्कि सभी 65 से 80 पचासी वर्ष की आयु के वृद्ध थे ।
उनके द्वारा बनाई गई हस्तशिल्प कला का आयोजन किया गया था कहीं हाथ से बनी दरियां, तो कहीं पेंटिंग कहीं पंखे धागे और मोतियों से बने बंदनवार और मिट्टी से बनी मूर्तियां और बर्तन संगमरमर की मूर्ति को भी मात दे रहे थे । उनके उचित मूल्य थे कोई अतिरिक्त मूल्य नहीं था। बाहर जाने वाले गेट के पास कुछ लोग बाहर जाने वालों को एक रुमाल के साथ एक पेपर दे रहे थे, जिसे पढ़कर अधिकतर लोग भावुक हो रहे थे। उस पर लिखा था-" आप यहां आए धन्यवाद, ईश्वर आपको खुशियां दे ,आपकी रक्षा करें।"
दूसरे दिन कवि सम्मेलन का आनंद भी सभी ने खूब उठाया । कवि भी वही के वृद्ध थे। तीसरा दिन अंतिम दिन था उस सम्मेलन का। प्रथम कार्यक्रम लघु नाटिका हुई जिसके नायक नायिका वहीं के वृद्ध सदस्य थे। सरिता जी ने श्याम भजन पर नृत्य प्रस्तुत किया।
कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद के लिए मीना जी मंच पर आयीं। उनके साथ शर्मा और पांडेय दंपति भी आये। पत्रकारों की भीड़ लगी थी उन्होंने उनसे कुछ पूछना चाहा तो मीना जी ने कहा -" कृपया जो भी पूछना है यही मंच पर सबके सामने पूछिए।"
एक दैनिक सभा के वरिष्ठ पत्रकार ने कहा -"आप का कार्यक्रम बहुत अच्छा सराहनीय था । अब आप बताइए यह सभागृह का मतलब क्या है ? क्या यह एक वृद्धाश्रम है?" शर्मा जी और सभी ने एक दूसरे को कनखियों से देखा और फिर सबके होंठों पर मुस्कान आ गई । मीना जी जो आगे खड़ी थी उन्होंने कहा - देखिए इसे वृद्धाश्रम ना कहें। हम जितने भी हैं एक दूसरे के सखा , मित्र हैं। यहां कोई भी वृद्धाश्रम की तरह अपने घर वालों के द्वारा जबरदस्ती भेजा हुआ वृद्ध नहीं है । बल्कि हम सब अपनी इच्छा से यहां एक साथ रहते हैं । हम एक साथ मिलकर एक दूसरे की खुशी और गम को बांटते हैं । कुल 20 सदस्यों का यह घर है ।
हम सब खाना एक साथ मिलकर बनाते हैं। कोई नौकर नहीं कोई मालिक नहीं। और इस कार्यक्रम का उद्देश्य मेरे मित्रों की कला को सबके सामने प्रस्तुत करना था। जो सामान बिका उसके पैसे चैरिटी के लिए हैं।" मीना जी ने एकसाथ पूरा वर्णन कर दिया।
तभी दूसरे पत्रकार ने पूछा -" यह सखागृह का विचार किस के मन में पहले आया ? कैसे यह बना?"
सबकी निगाहें मीना की तरफ उठ गईं। संध्या के होंठों पर मुस्कान आ गई। मीना ने संध्या को इशारा किया।
संध्या ने बोलना शुरू किया-" बच्चों के विवाह के बाद अधिकतर के लिए मां बाप बोझ की तरह हो जाते हैं । जिन्हें तिरस्कृत होना पड़ता है या फिर वृद्धाश्रम में जाना पड़ता है। य
ह सोच बहुत दुखी कर देती थी। "संध्या बताते बताते 5 वर्ष पहले पहुंच गई जब उसकी दोस्त मीना एक दिन अचानक बदहवास दुखी सी उनके घर आयीं। उसको अचानक इस तरह देखकर वह परेशान हो गयी। उन्होंने मीना को जबरदस्ती नाश्ता कराया फिर उनके सिर पर हाथ फेरते हुए
पूछा-" क्या हुआ?" इतना सुनते ही मीना की आंखें छलक पड़ी। वो संध्या से लिपट कर रोने लगी। मुझे अपने पास रख लो । जब से पति का स्वर्गवास हुआ है उसके बाद से मेरे लिए घर में जगह नहीं बची। क्या बताऊं संध्या अपने ही बेटे बहू की बुराई करने में भी तकलीफ होती है।" मीना के इतना कहने पर बहुत कुछ संध्या समझ गयी थी। उन्होंने मीना के आंसू पूछते हुए कहा-" ठीक है ,तुम जब तक चाहो यहां रहो।"
इतना सुनते ही मीना , संध्या की तरफ देखने लगी और बोली-" नहीं संध्या जब तक नहीं। बड़ी आशा से तुम्हारे पास आई हूं तुम मेरी मदद करो। मेरा एक प्लॉट मेरे नाम से है सब कुछ तो मैंने अपने दोनों बेटों को दे दिया, लेकिन एक प्लाट बचा है । उसमें एक कमरा बनवाने में मेरी मदद करो।"
मीना को समझाने वाले लहजे में संध्या बोली- देखो अभी तुम गुस्से में भी हो और दुखी भी इसलिए तुम ऐसा कह रही हो ।थोड़ा ठंडे दिमाग से सोचो। वहां अकेले कैसे रह पाओगी? " मीना बीच में ही बोली- इसकी चिंता मत करो मेरे पति ने मेरे अकाउंट में इतना पैसा जमा किया है कि मैं अपना घर बनवा सकती हूं । लेकिन मैं अब वहां नहीं जाऊंगी जहां मेरा कोई महत्व ही नहीं है मेरे लिए कोई जगह नहीं है । मैंने सब सोच समझकर ही कदम निकाला है। प्लीज संध्या मेरी मदद करो।" मीना गिड़गिड़ाने लगी।
मीना को आश्वस्त करने के लिए उन्होंने कहा- ठीक है, मैं करन के पापा से बात करके बताती हूं ।"
संध्या ने अपने पति को पूरी बात बताई और सोच विचार करने के बाद वह मदद के लिए तैयार हो गए । मीना ने अपना एक कमरे का छोटा मकान बनवा लिया। वहीं पास में रहने वाले कुछ गरीब बच्चों को वो पढ़ाने लगी जिससे उनका मन भी लगा रहता और अकेली भी न थी।
अचानक एक दिन मीना बहुत बीमार हो गई । संध्या , उसकी ऐसी हालत देख कर बहुत दुखी हुई। संध्या ने मीना के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा -"मेरा मन कर रहा है मैं भी तुम्हारे पास रहूँ।" मीना ने कहा-" तुम मजाक कर रही हो। मगर अच्छा लगा। "
संध्या ने कहा- नहीं ये मजाक नहीं है। तुमको याद है हम सब सहेलियों ने एक दिन बातों में ही बोला था कि सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद हम सब बेटे बहू के कुछ सोचने से पहले अलग एक घर में सब साथ रहेंगे। उस समय तो कल्पना थी लेकिन आज सच करने का समय आ गया है। मेरे पति को भी मैंने बताया है। बच्चों को जब मिलना होगा तो यहां आयेंगे।"
मीना आश्चर्यचकित होकर संध्या को आंखें फैलाकर देख रही थी। संध्या ने एक मैसेज तैयार किया और व्हाट्सएप के मित्र वाले समूह में भेज दिया । फिर दो दिन बाद पति के साथ मीना के घर आ गयी-।
मीना जमीन तुम्हारी कमरे मैं बनवाऊंगी। इस तरह धीरे धीरे पाँचों सहेलियाँ आ गयी दो के बच्चे विदेश में रहने लगे थे पति भी स्वर्गवासी हो गये थे। वो बहुत खुश अपनो के पास आ गयीं । बाकी तीन के बच्चे भारत में ही अपने बच्चों और कार्यों में व्यस्त थे।
इस उम्र में ऐसा लगता है कि कोई हमको समझे थोड़ा हमको समय दे। मेरी बात को सीधे नकारे नहीं । हम बूढ़े हो जाते हैं साथ ही हमारी इच्छायें कम हो जाती हैं लेकिन खत्म नहीं होती । हम अपना महत्व कभी नहीं खोना चाहते।
पत्रकारों की तालियों की आवाज से संध्या सोच से बाहर आ गयी।
फिर धीरे धीरे हमारे मित्रों के भी कुछ मित्र आ गये। इस तरह ये सखागृह बन गया।
सब हंसते हुए एक साथ बोले "हम साथ साथ हैं।"