गया फिर आज का दिन भी
गया फिर आज का दिन भी
चलती ट्रेन से भी तेज़ रफ़्तार से भाग रहा था सुमिधा का मन।आज सुबह ज़ब अजमेर के लिए रवाना हुई थी तो ज़ेहन में सिर्फ एक ही बात थी कि जाकर माँ से कह देगी कि अब उसके लिए लड़का देखना बंद कर दें। अगर सुमिधा की किस्मत में कोई होगा या उसकी शादी होनी होगी तो हो जाएगी वरना वो सिंगल भी रह सकती है आराम से। आखिर कौन सा मुश्किल है अकेले रहना। जबकि अपने घर में भी अपनी छोटी बहन कंचन और भाई कुणाल के रहते हूए भी अक्सर अकेली ही तो रहती आई थी। मम्मी वैसे तो अपनी बड़ी बेटी सुमिधा को बहुत प्यार करती थीं पर ज़ब कभी किसी सहेली के घर जाना होता या बाजार वगैरह जाना होता तो या कभी उनके मायके के किसी दूर के रिश्तेदार के आने पर बच्चों से मिलवाना होता तो उसे बुलाना अक्सर अवॉयड ही करतीं थीं। अगर कंचन या भैया उस वक़्त घर पर होते तो उनसे मिलवा देती पर सुमिधा को नहीं बुलाती थीं। एक पापा ही थे जिन्हें सुमिधा के गहरे रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता था। उल्टा पढ़ाई में अव्वल आने और बेहद शांत समझदार होने की वजह से सुमिधा को वह सबसे ज़्यादा प्यार करते थे।"दीदी!इतने तीखे नैन नक्श हैं सुमिधा के। अगर थोड़ा रंग भी निखरा हुआ होता तो आपके तीनों बच्चों में सबसे सुन्दर यही होती!"अंजलि मौसी ने ज़ब उसे देखते हूए मम्मी से कहा तो मम्मी ने सिर्फ इतना कहा,"अपनी अपनी किस्मत दीदी,और क्या कहूँ!"पर उसका मन नहीं मानता और किसी तरह वह सोचती इतनी तो लड़कियाँ साँवली हैं उन्हें तो कोई हमेशा ताने नहीं देता। फिर पलटकर सोचती क्या पता शायद देता भी हो... सोचकर यह ख्याल झटक देती और अपनी पढ़ाई में लग जाती थी। एक पढ़ाई ही तो थी उसकी अपनी पक्की सहेली जिसे वह वादा कर चुकी थी कि वह उसे सम्मान की ज़िन्दगी जीने देगी।अब उसने फैसला कर लिया था कि,चाहे जो हो जो सिर्फ रूप देखे उससे शादी नहीं करेगी चाहे अपने मनमीत का इंतजार करते करते अविवाहित ही रह जाए।इस निर्णय से सुमिधा को एक आत्मिक बल मिला।ट्रेन अपने गंतव्य तक पहुँचनेवाली थी और सुमिधा ने अपनी सोच को भी एक पुख्ता आकार दे दिया था कि अब वह अपने रंग रूप को लेकर अपना अपमान नहीं सहेगी।