archana nema

Inspirational Romance

3.5  

archana nema

Inspirational Romance

गोदना

गोदना

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सामने के खुले मैदान में अनगिनत पलाश वृक्ष के पत्तों पर फागुनी धूप चमक रही थी। गुलमोहर की कलियाँ भी अपना शैशव तज तरुणाइ सी चटकने तैयार थी। दूर कहीं बाँसुरी की तान, ढोल और मांदल की थाप मन में मचलाहट भर रही थी। कान्चरू अपनी धूल धूसरित कछोटी घुटने तक लपेटा, मिट्टी के टीले पर बैठा, एक शाखा से विलग हुई टहनी से जमीन कुरेद रहा था। मन में शायद कोई छवि थी जिसे उस धूल के चित्रपट पर उतार देना चाहता हो। लेकिन भोला भाला सा काचरू न सिद्धहस्त चित्रकार था और ना ही कोई मूर्तिकार कि मन में लहरों सी डूबती उतराती उस छवि को गढ़ कर साकार कर पाता। मन में ढेरों रस पगे भाव थे, शब्द थे जिन्हें कांचरू किसी कवि सा अभिव्यक्त भी नहीं कर सकता था। मन गुनिया के विचारों में ऐसा उलझा था जिस तरफ देखता उसे साँवली सलोनी गुनिया ही दिखाई देती। कांचरू कुछ अनमना सा ऊब कर जंगल के रास्ते जाती पगडंडी पर पैदल चल निकला। हाथ में वहीं नरम टहनी थी जिससे धूल पर कांचरू अपनी प्रिया का चित्र बना रहा था। उसकी बाई हथेली में फँसी टहनी उसके साथ में घिसटते चली जा रही थीं। उसकी बाई हथेली में फँसी टहनी के साथ, मानो उसके विचार भी साथ ही खिसकते चले जा रहे थे।

गुनिया से काचरू का बंधन तरुणाई का हो, ऐसा नहीं था। एक ही आदिवासी संस्कृति में दोनों संग संग पले बढ़े हुए थे। दोनों ने साथ साथ शैशव बालपन वयःसंधि में प्रवेश किया था। जानवरों को हंकारने या जंगल से सूखी लकड़ियां बीनने, बालियों से अन्न झटकारना कटीली झाड़ियों से खट्टी मीठे बेर तोड़ना, झील में तैरना सीखना सब कुछ एक साथ किया था दोनों ने। गुनिया से कांचरू बचपन से ही स्नेह बंधन से बंधा था पर जैसे-जैसे गुनिया हरियाती गई, युवनायी में बढ़ती गयी, कांचरू का नेह बंधन गुनिया से पक्का और पक्का हो प्रेम बंधन में बदल गया। सुचिक्कङ साँवली भरी भरी युवा देह वाली गुनिया आदिवासी सौंदर्य से परिपूर्ण कांचरू के मन में गहरी पैठती गई। दोनों ही जीविकोपार्जन के बहाने वन यात्रा पर चल निकलते। चलते चलते सघन वृक्षों की ओट से जब धरती पर धूप पड़नी रुक जाती तब भी कांचरू गुनिया के नेत्रों की धूप के सहारे सारा जंगल छान आता। गुनिया की साँवली मछली सी चमकती त्वचा पर अंग-अंग पर गोदना की कशीदाकारी थी। उसकी पिंडली में सजा ज्यामितीय आकार का गोदना तो कांचरू के स्वप्न में भी आता था। गुनिया की ठोडी पर लगी गोदना की तीन बिंदिया और उसके कान के ऊपरी भाग में पहने लछ्छो के पास गोदना की बिंदिया तो कांचरू को पूरा सितारों से सजा आकाश लगती। वह कई बार निर्निमेष उन गोदना के बिंदुओं को देखता रहता। गुनिया इस तरह देखे जाने पर कारण पूछती तो कांचरू झेंप जाता। उसके अंग प्रतिअंग में गुदने में भरा सौंदर्य निहारते निहारते कांचरू की नजर एक जगह पर कुछ ठहर जाती और उसकी सारी स्निग्धता, समर्पण प्रेम स्नेह वहीं ठहर से जाते।

गुनिया की बाईं कलाई के पास कोहनी की तरफ एक नाम गुदा था "रेवाराम"। यह नाम कांचरू को झिंझोर डालता, उसके अंदर जैसे कुछ बुझ जाता। यह नाम कांचरू के कोमल मन पर मानो अप्रत्यक्ष ही प्रहार करता रहता। सहम कर कांचरू उस स्थान से अपनी नजरें फेर लेता वह मानो उस जगह उस नाम को देखना ही नहीं चाहता था। यह नाम ही तो वह दुर्भाग्य था जो कई बरस पहले गुनिया को कांचरू से विभक्त करा ले गया था। बालपन में गुनिया का विवाह रेवाराम से हुआ था। हंसली, तोरण, लच्छे, कौड़िया हार, मोर पंख का फीता, गिलट का बाजूबंद, काली डोर में गुथे सिक्कों की माला पहने नववधु गुनिया जंगल के एक छोर से दिखाई ना पड़ने वाले उस छोर की तरफ चली गई थी, तब मानो कांचरू की दुनिया भी अपने साथ विदा करके ले गई थी।

कई साल गुनिया के बिना कांचरू जंगल में भटकता रहा। सूखी लकड़ियाँ बीनने के बहाने या ढोर चराने के बहाने लेकिन जंगल में मानों वह गुनिया की छाया को ही ढूंढता रहता। और यूँ ही बेसबब निरुद्देश्य मेघ सा भटक कर खाली हाथ लौट आता।

कुछ साल कांचरू, कांचरू न रहकर कुछ और ही हो गया। फिर एक सुबह देखा उजड़ी उजड़ी सी गुनिया उसके घास फूस और बाँस की बनी झोपड़ी के बाहर खड़ी थी। पूछने पर पता चला रात में सोते समय शायद कोई आदमखोर जंगली जानवर रेवाराम को ले गया था। जंगल में बहुत ढूंढने पर उसकी धोती और फटा चिथा अंगरखा ही बरामद हुआ। गुनिया विखंडित दांपत्य के दुख में विश्रंखलित सी अव्यवस्थित मालूम दी। कांचरू गुनिया की इस मनःस्थिति से बहुत दुखी था लेकिन पता नहीं क्यों अंदर से कहीं प्रसन्न भी था क्योंकि घटनाक्रम कुछ भी रहा हो उसकी गुनिया उसके पास थी।

इस बात को भी कई बरस बीत गए थे बालपन का विवाह गुनिया के अंतः स्थल से शनैः शनैः विस्मृत होता गया ।लेकिन गुनिया के हाथ पर गुदा वो नाम अब भी दोनों की जीवन रेखा को विभक्त कर दो भागों में बांट देता था ।लेकिन फिर भी दोनों के बीच का बचपन का आकर्षण सारी बाधाओं से दूर जंगल के विशाल वृक्ष के तने से लिपटी किसी लजीली बेल सा परवान चढ़ता रहता। उनके इस वरर्धित प्रेम में जंगल की महती भूमिका थी।विकट अरण्य में बहुत गहरे अंदर तक चलते चले जाते गुनिया और कांचरू अनेक पक्षियों की विभिन्न प्रकार की मंजुल आवाज सुनते, तेज पवन से झूमते वृक्षों की डालों की करकर, फूलते टेसू, लाल रंग से गसमसाये गुलमोहर से उनका तीव्र आकर्षण रहता। डूबती साँझ में जब आकाश के बादल, गुलाबी केसरिया रंग में रंग जाते तब गुनिया और कांचरू भी एक दूसरे के रंग में रंगे पगे बस्ती की तरफ लौट आते। रास्ते में दोनों तरफ नीम, आम, जामुन, पीपल के वृक्षों की कतार के मध्य से गुजरते दोनों कई बार निशब्द हो जाते पर दोनों के नयन व मन का एक दूसरे के साथ का वार्तालाप अनवरत रहता। ऐसे में कई बार कांचरू की आँखों में गुनिया की कोहनी के पास का गोदना कौंध जाता और फिर कांचरू उसी चिर-परिचित ठहराव से उलझ जाता लेकिन जल्द ही गुनिया की बोलती आँखें उसे उसकी स्नेह धारा से पुनः जोड़ देती।

नदी के मुहाने पर मैदान के उस तरफ,अमराई के साथ बाँसों के जंगल थे। चारों तरफ खिली श्वेत दुग्ध धवल कान्स पर दिन के अंतिम प्रहर की धूप अपनी लकदक से चमक रही थी। कुछ दूर जाने पर साँझ गहरा कर झुटपुटी सी हो जाती। बाँस के झुरमुट के ऊपर, उजली पंचमी का तिहाई चाँद उग चला था। रात रानी की झाड़ियाँ, हरसिंगार के फूलों के लदे-फदे पेड़, कदम्ब की सरसराती शाखें कांचरू और गुनिया का आत्मिक प्रेम जगा जाती और दोनों एक दूसरे के लिए हरसिंगार के जमीन पर पड़े फूल चुने लगते। इससे भी मन नहीं भरता तो गुनिया कांचरू को सहारा दे कुछ ऊँचा उठा देती और कांचरू उन फूलों की छोटी-छोटी डालों को हिला देता और फिर दोनों शाखों से झरे फूल एकत्रित कर एक दूसरे पर उलट देते ।फूल एकत्रित करने और उछालने का क्रम तब तक चलता जब तक कि दोनों के अंतस फूलों की सुवास से गमक ना उठते ।दोनों एक दूसरे की चुहल करते करते छेड़छाड़ पर उतर आते ऐसे में कांचरू से गुनिया का कोहनी के समीप गुदा, गोदने वाला हाथ टकरा जाता और कांचरू किसी चोरी के अपराधबोध में गाफ़िल शान्त पड़ जाता।

गुनिया इस अचानक आए ठहराव का संकेत समझ नहीं पाती और दोनो हर सिंगार के फूलों से रिक्त अपनी डलिया लेकर लौट आते। शरद ऋतु की चाँदनी का नील निर्मेघ आकाश जल्दी ही दोनों के मन के अंतराल को काट देता और फिर दोनों निकल पड़ते अपनी प्रेम यात्रा पर। इस तरह कई दिन मास में परिवर्तित हो बीत जाते। कई बार गुनिया कांचरू के लिए भात भाजी की बियारी अपने आँचल में या फिर टोकरी में छुपा ले आती जिसे कांचरू छक कर आत्मा तक तृप्त हो कर खाता। कांचरू के उदर की तृप्ति गुनिया के नेत्रों में आत्म संतुष्टि की प्रसन्नता बन निखर आती।

वैवाहिक संबंधों में अपेक्षाकृत उदार मनोवृति रखने वाले आदिवासियों ने कभी भी काचरू और गुनिया के इस मेलजोल पर कोई आपत्ति नहीं जताई। जंगल के नियम से बंधे स्वतंत्र जीव-जंतुओं की तरह मानव संबंधों में भी स्वतंत्रता का समावेश इस आदि ग्रामीण जीवन की अपनी विशेषता थी, शायद यही कारण था कि काँचरू और गुनिया के रिश्ते की प्रगाढ़ता कभी भी किसी की आपत्ति का विषय नहीं रही।

जंगल में ऋतु कोई भी हो सब का प्रभाव अपनी विशेषता के साथ पूरे जंगल पर पसरा रहता। जंगल में पछुआ हवाएँ जब प्रवेश करने लगती तब प्रकृति अपना शीतला बाना उतार फूलों के रंग में रंग बसंती हो उठती यत्र तत्र सर्वत्र मानो रंगीन फूलों की कतारें रुक्ष से रुक्ष मन को भी रंगों से पाग देती। पलाश के वृक्षों पर झूमती फूलों की टहनियां मानो अनहद नाद बजा कर सर्वत्र रंग और प्रेम का आमंत्रण देती जान पड़ती। दूर से आती आदिवासी स्त्रियों के समवेत स्वरों की बरम देव, दूल्हा देव की स्तुतिया मन में भक्ति के साथ एक रसीली मचलाहट भी भर जाती। समग्र वातावरण मानो किसी अनदेखे अतिथि का स्वागत करता जान पड़ता, और यह अतिथि कोई और नहीं फागुन का महीना ही होता। चहुँ और फैले रंगों और पुष्पों की सुवास से मन की तरुणाई मानो अंगड़ाई ले जागृत हो जाती। इस बार के पलाश के वृक्ष की सिंदूरी फूल की बौड़िया गुनिया और कांचरू के हृदय में प्रेम स्वीकृति की मृदु भावना बनके प्रस्फुटित होने लगी।

भगोरिया भी समीप ही था दोनों ही युवा अब अपने इस प्रगाढ संबंध पर अपने समाज व परिवार की स्वीकृति चाहते थे। उस दिन सरोवर के नजदीक वाले टीले पर वार्तालाप करते गुनिया और कांचरू अपने अपने अप्रत्यक्ष प्रेम को आप सार्वजनिक करके दंपत्ति के रूप में बरम देव व दूल्हा देव की आशीष से चाहते थे। बहुत देर तक की चुप्पी को गुनिया ने तोड़ा-

"क्यों रे कांचरू ! होंठ रचाने वाला बीड़ा बनाएगा मेरे लिए।"

गुनिया के इस खुले खुले प्रस्ताव से कांचरू कुछ झेंप सा गया।

गुनिया पुनः बोली- "अरे तू तो लजा गया।"

कांचरू ने संभलकर मुंह से "किक" की आवाज निकल कर अस्वीकृति दर्शाई और फिर टेसू के रंग वाले सुर्ख गालों में प्रसन्नता भर कर बोला- "तू आएगी मेरा पान खाने ?"

गुनिया बोली- "सज धज के आऊँगी।"

इस तरह इस संक्षिप्त वार्तालाप में यह प्रगाढ़ संकेत थे कि दोनों का प्रेम अब अंतिम स्थिति, दांपत्य को प्राप्त करने वाला था।

भगोरिया हाट वाले दिन गुनिया अपने सारे गहने पहन नीले किनारे वाली लाल धोती में किसी वनदेवी सी सुंदर लग रही थी। उंगलियों से लेकर कलाई तक बंधे हाथ फूल का गहना काँप कर कभी गुनिया की बेचैनी तो कभी उसकी स्वाभाविक लाज दर्शा देता। सफेद बुशर्ट और लाल रंग के गमछे में लक दक कांचरू भी गुनिया की तरह ही अपनी प्रणय प्राप्ति के लिए तैयार था। दोनों ही अपने सगे संबंधियों के साथ बहकते संभलते हाट की तरफ चल निकले। झूलों की चर्र चर्र, मनिहारिनो की आवाजें, मेले ठेले की हलचल, बाँसुरी की तान पर मांदल की थाप, सब जैसे कांचरू और गुनिया के दांपत्य की शुभकामना देने आए हो। उत्सव मेले की रेलम पेल के बीच फागुन की उड़ती गुलाल सारे माहौल को हुरियारा बनाए दे रही थी। ऐसे में लजाती गुनिया ने भौंह के इशारे से पूछा- "पान लाए हो या नहीं ?"

कांचरू प्रसन्नता की लहर में बहता मानो वापस लौटा। अपनी कलावा बंधे हाथों से उसने गुनिया की तरफ बीड़ा बढाया। गुनिया ने उसी कोहनी के पास गुदे गोदना वाले हाथ को आगे बढ़ाया। गहरा स्याह गोदना "रेवाराम " कांचरू के मानस पटल पर काली छाया बन के छा गया। हाथ से पान जमीन पर गिर के धूल में मिल गया। हतप्रभ, अवाक गुनिया के हाथों की चूड़ियां ठिठक गई। अनमयस्क कांचरू जब कुछ ना कर सका तो उठकर जंगल की तरफ पलायन कर गया। सारे नाते रिश्तेदार मैं चर्चाओं के स्वर स्पष्ट होने लगे। गुनिया अपनी सँवरती दुनिया उजड़ती देख बिना किसी के सवाल का जवाब दे काँचरू की दिशा में जंगल की तरफ भागी। देखा नदी के कच्चे घाट पर बैठा कांचरू नयनों से अश्रु जल बहा रहा था। लाल धोती और गहनों में सजी-धजी गुनिया कांचरू की पीठ के पीछे बैठ गई। गुनिया को अपने पीछे पा कांचरू पास ही पड़े पत्थर नदी में निरुद्देश्य फेंकने लगा।

गुनिया ने प्रश्न किया- "क्या हुआ रे कांचरू ?

कांचरू ने संक्षिप्त जवाब दिया- "ऊहूं"

गुनिया के हाथ में साज के पत्ते थे उसने आगे जाकर कांचरू के हाथ में थमा दिए और बोली- "एक बात का जवाब दे दे कांचरू ! फिर मैं चली जाऊँगी।"

हाथ में साज वृक्ष के पत्ते थे जिन्हें हाथ में लेकर असत्य नहीं बोला जा सकता था, पत्ते हाथ में लिए कांचरू ने नम आँखों से गुनिया को देखा, गुनिया बोली- "तू मेरे साथ अपनी झोपड़ी बनाना चाहता है या नहीं ?"

"तू मेरे साथ उम्र भर के बंधन में बंधना चाहता है या नहीं ?"

कांचरू ने हाथ के साज वृक्ष के पत्तों को मजबूती से थाम लिया और बोला- "हाँ !"

गुनिया उत्तर सुनकर विह्वल हो उठी।

"तो फिर मेले से भाग क्यों आया।"

वहीं पास के पीपल वृक्ष पर क्रौंच पक्षी ने कीकना शुरू कर दिया मानो वह भी कांचरू के इस कृत्य से नाराज था। कांचरू ने आगे बढ़कर गुनिया की कलाई थाम ली और गोदना पर उंगली फिरता हुआ बोला।

"तेरा यह गोदना मुझे बहुत परेशान करता है !"

गुनिया बोली- "तो ?"

कांचरू सांस भर के बोला- "जाने क्यों तेरा यह गोदना मुझे बताता है कि तू मेरी नहीं है, मेरे लिए नहीं बनी है।"

मानव मन की इतनी क्लिष्ट और बारीक बात सुन गुनिया निरुत्तर हो गई। कजरारी आँखें पनिया गई। अचानक से उठकर पास ही पड़ी बबूल की सूखी डाल उठा ली और उसके काँटे से अपना गोदना क्षत-विक्षत कर डाला।कांचरू हड़बड़ा कर उसे ऐसा करने से रोकने दौड़ा तब तक गुनिया की कलाई बहते रक्त से सनने लगी थी।कांचरू ने जल्दी से अपने गले में डला गमछा निकालकर गुनिया के रक्त स्रावित कलाई पर बाँध दिया। गुनिया रुंधे गले और बहते आँसू से बँधी हिचकी के साथ समवेत स्वर में बोली-

"कांचरू ! तू इस गोदने से परेशान है ! अरे यह तो सिर्फ ऊपरी खाल पर बस खुदा है और तू और तेरा नाम तो मेरे मन के कहीं अंदर, कहीं भीतर तक कभी ना मिटने वाले गुदने की तरह गुदा हुआ है। ऊपरी गोदना तो कभी भी मिट जाएगा कांचरू ! पर अंदर जो गुदना है वह तू क्या कभी मेट सकता है। खैर महारानी, बरम देव के असीसो से गुदा है तेरे नाम का गोदना, मेरे मन की दीवारों पर लेकिन तुझे विश्वास नहीं तो जाने दे ! मेरा क्या है पहले भी जी गयी थी अब भी जी जाऊँगी।"

यह कहते-कहते उसके हाथ के लच्छे खनक उठे, आँखों की नमी आँचल से पौंछती वह टीले से उठ कर जाने लगी। पीछे से कांचरू, जैसे सब कुछ समाप्त होने वाला हो यह भाँपकर तड़फड़ा कर दौड़ पड़ा और उसने गुनिया का वही कोहनी के नीचे गोदने वाला हाथ थाम लिया।

खुशी में बसंती बयार हुलस कर बह निकली, जंगल में पक्षियों का कलरव प्रसन्नता से चिहुक उठा, दूर से आती बाँसुरी की स्वर लहरी, मांदल की थाप के स्वर और तेज हो गए।


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