अंतिम यात्रा

अंतिम यात्रा

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"अरे सुभाषिनी गंगा जल कहाँ रखा है ?'

सुभाषिनी की सास ने सुभाषिनी से पूछा। सुभाषिनी ने पुन: प्रश्न किया - ‘क्यों माँ ?'

'अरे अब के लगता है अम्मा नहीं बचने वाली, गई रात कई बार सांस उखड़ी है अम्मा की। पहले कम से कम टट्टी पेशाब का निस्तार तो अम्मा खुद कर लेती थी, लेकिन दो-तीन दिन से सब बिस्तर पर चल रहा है।'

सुभाषिनी का अगला प्रश्न था - ‘माँ, दादी की उम्र कितनी हो गई होगी ?'

सासु माँ बोली - 'अब बूढ़े स्यानों की क्या उम्र याद रहती है ? चार पाँच महीने पहले जब अम्मा बातचीत करती थी तब पूछा था मैंने – 'अम्मा कितने बरस की हो गई हो ?' तो अम्मा बोली थी- 'पूरे बारह फाग बीते थे तब तुम्हारे ससुर ब्याह के लाये थे मुझे, सत्रह की थी तब सिद्धेश्वर (सुभाषिनी के ससुर) पैदा हुआ।

सुभाषिनी बोली - 'अम्मा जी, बाऊजी भी तो गई शिवरात्रि के दूसरे दिन पूरे छियत्तर साल के हो गए। इस हिसाब से अम्मा पूरे बानवे तेरानवे साल की हुई।'

'हो!' सुभाषिनी की सास ने हुंकार भरी। अरे सुभाषिनी अभी दिन है, थोड़ी सी तुलसी की पत्ती भी तोड़ के रख ले फिर कल बुधवार है तो तुलसी का बिरवा स्पर्श नहीं कर पाएंगे। कौन जाने कब जरूरत पड़ जाए। ऐसा कहकर सर पर आँचल संवारती सुभाषिनी की सास रसोई की तरफ बढ़ गई।


सुभाषिनी की सास का संशय सही निकला। सांझ ढले, दिया लिसने के समय सुभाषिनी की दादी सास की सांस फिर उखड़ने लगी। पूर्व नियोजित योजना के तहत दादी के मुंह में तुलसी की पत्ती व गंगा जल चुआ दिया गया और जल्द ही सुभाषिनी की दादी सास की रेल के इंजन की तरह धड़धड़ करती धड्कन, ठन्डी होकर मंद पड़ने लगी। और कुछ देर बाद किसी पुरानी घड़ी के पेंडुलम की भाँति थम गई।

‘अम्मा चली गई।' सुभाषिनी की सास की हल्की सी चीख निकली। लेकिन कुछ ही मिनटों में सब शांत और संयत हो गया। सुभाषिनी की सास ने घर में सूतक लगने की घोषणा की।

सास ने सुभाषिनी से कहा कि 'बड़े बक्सों में ताला डाल दे सुभाषिनी, अगर उन बक्सों के कपड़े हमने छू लिए तो ऐसी ठंड में कौन धोएगा इतने कपड़े? तीसरे की सफाई में वैसे ही पूरा घर-द्वार साफ करना पड़ेगा।'

सुभाषिनी की दादी सास का शव बिस्तर से उतार कर पार्थिव कर दिया गया। फर्श पर लेटे उनके शव के सिरहाने एक दिया बेमन से टिमटिमाने लगा। घर के बच्चे जो बूढ़ी दादी को सोया हुआ समझ रहे थे, कूद-फांद करने लगे। घर के बड़ों ने उन्हें डाँट-डपट कर अंदर वाले कमरे में ठेल दिया।

सुभाषिनी की सास, सुभाषिनी को किए जाने वाले और न किए जाने वाले कामों की ताकीद करने लगी। मसलन तीन दिन सब्जी में हल्दी नहीं डालना है, भगवान नहीं छूना है वगैरह वगैरह।

रात में अंतिम संस्कार का इंतजार करती मैयत ने घरवालों के रात का खाना बेमज़ा कर दिया। अगल-बगल के लोगों को जब सिद्धेश्वर के माँ के निधन का समाचार मिला तो शाल लपेटे कन टोपी लगाए कुछ लोग बाहर से ही हाल-चाल जान कर चले गए।

इतनी ठंड में घर जाकर रात में नहाने की इच्छा किसी की नहीं थी। एक भले मानस पड़ोसी ने अपने नौकर के हाथ चाय बिस्कुट भेज दिये थे। लेकिन सिर्फ चाय-बिस्कुट से क्या होता। सुभाषिनी और उसकी सास ने यथा योग्य रात के खाने का इंतज़ाम किया। सिद्धेश्वर खाने के दौरान अपने दोनों बड़े

लड़कों से तेरहवीं पर होने वाले खर्च, केटरर वगैरह की बात करने लगे। रात का पहर जैसे तैसे सरक कर बीत ही गया। सुबह जब अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए महिलाओं और पुरुषों का ताँता लगने लगा तो सुभाषिनी की सास व सुभाषिनी को किंचित रो कर दिखाना पड़ा।

समय पर आई मृत्यु, दुख का कारण कभी नहीं होती है। सुभाषिनी की दादी, जो कि अपनी सम्पूर्ण उम्र को भोग कर मरी थी, की मृत्यु, दुख का कारण तो कतई नहीं थी।

खानदान के बाकी लोगों को खबर कर दी है या नहीं ?' भीड़ में से एक महिला ने सुभाषिनी की सास से पूछा। सास का रोता हुआ प्रत्युत्तर था -

"दोनों देवरों को खबर कर दी है पर इतनी दूर से आना मज़ाक है क्या ? आने में दो दिन तो लग ही जाएँगे।'

'तब तक मिट्टी ऐसे ही थोड़ी रखी रहेगी!' महिलाओं के झुंड में से एक फुसफुसाहट उभरी।

बाहर पुरुषों में से कुछ ने बांस की व्यवस्था की। जिस व्यक्ति को अंतिम क्रिया की पूजा-पाठ के लिए लाने वाले सामान की सूची थमायी गई थी, वह पैसों के लिए सिद्धेश्वर प्रसाद को ढूंढने लगा। मखाने, रोली, चन्दन, लकड़ी, फूलों की माला, सब कुछ कितना मंहगा हो गया है आजकल, उक्त व्यक्ति ने सोचा।

अंदर महिलाओं के समूह ने शव के अंतिम स्नान व प्रसाधन की बात उठाई। सुभाषिनी जो रोज़ दादी के नहाने का पानी गरम करती थी, उसने पुनः दादी के अंतिम स्नान के लिए नहाने का पानी चूल्हे पर चढ़ा दिया।

महिलाओं की भीड़ सिद्धेश्वर जी की अम्मा के जीवन वृतांत पर चर्चा करने लगी। अंतिम संस्कार में एकत्रित हुई अधिकतर महिलाएँ (पड़ोसियों के अलावा) एक ही जाति विशेष अथवा समाज विशेष की होती है। ऐसे में दुख प्रदर्शन के अलावा दबी छुपी आवाज़ में अन्य चर्चाएं भी सर उठाने लगती हैं। मसलन किसके लड़के की कहाँ नौकरी लग गई और कौन सी अंतरजातीय विवाह की इच्छुक है फलाना फलाना।

सुभाषिनी की चाची, कई दिन से सुभाषिनी के दूर के रिश्ते की बुआ के लड़के से अपनी बेटी का रिश्ता चलाने के मूड में थी। आज सुभाषिनी की बुआ इस अवसर पर मिल गई थी अत: फर्श पर बैठे महिलाओं के समूह में आगे खिसकते खिसकते चाची सुहासिनी की बुआ के पास जा बैठी, फिर इधर-उधर की चर्चा करते करते पूछ ही बैठी

- 'नीरज आजकल कहाँ है ? आस्ट्रेलिया में है या मेलबर्न में ।

' सुभाषिनी की बुआ ने ठंडा एवं गर्वोन्मत्त जवाब दिया - 'मैलबर्न में "

नीरज की माँ अपने बेटे के इर्द-गिर्द ऐसी भिनभिनाती मक्खियों से बहुत गर्व महसूस करती थी, लेकिन मौका ऐसा था कि ज्यादा विस्तार से बात नहीं की जा सकती थी। क्योंकि अभी दस्तूर दादी की शवयात्रा के निभाए जाने थे ऐसे में लाज़मी था कि दादी विषयक अधिक से अधिक बातें की जाए।

जीवन के निरंतर बीतने वाले दिवस, भविष्य में स्मृतियों में रूपांतरित हो जाते हैं। लेकिन दादी के जीवन का लेखा-जोखा, निरंतर बढ़ती उम्र व बुढ़ापे के कारण विस्मृत हो धुँधला पड़ गया था। वैसे भी उनके जीवन में कोई असाधारण घटना घटी हो ऐसा किसी को याद नहीं था। लेकिन जन्म की तरह मृत्यु भी सदैव चर्चा का विषय रहती है। ऐसे में दादी की मृत्यु पर भी चर्चा आवश्यक थी अतः सामान्य सी घटनाओं का भी सिलाई-टांका उधेड़ कर महिलाओं ने मृत देह विषयांतर्गत चर्चा जारी रखी।

सामूहिक गहमा-गहमी के दौरान बाहर पुरुषों का एक छोटा समूह शवयात्रा की तैयारी कर रहा था। कुछ ही देर में यथेष्ट तैयारी के पश्चात शांत पड़ चुकी मृत देह को उसकी अंतिम यात्रा के लिए पूर्णत: तैयार कर लिया गया। थोड़े रवायत भरे रोने-धोने व चिल्ला चोट के पश्चात् दादी का शव, शव शैय्या पर रख दिया गया। पीले फूलों की मालाओं के अर्पण के बाद महिलाओं ने दादी को अंतिम विदाई दी।

'राम नाम सत्य है' की उच्चारित शाश्वत् शब्द ध्वनियों के बीच समभाव से पड़ा दादी का निश्चेष्ट शरीर, व्यक्तियों के चलने के कारण हल्का सा काँप जाता। कुछ ही देर में शव यात्रा अपने अंतिम प्रयाण स्थल पर पहुँच गई। शव के अग्नि संस्कार के लिए लकड़ी के गट्ठे का इंतज़ाम उस व्यक्ति ने पूर्व में ही कर लिया था, जिसे यह काम सौंपा गया था। शव की अंतिम क्रिया की पूर्व सूचना मुक्ति धाम वालों को दे दी गई थी परंतु शायद कुछ कागजी कार्यवाही में विलंब था अत: दादी का शव पेड़ के नीचे एक ओर रख दिया गया। बाक़ी के लोग वहीं कहीं सीमेंट की पड़ी बेंचों पर बैठे-बैठे जरूरी फोन कॉल्स निपटाने लगे।

कुछ ही देर के पश्चात् मानव स्वर समूहों की ध्वनि-तीव्रता कुछ उग्र सी जान पड़ी। झगड़े की संभावना देख, वो समूह जो सुस्त, बेंचों पर बैठ गए थे, उस और चल पड़े जहाँ से तेज़ आवाज़ों का स्वर सुनाई दे रहा था। तेज़ गूंजते शब्द निरन्तर होती बहस, बहुत देर तक समझ ही नहीं आया कि आखिर माजरा क्या है।


'अरे। आपने ऐसे कैसे कर दिया ?' सिद्धेश्वर के बड़े बेटे का चीखता सा प्रश्न सामने वाले के समूह के किसी व्यक्ति से था। सामने वाले समूह का विनयात्मक प्रत्युत्तर था - 'भैया ग़लती हो गई, थोड़ी सी मिस-अंडरस्टेंडिंग हो गई थी।'

सिद्धेश्वर के बड़े लड़के ने पुनः रोष से कहा - 'अरे ! आपकी मिस-अंडरस्टैंडिंग के चक्कर में हमारा काम तो बिगड़ गया।' सामने वाले का जवाब था

_' आप चिंता न करें, मैंने आदमी भेजा है अभी आ जाएंगी लकड़ियाँ।'

सिद्धेश्वर के समूह में खड़े एक व्यक्ति, जो अपनी ग्यारह बजे होने वाली मीटिंग को लेकर जल्दी में थे, देर की संभावना को लेकर चिंतित हो उठे और खीज कर तेज़ स्वर में बोले 'अरे ! कब आ जाएंगी लकड़ियाँ ? आप लोगों को ज़रा भी तमीज़ नहीं हैं, बना बनाया काम बिगाड़ दिया आपने।'

अभी तक अनुनय विनय करते समूह के कुछ उग्र युवा, इस तीखी टिप्पणी से बिगड़ गए और प्रत्युत्तर में वो भी आक्रामक तर्क-वितर्क करने लगे। बढ़ते-बढ़ते बात बहुत बढ़ गई।

दरअसल लड़ाई की वजह अग्नि-संस्कार में उपयोग में लाई जाने वाली लकड़ियाँ थीं जिन्हें सिद्धेश्वर के रिश्तेदार ने पूर्व नियोजित कार्य योजना के तहत पहले से ही बुलवा कर मुक्तिधाम स्थल पर रखवा दिया था। लेकिन ग़लती से उन लकड़ियों के ढेर का इस्तमाल दादी की शवयात्रा पहुँचने से पहले ही किसी अन्य दाह संस्कार के उक्त समूह द्वारा कर लिया गया था। इस कारण से इस झगड़े की शुरुआत हुई। अंततः झगड़े को निपटाने के उद्देश्य से दाह संस्कार कर चुके समूह के मुखिया ने वहीं मुक्तिधाम से लकड़ियों का ढेर ख़रीदा और सिद्धेश्वर जी के हवाले कर दिया।

लकड़ी का गट्ठर मिलने के पश्चात् उन लोगों ने चैन की साँस ली, जो जल्दी में थे और जिनके काम अटके हुए थे। शीघ्र ही गहमा-गहमी भरे विधि-विधान के साथ दादी को अंतिम विदाई दी गई एवं उनका दाह संस्कार किया गया। इस तरह इस सम्पूर्ण अंतिम यात्रा में शामिल लोगों ने चैन की साँस ली।

शायद जिसमें सबसे ज्यादा चैन की साँस मृत आत्मा द्वारा ली गई होगी।


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