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VEENU AHUJA

Inspirational

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VEENU AHUJA

Inspirational

गुझिया

गुझिया

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दहलीज़ के बाहर कदम रखते ही - - तेज आवाज़ में बजते गाने : रंग बरसे भीगे चुनर वाली। ने। उसे भीतर होली वाली एक छुडछुड़ी सी भर दी। उसे लगा जैसे वह सोलह बरस की कोई छुईमुई सी लड़की है। जिसके भीतर का होली का हुलास ' हुड़दंग बाहर निकलने को आतुर हो।

उसने माथे के साड़ी के पल्लू कोठीक किया तो पहलीबार एहसास हुआ कि परिवार में छोटे होने पर।दायित्व विहीन सा महसूस करने पर आप कितना हल्का महसूस करते हैं। किसी बड़े का सिर पर हाथ कितना चिन्ता विहीन और बेफिक्र करने वाला होता है।

आजसे तीन महीने पहले तक उसकी सोच ऐसी न थी। पन्द्रह सालों से घर की छोटी बहू होने के बावजूद घर की सारी जिम्मेदारियां उसी ने निभाई थी। बड़ी बहू अर्थात् भाभी रहती तो घर के पहले मंजिल पर थीं परन्तु वे परायों से भी ज्यादा पराई लगती थीं। अम्मा बाबू जी के न रहने के बाद भी मिठास रिश्तों में न आ पाई थी। इधर उधर से सुनी नकारात्मक बातों के कारण उसने भी भाभी।को जानने समझने की कोशिश नही की।

आज से करीब तीन महीने पहले सुबह के करीब छः बजे। दिसम्बर का महीना

उसने गर्म पानी से भरी बाल्टी जैसे ही उठाई अचानक पता नहीं कैसे पैर मुड़ गया और बाल्टी का पूरा गर्म पानी उसके ऊपर गिर पड़ा वह चीखी ओर तड़पते हुए जमीन पर गिर पड़ी।..

उसने देखा। लगभग पचपन पार कर चुकी भाभी पलभर में आंगन में उसके पास खड़ी थी। गजब की फुर्ती के साथ उन्होंने उसे संभाला और कमरे की ओर उसको पकड़कर भागी ' जाते जाते आवाज़ देती गयी।. लल्ला। एम्बूलेंस मगाओं।..

कमरे में उन्हो ने फ्रिज से बर्फ निकालकर ठंडा पानी बनाया उसमें थोड़ा तेल डाला फिर उसे अच्छे से नहलाया। धीरेधीरे से उसकी साड़ी उतारती गयी फिर धीरे से एकसूती चादर उड़ादी। तबतक एम्बूलेंस आ चुकी थी।

ईश्वर का धन्यवाद था कि चेहरा बच गया था। भाभी की फुर्ती और समझ की वज़ह से वह आठ दिन में ही घर आ गयी थी। परन्तु बिस्तर पर थी। केवल चादर ही लपेटी रहती थी वह ( चादर ) भी जब घाव पर स्पर्श करती तो उसकी चीख निकल जाती। भाभी ने पूरे घर के साथ उसकी जिम्मेदारी भी अपने ऊपर ले ली थी ' बड़े प्यार से धीरे-धीरे मलहम लगातीं कहीं वह हूक उठती तो दर्द भाभी की ऑखों में दिखता ' इस उमर में ऊपर नीचे आठ जनों के सारे काम वह कर रही थीं। ऐसे हालात नहीं थे कि कोई सहायक रख सकते लेकिन उसका खाना , फल। दवाई समय से भाभी पहुँचाती। 

उसके कुछ स्वस्थ होने के बाद भाभी ऊपर चली गयीं परन्तु कभी गूंथा आटा कभी प्याज लहसुन का भूना पेस्ट पकड़ा जाती कि तुम्हें सुविधा होगी।.. स्नेह की डोर ऐसी जुड़ी कि कटोरियों का आदान प्रदान चलता रहा।


शादी के बाद। इस घर में उसने होली न देखी थी। होली के नाम पर गुझिया बनती। पापड़ बनते।.. पकवान बनते पर। न होली का रंग होता। नअबीर गुलाल उड़ता न गले मिलना होता न आशीर्वादों की झडिया फूटती।.. ऑगन बेरंग ही रह जाता।


आज ' सालों बाद उसने होली खेलने की ठानी थी। उसने भैया के परिवार को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया है सुनतेही पति अभि भड़क उठे - मुहल्ला भर कह रहा था कि तुम्हारे जलने पर भाभी बहुत खुश थीं।..

पर, उन्होंने ही तो पूरे घर को।..

कुछ नहीं संभाला। साफ साफ कह दिया था। एक ही सब्जी बनेगी ' सबको वही खानी होगी। कपड़े धो देती थी इस्तरी के लिए बोल दिया खुदकरो।... और।..

ओह ' तो भाभी गुझिया सी हैं।. आप केवल ऊपर का आवरण देख रहे है।

मतलब।. 

कुछ नहीं '। ये औरतों की दुनिया है। आप की दखलंदाजी मंज़ूर नहीं। मैं हौले से मुस्करा कर बोली।

हूँ, तो यही बात थी जो पूरे परिवार ने उन्हें अलग कर रखा था। वह सच्ची थी। अपने समय से आगे थी।. बेवकूफ नहीं ' अपनों के साथ अपना ध्यान रखना जानती हैं। सम्मान तो मैं पहले से करने लगी थी अब तो मैं भाभी को अपना आदर्श भी बनाऊंगी अब हम एक और एक ग्यारह होंगे। आज तो धूम के साथ होली होगी।

दस बजते बजते सोनू और रमेश (भतीजे ) रंग लेकर नीचे आगए थे ' फिर पिंकू और श्यामली ( मेरा बेटा और बेटी ) कहाँ मानने वाले थे।। फिर तो बाल्टी भर रंग उड़ेला गया ' ड्र म भर गुलाल चला ' गिले शिकवे बहे, शिकायते उड़ी। हँसी ने बाहें फैलायी ' उमंग ने सभी को गलें लगाया... बरसो की चुप होली मुखर हो उठी। ऑगन सतरंगी हो उठा। मैंने गुझिया की प्लेट भाभी के आगे कर दी ' हमारे घर की गुझिया (भाभी ) को एक गुझिया तो बनती है।

इतने में श्यामली, गुलाबी गुलाल आसमान में फेंक कर बोली -

रंग बरसे होली है।......


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