गर तुम साथ हो
गर तुम साथ हो
आज भी चेन्नई का नाम सुन लेने मात्र से महेंद्र डरने लगते हैं। उनके डरने की एक ख़ास वज़ह है उनंकी ज़िन्दगी में चुपके से आया वह अनचाहा और विद्रूप पड़ाव। जिसने मानो डेरा ही डाल लिया था इस शहर में ! स्मृतियों में आज भी हू -ब- हू रचा बसा है माउन्ट पूनामल्ली रोड,मनपक्कम, चेन्नई का वह हास्पिटल। और वह डाक्टर ?नहीं, नहीं, डाक्टर का नाम देना ठीक नहीं लगता इसलिए महेंद्र अब उसे जल्लाद कहकर सम्बोधित करता है। हां तो वह जल्लाद उसने तो महेंद्र की इहलीला ही समाप्त कर डाली थी। कमजोर दिल दिमाग का इंसान रहा होता तो वह नि:संदेह आज अपने पारिवारिक इतिहास के पन्नों पर नज़र आता। बड़ा ही भयावह और पीड़ादायक था महेन्द्र की ज़िन्दगी का वह दौर !
महेन्द्र अपनी उम्र के चालीसवें पायदान पर पहुंचा ही था कि उसे उसकी पुरानी बीमारी की तक़लीफ़ बढ़ गई। लगभग पांच साल पहले उसके हिप ज्वाईंट बदले जा चुके थे और उनमें अब दर्द उभरने लगा था। दर्द देखकर साढ़ू के पुत्र इंजीनियर अनुराग ने सलाह दे डाली थी कि आप चेन्नई आ जाओ और यहां विश्व प्रसिद्ध आर्थो सर्जन आपका हिप ज्वाइंट रिप्लेसमेंट कर देंगे। उम्र के पचीस बसंत देख रहे और यथार्थ जीवन के ककहरे पढ़ रहे अनुराग ने बिना सोचे समझे यह प्रस्ताव भले ही अपनी भलमनसाहत के चलते दे डाला हो लेकिन उस पर अमल तो महेंद्र को करना था। महेंद्र अपनी शारीरिक पीड़ाओं और अन्तर्मुखी स्वभाव के चलते इस मसले पर गंभीरता से विचार नहीं कर सका था और उसने हामी भर दी थी। उन दिनों उसका परिवार इधर उधर बिखरा पड़ा था। बड़ा बेटा अपनी पहली पोस्टिंग पर कारगिल में नियुक्त था। छोटे ने भी बड़े का अनुगामी होकर आर्मी ज्वाइन कर लिया था और जनाब को कमांडो ट्रेनिंग करने के लिए भेज दिया गया था।
बचीं सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी अर्धांगिनी मिसेज रीना। स्कूल के बच्चों के बीच रहते हुए उनको बोलने और कमांड देते रहने का हुनर बख़ूबी आ चुका था और महेंद्र इसका आदी नहीं था। घर में उनकी ही चलती थी। उन्हें आज भी बखूबी याद है वह दस अप्रैल 2007 की सुबह थी जब महेंद्र अपनी पत्नी रीना और अनुराग के साथ चीफ़ नाम से विख्यात डामोहन दास के केबिन में हाजिर था। लखनऊ से चेन्नई की सीधी फ्लाइट ने यात्रा और उससे जुड़ी ढेर सारी दिक्कतों से तो बचा लिया था लेकिन मानों पीड़ांतक दिक्कतों के द्वार खुलने को बेक़रार बैठे थे। डामोहन दास का डीलडौल रावणी था। मोटे शरीर,काले रंग,सफ़ेद दांत,हिन्दी लगभग नहीं समझने या समझकर भी न समझने का नाटक करनेवाले इस अजीबोगरीब डाक्टर ने प्रथमदृष्टया देखते हुए आदेश दिया कि पहले कैशियर के पास फ़ीस जमा कर दी जाय। उन दिनों बैंकिंग की अनेक सुविधाओं से से महेंद्र ज्यादा हिले मिले नहीं थे इसलिए जवाहर बंडी और चोर पाकेट में ठूंसी रक़म निकालकर उन्होंने कैशियर के हवाले कर दी। फ़ाइल तैयार हो गई और अब वे बाक़ायदा उस हास्पिटल के पंजीकृत इंडोर पेशेंट थे। अब उनकी पहचान रोगी नम्बर 80390 प्राइवेट रूम नम्बर 13 के रूप में थी।
महेंद्र को व्यवस्थित करके अनुराग अपने काम पर चले गए। लगभग आधे दिन का उनका नुक्सान हमने कर दिया था। पहला दिन आगत स्वागत में बीता। लेकिन इस बात की झलक मिल चुकी थी कि यहाँ भाषा की घनघोर दिक्क़तें होनी है। अपने ही देश में हिन्दी की ऎसी दुर्गति देखकर दोनों हतप्रभ थे। अगले दिन महेंद्र के ओपरेशन के लिए ज़रुरी जांचें शुरू हो गईं। सभी कुछ ठीक ठाक निकला। चीफ बिना नागा हर सुबह लगभग पांच बजे हर कमरों में राउंड पर आते थे। अगर मरीज़ सो रहा होता तो उसकी चद्दरें हटा कर बेरहमी से उसे जगा दिया जाता। हास्पिटल का उस समय का माहौल कुछ यूं बना दिया जाता मानो चीफ ना हों कोई डिक्टेटर हों ! आगे के कई दिनों तक महेंद्र को यह कह कर रोका जाता रहा कि आज इमरजेंसी मरीज़ आ गया।
बहरहाल तेरह अप्रैल के लिए महेंद्र के आपरेशन की तारीख घोषित हुई। तेरह की सुबह मानो तूफान आ गया। लगभग चार बजे ही महेंद्र को अधजगी स्थिति में उठा कर बेड सहित एक हौदीनुमा बाथरूम ले जाया गया और अपने तरफ जैसे जानवरों को पाइप की मोटी धार से नहलाया जाता है उसी तरह महेंद्र का अनचाहा और अभी तक अनचाहे इस्टाइल से स्नान सम्पन्न हुआ। नंगे शरीर को बड़ी चादर से लपेट कर उन्हें सीधे ओपरेशन थियेटर ले जाया गया। महेंद्र एक ज़मींदार परिवार के थे और उन्होंने बचपन में अपने दादाजी के पाले हाथियों को पिलवानों द्वारा कराया जानेवाला स्नान बहुत निकट से देखा था। आज वह दृश्य पुन: उपस्थित था। अंतर बस इतना रहा कि हाथी वे स्वयं बने हुए थे और पिलवान ढेर सारी नर्स। उधर रीना इंतज़ार में थीं कि महेंद्र को "विश" करके आपरेशन थियेटर को रवाना करेंगी। अपनी हिन्दी में उन्होंने कुछ पूछताछ करनी चाही तो उन्हें निराश होना पडा। बहुत देर बाद बताया गया कि उनके श्रीमान ओपरेशन थियेटर पहुँच चुके हैं।
विधाता उस समय महेंद्र के परिजनों को अत्यंत कठिन परीक्षण से गुज़ार रहे थे। बड़ा बेटा माइनस आठ डिग्री के तापमान में कारगिल की दुर्गम पहाड़ियों के बीच ज़िंदगी और अपने कैरियर की जद्दो जहज कर रहा था। छोटा बेटा मात्र 21 साल की उम्र में कमांडो की कठिन ट्रेनिंग ले रहा था। पत्नी और पति एक दूसरे के लिए सहारा बने थे। उधर महेंद्र को आपरेट करके कमरे में वापस भेज दिया गया। उनका इन्फेक्शन ग्रस्त कूल्हा निकाल दिया गया था और तीन चार दिन के एंटीबायटिक कोर्स के बाद पुनः उसका रिप्लेसमेंट होना था। कल्चर सेंसिटिविटी टेस्ट भी भेजा गया।
चेन्नई का माहौल विपरीत खान-पान,भाषा बोली और आचरण के कारण उन दोनों को रास नहीं आ रहा था। फिर भी अब तो काम सम्पन्न होने पर ही वे वापस लखनऊ जा सकने वाले थे। उन्नीस तारीख को महेंद्र को बताया गया कि अगले दिन उनका दूसरा आपरेशन होना है। महेंद्र यह सुनते ही काँप गए क्योंकि उन्हें हाथी स्नान याद आ गया। बहरहाल उन अनचाहे प्रसंगों से तो गुज़रना ही था !इस बार रीना ने बाकायदा आपरेशन थियेटर के बाहर महेंद्र को विष किया। महेंद्र ओ०टी के अन्दर पहले से मौजूद मरीजों की उस लाइन में लगा दिए गए जिन्हें आज चीर फाड़ से गुज़रना था। दस बजे,ग्यारह बजे और बारह बजने वाला ही था कि मानो ओ०टी० में तूफ़ान मच गया। महेन्द्र को लेकर इधर उधर भेजा जाने लगा। उनका कल्चर सेंसिटिविटी टेस्ट पाजिटिव आ गया था यानि उनके शरीर में उस बदले गए कूल्हे के इन्फेक्शन अभी भी मौजूद होने की संभावना रह गई थी। आनन फानन में उन्हें हास्पिटल के एकांतवास की ओर पहुचाया गया और एक जूनियर डाक्टर भागा भागा आकर टूटी फूटी हिन्दी में यह बोल फेंक गया कि अब महेन्द्र के जीवन की सारी आशाएं समाप्त हो गई हैं। पत्नी रीना ने जब यह सुना तो स्तब्ध रह गईं। महेंद्र को हास्पिटल के स्टाफ यूं ट्रीट करने लगे मानो वह एक अत्यंत शक्तिशाली बम हो और अब फूटा कि तब ! एक और जूनियर आकर इंजेक्शन लगा गया और पूछने पर बताया कि यदि चौबीस घंटे में शरीर से खून नहीं आया,खून की उल्टी आदि नहीं हुई तो समझिये आप का जीवन सुरक्षित है।
सच मानो, घड़ी की सूइयों की टिक टिक करती आवाज़ भी उस दिन भारी लगने लगी थी। यह तो धरती के भगवान का सरासर अन्याय था कि सब कुछ तज कर उसकी शरण में आये भक्त को खुद भगवान ही जीवन के प्रति आश्वस्त ना करा सकें ! महेंद्र को यह बेहद बुरा लगा कि वह दुर्दांत चीफ जिसकी उन्हें उस समय सख्त ज़रूरत थी जब इन्फेक्शन का खुलासा हुआ वह ढाढस तक देने नहीं आया। बच्चों का फोन अक्सर लगता नहीं है और अगर लग भी जाय तो दोनों को बताएं तो क्या बताएं इस यक्ष प्रश्न में रीना उलझ पड़ीं थीं ! अनुराग भागे भागे आ गए थे और तीनों की प्रार्थनाएं शुरू हो गई थीं। महेंद्र की आँखों से नींद गायब हो चुकी थी और वे दोनों तो मानो तड़प रहे थे। पूरी रात महेंद्र अपनी पत्नी रीना का हाथ पकड़े रहे और बुदबुदाते रहे कुछ नहीं होगा,गर तुम साथ होगर तुम साथ हो ! उस रात की सुबह हुई लेकिन वह सुबह कैसी थी ?फिर कभी बताएंगे !