archana nema

Drama

5.0  

archana nema

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परसू भैया

परसू भैया

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सब जगह परसू भैया ! परसू भैया ! की पुकार मची थी। पितरों के श्राद्ध में पंडित जी ने कहा - 

"एक दोना कौवे का , एक दोना कन्या का , एक कुत्ते का और एक दोना गैया का ।"

 पिता ने कौवे का दोना तो अटारी पर सजा दिया ,कुत्ते का दोना घर में पले शेरू को खिला दिया गया ; कन्या का दोनों नन्हीं कुहू कुतरने लगी ,अब बचा गैया का दोना ; परसू भैया ने झट से गैया को उसका हिस्सा खिलाने की जिम्मेदारी ले ली और दोना लेकर , गैया को ढूंढते ढूंढते बङी दूर निकल गए । यहां श्राद्ध के भोजन पर सब उनका इंतजार करने लगे । उनके लिए परोसी गई भोजन की थाली उनकी बाट जोहने लगी ।इतने में क्वाँर की तीखी धूप में, पसीने से लथपथ परसू भैया हाजिर थे सब ने समवेत स्वर में पूछा - "कहां चले गए थे ? "

परसू भैया माथे पर रूमाल फिराते हुए बोले -

 " अरे यह शहर में गाय ढूंढने सड़क पर जाना पड़ता है; हमारे गांव में अच्छा है ! गौ माता हरी हरी घास चरती किसी ना किसी कुंज कछार में कहीं भी दिख जाती है ।

 परसू भैया जल्दी-जल्दी भोजन ग्रहण कर सबकी यथा योग्य जोहार कर दोपहर की इंटरसिटी पकड़ निकल गए । परसू भैया को बाहर तक छोड़ जिज्जी और अम्मा रसोई के बर्तन भांडे समेटने लगी इधर काम के दौरान परसू भैया की चर्चा भी छिड़ गई । शांत संयत बड़बोले परसू भैया दरअसल मेरे ताऊ की आठ संतानों में से तीसरे नंबर की संतान थे उम्र के छठवें दशक को स्पर्श करते परसू भैया का असली नाम ताई ताऊ ने पुरुषोत्तम रखा था । पुरुषोत्तम मास के उजले पक्ष में जन्मे परसू भैया के जन्म पर कहते हैं दूर कहीं मंदिर में घड़ियाल व शंख बजने लगे थे ; इसलिए उनका नाम पुरुषोत्तम रखा गया ।परसू भैया ने अपने जन्म की इस घटना में अत्युक्ति का बतरस घोल ये भी प्रचारित कर रखा था कि उनके तलुए और हथेली पर जन्म के समय शंख चक्र गदा आदि के प्रतीक उभरे हुए थे । खुद को नारायण का अवतार घोषित करते परसू भैया " मैं पुरुषोत्तम हूं " की पुकार दोनों बांहों को आसमान की तरफ उछाल कर लगाते।

 रसोई के बर्तन भांडो से निपट कर शेष भोजन छोटे सकोरों में पोछ मां ,तख्त पर इत्मीनान से सरोते से सुपारी छीलने बैठ गई । जिज्जी , गाव तकिए को दीवार की तरफ अड़ा कर खुद भी उस पर औंधी सी शयन मुद्रा में आ गई ।परसू भैया की चर्चा का दौर अभी भी जारी था ।

जिज्जी बताने लगी "बाई " यानी जिज्जी की मां और मेरी ताई गांव में एक, बड़े बड़े दो आंगन , ओसारे ,रसोई व बड़े बड़े कमरों वाले मकान में अपनी सभी संतानों व ताऊ के साथ रहती थी । उसमें से ताई के दो लड़के तो नौकरी पानी की तलाश में बड़े शहरों में कूच कर चुके थे । जिज्जी और ताई की अन्य संताने उस समय छोटी थी ताई इतने बड़े परिवार के पालन-पोषण में दिन-रात लगी रहती । घर गृहस्ती के हजारों काम ताई किसी तपस्विनी सी निपटाती । ताई प्रथम प्रभातिका के साथ उठकर अंतिम संध्या किरण के निर्वासन के पश्चात तक लगी रहती । बुहारना झटकारना ,झाड़ना, धोना, पोछना, रसोई सब के सब जैसे ताई के अस्तित्व के अभिन्न अंग थे। ऐसे में एक दिन एक शुभ्र किरण ने ताई की गृहस्थी में प्रवेश किया । नाम था 'पदमा' ! सामने की एक किराए की कोठरिया कई दिनों से रिक्त थी उसी में यह नई किराएदार अपने संगी की महरारु बन कर आई थी । ताई को लगा यह कुठरिया किराए पर लिए पुरुष की ब्याहता है ; पर धीरे से समझ आया कि गांव में उस पुरूष के बीबी बच्चे पहले से ही है। वह तो पद्मा को घर की झाङू बुहारी रसोई आदि के लिये ले आया है । स्वभाव से ही उदार स्नेही 'बाई' , जो मां का पर्याय थी ने पद्मा की इस अतिरिक्त परिस्थिति पर ध्यान नहीं दिया और जल्दी ही पद्मा ,'बाई' की घर गृहस्थी का अभिन्न अंग हो गई ।  सुबह सबेरे जब पदमा का भरतारा, खा पीकर रात तक के लिए निकल जाता ; अपने घर का काम निपटा कर पदमा लहक के साथ 'बाई ! ' पुकारती और ताई की  गृहस्ती में शामिल हो जाती । भाई जब कभी शिवाला बनाने के लिए काली मिट्टी में भूसा मिलाकर सानती तो पीछे से पदमा उसे अच्छे से एकसार कर मसल डालती और काली मिट्टी नरम मैदे सी मुलायम हो उठती । दोपहर की रसोई से निपट ; बाई और पदमा कोई पुरानी सौंधी सी सोहर गुनगुनाती , काली मिट्टी से शिवालय को आकार दे उसमें बिराजता शिवलिंग भी अपनी उंगलियों के पोरों से थपथपा कर आकार दे देती ।

जब मिट्टी में बना शिवलिंग और शिवाला धूप में सूख जाता तो पदमा बाई को ओसारे से टेरती -

"बाई ! भोले बाबा और मंदिर को लुढ़िया से घोट दूं क्या ? "

बाई की सहमति मिलते ही पदमा काले चिकने पत्थर की लुढ़िया से मंदिर और शिवलिंग को रगड़ कर चीनी मिट्टी सा चमका देती और फिर दोनों उसे छुई मिट्टी से पोतकर मांहुर ,हल्दी ,चावल की लेई , ईन्गुर , रोरी आदि से ऐसा लोक चित्रण करती की समस्त देवालय स्वास्तिक, कलश ,विभिन्न तरह की फूल पत्तियां ,सूर्य चंद्रमा और सर्प जोड़ों एवं तरह तरह के ज्यामितीय आकारों से सज जाता और फिर उस में चना मसूर आदि दालें चिपकाकर मूंगे और मोती जड़ दिए जाते ।भादो मास में जब तीज आती तो पति की दीर्घायु मन्नत वाली तीजा (तीज का उपवास ) पर बाई और पदमा निर्जला रहती। दिन भर तरह-तरह के पकवान बनाती, फुलेरा सजाती और रात भर शिव पार्वती की मर्ण मूर्तियां पूज , ढोलक बजाती ,सोहरे गाती ,रात्रि जागरण करती। मेहंदी ,महावर ,हाथ भर चूड़ियों से सजी बाई और पदमा फिर संग बैठकर उपवास तोड़ती ।  

बाई और पदमा के इस क्रिया कलाप में परसू भैया अप्रत्यक्ष रूप से शामिल रहते । पायल से रुन झुन करती पद्मा के लिए परसू भैया ,बाड़ी से फूल तोड़कर पूरी टुकरिया भर देते । व्रत उपवास के फलाहार का जिम्मा परसू भैया का रहता । सतनजा , राजगीर के लड्डू , मूंगफली, दूध, केला, कुट्टू ; परसू भैया जैसे फलाहार का ढेर लगा देते । परसू भैया जैसे जाने अनजाने पदमा को केंद्र मानकर गाहे-बगाहे उसके इर्द-गिर्द घूमते रहते ।बाई ने भी परसू के दोपहर में भोजन जिमाने का जिम्मा पदमा को दे दिया । ओसारे में जब बाई बिना व्यवधान के धान कूटती तो पदमा को आवाज लगा देती कि वह परसू भैया को थाली परोस दे । पदमा भी काँसे के कटोरे में छाछ भर, पुरी भाजी सब्जी , तरकारी और पीतल का लोटा भर पानी परस, परसू भैया को भूमि पर बिठाकर ; बड़े जतन से भोजन जिमाती और शनै शनै इस तरह पदमा परसू भैया के जीवन में एक होले होले चलती स्वाभाविक पवन की अनिवार्यता सी शामिल हो गई ।इसी बीच एक अनहोनी घटना हुई पदमा का आदमी जिसकी वह ब्याहता नहीं थी अपनी ब्याहता व बच्चों के पास गांव वापस चला गया और फिर कभी लौट कर नहीं आया लेकिन पता नहीं परसू भैया की लगन थी या बाई का मोह पद्मा के मन पर इस घटना का कुछ विशेष असर नहीं हुआ ।वह पूर्व की भांति ही बाई के स्नेह और परसू भैया के नेह के बंधन में रंगी ,पगी ,मधुर झंकार सी झंकृत होती रही ।

 एक बार रात्रि भोज के समय ताऊ ने इस घर को बेचकर गांव में अन्यत्र कहीं किसी संभ्रांत मोहल्ले में जाने की बात कही। यह सुनकर परसू भैया पद्मा से विलगता कि बात सोच कर ,व्यग्र हो उठे और यह घर ना बेचने और ना छोड़ने की बात पर अड़ गए ।ताऊ और परसू भैया की वैसे भी कभी बहुत नहीं बनी ।छोटी-छोटी बातों में दोनों में झड़प एक आम बात थी ,लेकिन चलती घर में ताऊ की ही थी ।यहां ताऊ जी ने मकान बेचने का पक्का इरादा कर लिया था और कुछ दिनों पश्चात ताऊ ने वह मकान बेचकर गांव के किसी नये मोहल्ले में एक नया घर ले लिया । परसू भैया जल बिन मछली से फड़फड़ा गए , मरता क्या ना करता अंततः उन्होंने अपने ही बिक चुके उस घर के दो हिस्से खरीद लिए और अकेले ही वहां रहने लगे ; लेकिन बाई व अपने अन्य भाई बहनों के मोह के कारण वह अपना अधिकांश समय नए घर में ही व्यतीत करते । 

अभी तक पदमा अपनी पुरानी कोठरिया में ही रह रही थी परसू भैया का अपने पुराने मोहल्ले में आना जाना था । अकेली पदमा के ही नहीं मोहल्ले के भी हीरो थे परसू भैया । जिज्जी ने बताया ,एक बार उस पुराने घर वाले मोहल्ले में बड़ा भीषण अग्नि कांड हुआ था उस समय गोरे चिट्टे युवा जोश से भरपूर परसू भैया ने पचासों लोगों की जान बचाई थी ।बाई यहां गुहार करती रह जाती  

- "ना जारे परसू ना जा ! " पर परसू भैया आग में कूदकर, कहीं किसी छत पर चढ़कर, तो कहीं किसी आंगन ओसारे से खींचकर ,जलती अग्नि से कई जाने बचा लाए थे ,इसमें उनके सिर के बाल और हाथ भी जल गए थे ।

परसू भैया का सहज सरल व्यक्तित्व और मसखरा, बड़बोलापन उन्हें सर्वप्रिय बनाए रखता ।जिज्जी के अनुसार परसू भैया उस घर के मजबूत स्तंभ थे जिस पर वह पूरा घर टिका था । घर के बाहर निवास करने वाले भाई भी परसू के चौड़े कंधों पर भरपूर विश्वास कर निश्चिंत रहते ।परसू भैया का दौड़ कर सबकी मदद करना और उनका मजाकिया खिलअंदड़ापन उन्हें सब तरफ से लोगों से घेरे रखता ।परसू भैया जब हरी छींट का कुर्ता पहन कर गांव की सकरी गली से गुजरते तो वहां खड़ी कई युवतियों के चेहरे पर गुलाबी रंग छिटक पड़ता ।परसू भैया जब कई दिनों तक अपने नए घर वापस नहीं आते तो बाई ताऊ से छुपते छुपाते रिक्शा करके परसों भैया से मिलने पुराने घर पहुंच जाती ।

बाई आप कुछ अनमनी रहने लगी थी ।पदमा , नये मोहल्ले वाले घर आकर उन्हें टेरती नहीं थी ;खुद से ही उनके गेहूं फटक देती ,ओसारा झाड़ देती ,रसोई पका देती सब को बिठाकर जिमा देती थी ।बाई दिनों दिन क्षीण होती जा रही थी , एक रात उन्होंने पदमा से वचन लिया कि उनके मरने के बाद वह उनके परसू का ध्यान रखेगी । यह वचन रखवा कर फिर बाई बहुत दिन नहीं जी नही पाई ।जात पात की सारी दुविधाओं को दरकिनार कर उन्होंने कई बार परसू भैया को पदमा से विवाह की बात कही थी पर सामाजिक दायरों , जात पात की मर्यादा को परसू भैया अस्वीकार नहीं कर पाए और पदमा उनकी बिन ब्याही ब्याहता ही बनी रही । 

एक बार बाई के देहांत के पश्चात परसू भैया को बहुत तेज बुखार था ।सब बहनों की शादियां हो गई थी और भाई बाहर जा चुके थे ,परसू भैया घर में पूरी तरह अकेले थे ।बुखार का प्रकोप और ऊपर से कोई सार संभाल वाला भी नहीं था ।परसू भैया बेहोश होकर आंगन में गिर पड़े ।यहां दूर रहती पदमा को दो-तीन दिनों से परसों भैया दिखे नहीं थे ;वह विह्वल सी उन्हें देखने नए वाले घर की ओर चली आई , देखा परसू भैया चेतना शून्य आंगन के बीचो-बीच पड़े थे। व्यग्र , बेहाल पद्मा दौड़कर परसू भैया के पास पहुंची और तभी गई जब परसू भैया पूर्णरूपेण स्वस्थ नहीं हो गए ।

 बाई के जाने के पश्चात दोनों के संबंधों पर आपत्ति का दबाव बढ़ने लगा और अंततः परसू भैया हमेशा के लिए पद्मा के साथ अपने पुराने घर के खरीदे हुए एक ब्लॉक में रहने लगे । बहुत समय गुजर गया पदमा परसू भैया की बिन ब्याही ब्याहता सी सारे दायित्वों का निर्वाह करती ,उनके परिवार के ,उनके सामाजिक संबंधों को निभाती अपना जीवन निर्वाह कर रही है ।उसने कभी भी इस संबंध में कोई प्रश्न नहीं उठाया कि ब्याह की स्वीकृति मिलने के बाद भी परसू भैया ने उससे विवाह क्यों नहीं किया ।

पद्मा को सामाजिक नियम कायदे पता नहीं थे ; वह सिर्फ एक ही नाम को चीन्हती थी एक ही कायदा मानती थी। बिना किसी प्रश्न बिना किसी शक शुबहा के वह एक से ही प्रेम करती थी ; एक को ही समर्पित थी । उसके सारे प्रश्न उस नाम की चौखट पर जाकर तिरोहित हो जाते थे , सारी प्रवचनाएं गल जाती थी ।

आज अङतीस साल बाद की जीवन संध्या पर क्या पदमा के मन में परसू भैया और उसके संबंधों को लेकर ईश्वर से प्रश्न पूछने का मन नहीं करता होगा ।आज भी दोनों एक दूसरे की देखरेख में मस्त , निभते -निभाते, एक दूसरे की सार संभाल करते ,प्रेम पूर्ण ,सहज, सरल ,समर्पित, अप्रत्यक्ष दांपत्य निभा रहे हैं।



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