archana nema

Inspirational

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archana nema

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मुझे मेरा हिस्सा दो

मुझे मेरा हिस्सा दो

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भागते शहर की बेतरतीब जिंदगी से दूर नीली बैगनी, क्षितिज रेखा के उस पार एक गाँव बसा था। यह गाँव अपने नाम से उतना प्रसिद्ध नहीं था जितना कि इसके एक छोर पर बने खंडित शिवालय के कारण। न सिर्फ इस गाँव के लोग बल्कि आसपास के दस गाँवों के लोग, खंडित शिवालय को ‘बरमबाबा' (ब्रह्म बाबा) के नाम से पुकारते थे। गाँव के बूढ़े बरगद की निचली कोटर में बना किसी अनजाने-अनचीन्हे भक्त की श्रद्धा का प्रतीक यह शिवाला आज भी अपने पुराने वैभव की गाथा कहता है। पुराने शिवाले के गोल-गोल पत्थरों के कोनों में बने छोटे छोटे छिद्रों में 'ज्ञानी काकी' अगरबत्ती खोंस अपने पोपले मुँह से बरम बाबा के कान में कई मनोतियाँ बुदबुदाती। इन्हीं बरम बाबा के इर्द गिर्द हज़ारों कहानियों के ताने-बाने ठीक वैसे ही बुने थे जैसे बरम बाबा के पड़ोसी, बूढ़े बरगद के शरीर पर ढेरों मनौतियों के रंग-बिरंग धागे।

जैसे ही साँझ का गुपचुप झुरमुठा सारे गाँवों को अपने रंग में रंगने लगता, बरम बाबा के चबूतरे पर गाँव के बूढ़े सयानों की टोली की आमद का शोर दूर से ही पहचाना जा सकता था और फिर धीरे-धीरे बरम बाबा के चबूतरे पर, बड़े बुजुर्गों के सांझे दुख-सुख के ढेर सारे रंग बिखरने लगते। हथेलियों पर अपनी ठुड्डियाँ टिकाये किसी बुजुर्ग के पास गयी रात, तरकारी के नोन मसाले की झिड़की होती तो कोई अपने जने कपूत के, लुगाई के बस में होने की दुहाई देता। बरम बाबा को घेरे बूढ़े बरगद की मोटी पतली शाखों के कोटरों में ढेरो नन्हें-नन्हें घर बसे थे और इन नन्हे घरों में रहने वाले मेज़बान परिंदों से दोस्ती थी इस गाँव के छोटे-छोटे बच्चों की। यह बच्चे इस बरम बाबा के खंडित शिवाले के चबूतरे पर इकट्ठा हो , कभी राजा प्रजा का स्वांग रचते तो कभी चबूतरे से सटी पगडंडी पर पुरानी साईकिल के टायर को टहनी से धकियाते ,पसीने से तरबतर इधर से उधर धमाचौकड़ी करते थे। बूढे बरम बाबा के संरक्षण में बसा यह चबूतरा कभी इस नन्ही मित्र मंडली का सभागृह बन जाता तो कभी किसी शरारत पर मिली सज़ा से बचने का एक खूफिया अड्डा।

इन्हीं बच्चों में से दो थे पुनिया और मुन्नू ।' पुनिया और मुन्नू थे तो सगे भाई बहन लेकिन ईश्वर ने खाका ढालते समय एक भी चिन्ह इनके सगे होने का नहीं ढाला था। जहाँ मुन्नू की रंगत साँवले बादल सी सलोनी थी तो वही पुनिया, छुई सी गोरी चिट्टी। मुन्नू के नैन नक्श, चट्टी चौराहे की दुर्गा मूर्ति से तीखे थे तो वहीं पुनिया के भरे चेहरे पर चपटी नाक, किंचित ही शोभा पाती थी। नीग्रो से घुंघराले बालों की लटें जहाँ मुन्नू की लुनाई कई गुना बढ़ा देती थी वहीं पुनिया के भूरे बेजान वालों को माँ कस्सी चोटी गूथते समय खूब गरियाती थी। कुछ भी हो, थे दोनों बच्चे अलमस्त, पच्छम के टीले से आती मदमस्त पवन से। 

मंगल को दोनों की खुशी, ज्वार सी उफनती थी। कारण होता था दोनो को मिलने वाले एक-एक के सिक्के। इस एक के सिक्के में दोनों की दुनिया बसती थी। कभी एक के सिक्के में दर्जन भर केले आ जाते तो कभी एक का सिक्का देकर खट्टी मीठी गटागट की गोलियों की पुड़िया, कभी एक के सिक्के में तीरथ काका के झूले की कुलांचे तो कभी नींबू डले चटपटे, चपटे चने।

आज फिर मंगलवार था, दोनों की ढेर सी मौज़-मस्ती से भरी खुशियों का दिन। जैसे ही सुबह हुई पिता ने जाने से पहले दोनों की हथेलियों पर एक-एक सिक्के का आसमान रख दिया। चेहरे पर खुशी, आँखों की कोरों तक फैल गयी। फिर योजनाओं के दौर शुरु हुए। मुन्नू ने बुड्ढी के बाल की योजना बनाई तो पुनिया ने गटागट या जीरावटी की बात सामने रखी। मुन्नू ने गुलाब लच्छे पर पुनिया को मनाने की कोशिश की, तो पुनिया का मन खट्टे तीखे जलजीरे के लिए मचल उठा। कई सारे प्रस्तावों, कई सहमति, असहमतियों के बाद एक बात सामने आई कि क्यों न आज जीभ की दरकार को तिलांजलि देकर ‘नियाज़ साईकिल मार्ट'' से गुलाबी भोपू वाली साईकिल किराये पर ली जाये।

ये एक ऐसा एकलौता विचार था जिस पर सांझी सहमति बन पाई और फिर नियाज़ चाचा से दो घंटे के लिए गुलाबी नीली, गोल गोल घूमती झालर वाली साईकिल किराये पर ली गयी। फिर क्या था ? पुनिया और मुन्नु के तो जैसे पंख निकल आये, कभी मुन्नू सीट पर तो पुनिया डंडे पर। कभी पुनिया सीट पर तो मुन्नू पीछे स्टेंड पर। तेज़ तेज़ पैंडल मारते, हवा से बतियाती उनकी साईकिल गाँवों की पगडंडी, मेड़, खेत सबसे सन्न से निकलती और उनकी हुलस भरी किलकारियाँ, उड़ते पंछियों की चहचहाहट से मिश्रित हो, अनुपम संगीत का निर्माण करती रहती। पंछियों की तरह उड़ते दो घंटे कब हवा हुए पता नहीं चला। देखते देखते साँझ घिर आई, कि अचानक से साईकिल की चेन उतर गयी। दोनों बच्चे सन्न रह गए,

---- “अरे बाप रे! साईकिल को यह क्या हो गया ? ये तो टूट गयी, नियाज़ चाचा को क्या कहेंगे ? नियाज़ चाचा तो अब नई साईकिल के पैसे मांगेंगे, पापा के पास तो इतने पैसे भी नहीं हैं कि नई साईकिल खरीदी जा सके।'' 

अब तो दोनों को टूटी साईकिल और अपनी मरम्मत का डर सताने लगा। साँझ भी अपने रंग बिखेरते हुए गहराने लगी। पुनिया और मुन्नु किसी हारे सिपाही या चोट खाए अपराधी की तरह धीरे-धीरे नियाज़ साईकिल मार्ट की तरफ बढ़ने लगे। रास्ते में संवादहीनता की नीरवता पसरी थी। दोनों के हृदय धक् धक् धड़क रहे थे। मन में शंका कुशंकाओं के डर जारी थे कि इतने में साईकिल की दुकान दिखाई दी। दोनों ने आपस में योजना बनाई कि जल्दी से दुकान में साईकिल टिका के वहाँ से सरपट दौड़ लगा देंगे और किया भी ऐसा ही। नियाज़ चाचा की हथेली पर अपना एक-एक का सिक्का थमा दोनों ने ऐसी दौड़ लगाई कि नियाज़ चाचा के कुछ भी न कहने पर उनकी ढेर सी काल्पनिक आवाजें दोनों का घर तक पीछा करती रही। घर आकर दोनों ने चैन की साँस लेते हुए इशारे-इशारे में एक दूसरे को सांत्वना दी। इन जैसी ढेरों बचकानी घटनाओं के बीच दोनों बढ़ते रहे।

समय रबी खरीफ की फसल सा खेतों में में कटता रहा, और दोनों बचपन को लाँघ, यौवन की अनिवार्यता से सजते रहे। बचपन की मीठी मीठी शरारतें अब यौवन के गाम्भीर्य में सिमटने लगी। भाई बहन होने के बावजूद भी दुनियावी व्यस्तताओं के कारण दोनों में एक स्वाभाविक दूरी आने लगी। मन से, विचारों से, आपसी समझ से दोनों एक दूसरे के पास ही थे पर अब इतना था कि बचपन के बचकाने खेल खत्म होकर गंभीर विषयों के विचार विश्लेषण में बदल चुके थे। बचपन की मीठी-मीठी टॉफियाँ और गुब्बारे के लिए किया गया झगड़ा अब यौवन में किसी विचार वैभिन्य की बहस में परिवर्तित हो गया था। समय बदल गया था। दोनों पढ़ लिख कर योग्य बन गये थे और अपनी-अपनी जिंदगी में रम गए थे। जैसे सबके होते हैं, उचित समय पर दोनों के विवाह भी हो गए और जीवन की व्यस्तता ने दोनों के बीच कभी नोक-झोंक तो कभी संवादहीनता की दूरी घोल दी।

दोनों के मन अनचाहे ही एक दूसरे के लिए दरवाज़े बंद करते चले गए। इसका कारण शायद दोनों के जीवन में पति-पत्नी के रूप में अन्य व्यक्तियों का समावेश था। दोनों ने अपनी जिंदगी में जो प्राथमिक स्थान एक दूसरे को दिया था वो स्थान उनके पति-पत्नी ने भर दिया था और वे दोनों एक दूसरे के लिए द्वितीय स्थान पर खिसक गए थे। क्षण, घंटे, दिन, महीने, साल बीतने लगे। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति रहने वाली कसक पर गलतफहमियों की धूल चढ़ने लगी। ये धूल कभी अहम् से उपजी होती तो कभी निरर्थक घटना , मन कसैला कर देती। दोनों के अपने परिवार व जिम्मेदारियाँ थीं, प्राथमिकताएँ भी बदल गयी थीं, वैवाहिक रिश्तों का भी दबाव था। दोनों भाई बहन के रिश्ते में घुली कसक शनै शनै अकारण ही रिश्ते धुंधले करती चली गयी। आपसी गर्मजोशी मंद पड़ने लगी। कारण बहुत महत्वपूर्ण नहीं थे लेकिन परिणाम, निराशाजनक तोड़ने वाले थे। दोनों के ही अन्दर तिल-तिल कुछ सुलगता था तो कुछ सुलगाया जाता था। रिश्तों का सिरा कहीं खो गया था, उस सिरे को अपनेपन की गाँठ की तलाश थी। अतीत की आँखों में तैरता साझा बचपन दोनों की प्राथमिक स्मृति में ताज़ा था ? लेकिन कहीं कुछ ऐसा नहीं था जो दोनों को इकट्ठा करके साथ खड़ा कर देता ।

रिश्तों की इन छोटी छोटी धूप-छाहीं कणिकाओं को समेट, दिन कभी सरपट भागते तो कभी मंथर गति में आगे बढ़ते रहते और एक दिन अचानक निरंतर बीतते इन्हीं दिनों में एक दिन ऐसा आया जिसने भाई बहन के रिश्तों को दमकता, जगमगाता उजाले से परिपूर्ण कर दिया। बात शुरू हुई एक साधारण फोन से, कारण था पुनिया अर्थात् पार्वती का मुन्नू अर्थात् माणिक से अपनी ननद के एम.बी.ए. पाठ्यक्रम के लिए मार्गदर्शन लेना। पुनिया के मुन्नू से फोन पर साधारण हालचाल की औपचारिक पूछताछ के बाद जब प्रवेश संबंधी जानकारी का ज़िक्र किया तो मुन्नू की कटाक्षपूर्ण बात आरम्भ हो गयी जिसमें मुन्नु ने पुनिया को काम पड़ने पर ही बात करने का ताना मारा। पुनिया बचपन से हो मुन्नू से लड़ने की अभ्यस्त थी। जब मुन्नु ने कहा

--- 'अच्छा! अच्छा! तो तुम्हारे फोन करने का यह कारण था, वो ही मैं कहूँ कि आज अचानक से मेरी याद कैसे आ गई।"

पूनिया बोली - 'तुम भी बात को कहाँ से कहाँ ले जाते हो, एक सीधी बात का टेढ़ा जवाब तुमसे बेहतर कोई नहीं दे सकता।' 

मुन्नू बोला -

‘टेढ़ा जवाब ? जवाबों और सवालों की गुंजाइश बची कहाँ है हमारे बीच पुनिया ?'

पूनिया बोली - 'सच है। रिश्तों का मान कम हो जाए तो एक दूसरे से प्रश्न-उत्तर का भी अधिकार क्षीण हो जाता है।' 

मुन्नू गंभीरता से बोला -

‘रिश्तों का मान ? रिश्तों का मान रखने की बात करती हो। क्या तुम जानती नहीं हो तुम्हारा मान क्या मायने रखता है मेरे जीवन में, तुम क्या मायने रखती हो मेरे लिए। तुम्हारी शादी के बाद हमारे रिश्ते में बिखराव पैदा हुआ, इस बिखराव के कारण जो भी रहे हों लेकिन यह मानने में मुझे संकोच नहीं कि भविष्य में फिर जो भी हुआ उसने इस बिखराव को और मजबूत किया। मैं यह नहीं कहता कि कमियाँ मेरी तरफ से नहीं थी लेकिन क्या तुमने सोचा कि तुमने हमारे रिश्ते को जरूरत से ज्यादा पुख्ता मान कर इस रिश्ते को पोसना बंद कर दिया। इस संसार में हर जीव निर्जीव चीज़ पोषण मांगती है फिर चाहे वो एक नन्हा पौधा हो या फिर एक मज़बूत रिश्ता। तुम्हें इस रिश्ते के न टूटने का इतना ज्यादा विश्वास कर लिया कि मेरा व्यक्तित्व तुम्हारे मन के हर कोने से विलुप्त

हो गया। मुझे या मेरी किसी भी बात को समय न देने की लापरवाही ने हमारे रिश्ते को सतही तौर पर कमज़ोर कर दिया। हम जानते थे और आज भी यह जानते हैं कि हम हमेशा एक दूसरे के लिए सहारा बन कर खड़े हैं लेकिन क्या इस एहसास के नवीनीकरण की आवश्यकता नहीं है? तुम्हारे पास सबके लिए समय है, पति के लिए, बच्चे के लिए, माता-पिता के लिए, ससुराल के लिए यहाँ तक कि मेरे बीवी-बच्चों के लिए तक तुम्हारे पास समय है, उनके लिए लाड़ है, दुलार है, लेकिन मेरे लिए? मेरे लिए क्या है तुम्हारे पास ? तुम्हारी इन व्यस्तताओं में मेरा हिस्सा, तुम्हारे भाई का हिस्सा कहाँ है पुनिया ?'

 पुनिया सन्न रह गई। मुन्नू सच कह रहा था। वो मुन्नू के रिश्ते को लेकर इतनी आश्वस्त, इतनी विश्वस्त थी कि उसने कभी भी मुन्न के रिश्ते की तरफ ध्यान नहीं दिया और उसके परिणाम में आज मुन्नू उससे ही उसका हिस्सा मांग रहा था। पुनिया जड़ हो गयी। उसे याद आया कि यह सच ही कहा गया है कि औरत बीवी, माँ, बेटी, बहू, भाभी, ननद सब कुछ है लेकिन इन सबसे अलग वह एक बहन भी तो है। वह तो व्यस्तताओं के चलते इस रिश्ते को विस्मृत करने लगी थी। रात भर विचार प्रक्रिया मस्तिष्क को मथती रही और सुबह का परिणाम बिल्कुल सुबह जैसा ही स्वच्छ, स्निग्ध, रंगों से भरा था। पुनिया फोन पर अपने भाई का नम्बर मिलाने लगी, उसे उसका हिस्सा और उसकी बहन वापस करने के लिए।



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