हैप्पी दिवाली

हैप्पी दिवाली

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यह बात वर्ष 1992 की है। मैं एक प्रतियोगी परीक्षा में सम्मिलित होने के बाद हैदराबाद से दिल्ली की ओर रेल यात्रा कर रहा था। दीपावली का दिन था, शाम के लगभग 10 बजे होंगे जब गाड़ी भोपाल में रुकी हुई थी। मैंने अपनी सीट पर बैठे हुए खिड़की से देखा कि एक युवक जो मुझसे कुछ वर्ष बड़ा रहा होगा, मायूस सी अवस्था में एक बुक स्टॉल की पत्रिकाएँ कुरेद रहा था और शायद, उसकी इस निरुद्देश्य उलट पलट के कारण ही वह विक्रेता उस पर अपनी खीज निकालने लगा। बस, झगड़ा होने ही वाला था जो कि अव्यवहारिक रूप भी ले सकता था। तभी मेरे मन में कुछ हलचल पैदा हुई।

तत्काल, मैं अपने कूपे से बाहर निकला और उस युवक के निकट जाकर, हैप्पी दिवाली कहते हुए, उसे कॉलेज के दोस्त की तरह सीने से लगा लिया। वह पूछता रहा कि 'यार पहचाना नहीं।' मेरा अनायास उत्तर था, "चलो, अंदर बैठ कर बताता हूँ।"

मुझे उसका साथी समझकर, विक्रेता नरम पड़ गया और झगड़ा टल गया। हम दोनों डिब्बे में घुस आए और कुछ मिनटों बाद गाड़ी चल दी। उसकी बर्थ अन्य स्लीपर क्लास डिब्बे में थी, सो थोड़ी देर तक हमने मेरे भीड़भाड़ वाले सामान्य डिब्बे में खड़े खड़े ही कुछ मिलनसार बातें कीं। अपनी सीट पर जाते समय कहने लगा, "अब बताओ, आप मुझे कैसे जानते हो?" मेरा सीधा जवाब था, "कैसे भी नहीं भाई, बस अंदर से आवाज आई।"

एक जीभर हँसी और एक घंटे के संयोगी-वार्तालाप के साथ ही, हम दोनों भिन्न हो गए और फिर कभी नहीं मिल पाये। उन दिनों साधारण व्यक्ति के पास सम्पर्क सूत्र जो नहीं होते थे। आज इतने वर्षों बाद भी जब अचानक उस दृश्य की याद आँखों में उतर आता है तो होठों पर एक मुस्कान स्वयं फूट पड़ती है कि किस प्रकार एक लघु प्रयास ने एक अप्रिय घटना को टाल दिया था लेकिन फिर, जाते हुए एक चिंतित स्थिति में धकेल जाती है। क्योंकि अक्सर देखते हैं कि आस पड़ोस के परिचित लोग भी कारण की अनुपस्थिति में एक दूसरे से नहीं मिलते और कोई सरल व्यक्ति किसी से अकारण मिलने भी लगे तो चार छः लोग उस सौहार्द को निष्क्रिय करने को सदैव तत्पर रहते हैं।

इस घटना की याद उस व्यक्ति को भी आती होगी। या शायद नहीं भी। वस्तुतः मेरी ज़ुबान से हैप्पी दीवाली यदा कदा होती रहती है।


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