archana nema

Inspirational

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archana nema

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भुट्टों का ठेला

भुट्टों का ठेला

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भादो का महीना उफान पर था। चमकीली धूप वाले आकाश पर नीले स्याह बादलों की टुकड़ी ने कब्जा कर रखा था। दौड़ते भागते शहर की काली सर्पीली सड़क पर शाम को दोनों ओर कतार बद्ध स्ट्रीट लाइटें रोशन हो झिलमिलाने लगती। पुराने पुल पर बनी इस सड़क के एक और इस शहर की शान एक सुंदर सी झील दूर तक पसरी थी। इस नम-नम हूक सी उठाती संध्या को सफेद फड़फड़ाते परिंदों के अक्स से मानो इस झील का शीशा जीवंत हो उठता। झील के किनारे- किनारे बने पाथवे पर शाम को, चहल कदमी करने वाले लोगों की गहमागहमी रहती। कई प्रेमिल जोड़े इस गहमागहमी के माहौल को दरकिनार कर किसी वृक्ष के झुरमुट में एक दूसरे की उंगलियों को सकुचाते से सहलाते, अपनी प्रेम वार्ता में ग़ाफ़िल रहते। उनके आंखों की संकुचित, गुलाबी सी वो मुस्कान झील के किनारों पर नि:शब्द चस्पां ;गुलाबी शाम की रंगत से जैसे एक साम्य हो जाती।  झील के आकर्षण से बंधी भीड़ चौतरफा उसके किनारों पर तितर-बितर होती रहती। इस भीड़ से अपना जीविकोपार्जन करने वाले कई छोटे-बड़े रेवड़ी वाले ठेले वहीं झील के ऊपर बने पुल पर बनी सड़क के दोनों ओर अपना -अपना खोमचा लिए एक तरतीब में खड़े रहते। सुनहरे किनारे वाली लाल स्कर्ट पहनी गुड़ियों का ढेर लेकर सड़क पर एक किनारे बैठा दुकानदार अपने नन्हें ग्राहकों का इंतजार करता तो वही आधुनिक स्प्राउट सलाद के चकमक करते ठेले, एप्रेन पहने रेवड़ी वालों से कतार बद्ध खड़े रहते। तवे पर सिकती आलू टिक्की पर करछुल की टक-टक से उड़ती गर्म भाप जैसे ठेले पर लगे बल्ब की रोशनी में कुछ और चटपटी हो उठती।  ऐसे में पुल के चढ़ाव पर सड़क की एक कोर पर कुछ सोंधी सोंधी भाप उड़ाते भुट्टे के ठेले भी अपनी लकदक से विद्यमान रहते। भुट्टे वाले छोटे छोटे कोयलों को एक पुरानी तगारी में सजाए भुट्टे के दानों को धीमी आंच वाले अंगारों पर बांस की खपच्चियो से बने बीजने (पंखे) से झलते हुए सेकते रहते। भुट्टों से निकलती भाप गदराए दानों को पट् पटा देती और पट् पट् कि यह मीठी सी ध्वनि सीले-सीले माहौल को जैसे और नम बना जाती।जब भी मेरा मन उचाट सा होता मैं भी अनमने कदमों से पुल के ऊपर बनी सड़क के पाथवे पर चहलकदमी करने लगता। मैं लोहे की रेलिंग के उस पार से, ढलती सांझ में गुलाबी नारंगी रंगों में आती रात का स्याह रंग घुलते देखता। कभी-कभी यूं ही बिना सोचे बिचारे मंदिर की बाह्य दीवार वाले किनारे पर लगे भुट्टे के ठेले वाले से बतियाने लगता। सड़क के इसी किनारे पर मंदिर से लगी चूना पुती बाहरी दीवार के आखरी मुहाने पर शंकर भी अपना भुट्टे का ठेला लगाकर खड़ा रहता। धीमे लाल नारंगी अंगारों पर भुट्टों को पंखा झलता शंकर, अनजाने में जैसे भुट्टे की पट्पट् से मानो एक संगीत संतति सी तैयार करता रहता। अंगारों पर सिकते भुट्टों को कुरेदते, पंखा झलते शंकर के हाथ उसके निर्विकार चेहरे और सूनी आंखों से कोई साम्य नहीं रख पाते। रोज रोज मिलते रहने से हम दोनों का एक अनचीन्हा सा रिश्ता बन गया था।

भुट्टा खाने का तो जैसे बहाना था, इस शहर से अनजान में, को जैसे अनचाहे ही एक कहने सुनने वाला साथी मिल गया था। शंकर से की गई बातों से एक दिन पता चला कि वह इस शहर का नहीं है, इसी शहर के एक सुदूर हिस्से में बसे गांव का वो रहने वाला है। गांव में खेती-बाड़ी, गैया बैल सभी कुछ तो था। खेती-बाड़ी के साथ ही साथ तीन-चार जर्सी गाय भी थी। छोटी सी आबादी के पूरे गांव में शंकर की जर्सी गायों का दूध ही चलता था। शंकर की गिनती गांव के रसूखदार लोगों में होती थी लेकिन एक बार खेत में लगी पैदावार, खराब मौसम के चलते नष्ट हो गई। अधिया बटिया की दी गई जमीन से भी अच्छी पैदावार ना होने के कारण गांव के किसान कर्ज के जंजाल में फंस गए थे। शंकर भी उनमें से एक था। बर्बाद खेती को संभालते संभालते घर के गाय बैल ढोर डन्गर सब बिक गए। घर की आर्थिक स्थिति निकृष्टता की ओर जाने लगी और शंकर को जीवन आगे चलाने के लिए शहर का रुख करना पड़ा। शहर में भी कामकाज का कुछ पक्का ठिकाना नहीं बन पाया, आज यह काम तो कल पहला काम छोड़कर कोई दूसरा काम। हर बदलते मौसम में शंकर अपनी कमाई का साधन बदल देता। कभी गली मोहल्ले में सब्जियां बेचता हुआ हुंकार लगाता तो कभी सड़क के एक किनारे पर फल और नारियल पानी बेचता नजर आता। उसके जीवन में जैसे एकरूपता और ठहराव का अभाव था। जीविकोपार्जन की कोई स्थाई व्यवस्था ना होने के कारण वह हमेशा एक अस्थिरता का शिकार रहता। लेकिन फिर भी शंकर इस शहर में एक सफल डेयरी उद्योग को चलाने का सपना देखता रहता। उम्र के तीस पड़ाव पार कर लेने के बाद भी जीवन का यह अस्थायित्व उसको कचोटता था। उसके ठेले पर ढलती नम सांझ में जब भुट्टा खाने कई प्रेमिल जोड़े आते और एक दूसरे में डूबते से बतियाते तो शंकर का प्रसुप्त यौवन अपने संभावित साथी को पाने अकुलाने लगता। लेकिन जीवन की आर्थिक अस्थिरता जैसे उसकी ही तरह पंखा झल कर उसके घर बसाने के स्वप्न को भूनकर जला देती। अभी पिछले इतवार की ही तो बात है मां के कहने पर वह जानकी के घर विवाह प्रस्ताव लेकर गया था। किसी मोटी मोटी बादामी आंखें थी उसकी। चोटी में लगा लाल रिबन चलती हवा से कैसा फड़फड़ा रहा था। सुनहरे गोटे वाली लाल साड़ी की किनारे को उंगलियों से मरोड़ती अंगूठे से देहरी कुरेदती, जानकी की स्मृति, शंकर अपने साथ-साथ घर तक ले आया था और बहुत प्रयत्न से भी भूल नहीं पा रहा था। लेकिन बात वही उसकी आमदनी पर आकर अटक जाती। "लड़का क्या करता है ?" पूछे गए प्रश्न का उत्तर जब "भुट्टे का ठेला लगाता है " दिया जाता तो शंकर पर मानो अनगिनत, अनदेखी मुष्टियो का प्रहार हो पड़ता। "इतनी कम आमदनी में घर कैसे चलाएगा " के अनपूछे प्रश्न सामने वाले की आंखों में उभर आते और बात समझो वही खत्म। सुलगते अलाव के अंगारों पर चट् चट् बोलते भुट्टों के संगीत के मध्य शंकर का जीवन एक दिन लान्घ कर अगले पर चढ़ जाता और शनै:-शनै: दिवस मास में बदलते जाते। भादो बीत कर क्वाँर लग गया था। आसमान में एक बड़ी स्याह चादर की तरह पसरे, धुआं धुआं बादल खुद को समेटकर, सफेद घुंघराले गुच्छों में बदल चुके थे। आसमान भी अपना बदरंग कलेवर उतारकर उजले हल्के नीले, फिरोजी रंगों में बदलने लगा था। भुट्टों की भी बस समझो आखरी खेप शेष थी। शंकर के मन में भुट्टे का सीजन बीतने के साथ साथ नए रोजगार की तलाश की उधेड़बुन चलने लगी थी। भुट्टे के ठेले समटने लगे थे, उनकी जगह रेवड़ी गजक के ठेले लेने तैयार थे। एक शाम, शंकर यूं ही निर्विकार सुलगते अंगारों पर भुट्टों के ऊपर कुछ गुनताड़े में डूबा पंखा झल रहा था। मैं भी रोजमर्रा के कामकाज व घरेलू जिम्मेदारियों के चलते बहुत दिनों तक बाहर नहीं निकला तो शंकर से मुलाकात नहीं हो पाई। आज छुट्टी के दिन बारिश थमी थी तो सोचा क्यों ना टहल के आया जाए। मुझे देखकर शंकर ने एक फीकी सी मुस्कान बिखेर, मेरे हाथ में हरी चटनी और नींबू वाला भुट्टा थमा दिया। मैंने यूं ही शंकर से पूछा-" क्या बात है आज कुछ उखड़े से हो" शंकर ने इतवार वाला जानकी से मिलने का किस्सा कह सुनाया। मैं शायद इन दिनों शंकर के अधिक नजदीक आ गया था शायद इसीलिए शंकर ने अपनी नियमित कमाई के अभाव की भड़ास खिन्नता, गुस्सा और क्षोभ जैसे सब एक साथ कह सुनाया। मैंने शांत और संयत होकर उसकी एक एक बात को गौर से सुना और उसे सांत्वना देने का भरसक प्रयास करता रहा। मैंने उससे कहा कि कोई ना कोई रास्ता जरूर निकल आएगा।  


समय बिना किसी की परवाह किए बिना अपनी परवाज़ में मशगूल था और इस तरह क्षण, दिनों की बेल चढ़ते महीनों में बदलते रहे। एक दिन दरवाजे पर जोर-जोर से दस्तक हुई। शाम का समय मेरा नितांत निजी व विश्राम का समय हुआ करता था। इस समय कौन आया होगा यह विचारता मैं, दरवाजे की तरफ बढ़ा। दरवाजा खोलने पर चेहरे पर हजारों रश्मियों की चमक दिए शंकर खड़ा था। हाथ में एक आमंत्रण पत्र था। चरम उत्साही शंकर को संभालते हुए मैंने उसके कंधे को पकड़, उसे अंदर की तरफ खींचा और सोफे पर बैठा दिया। उसके इस अपार उत्साह और प्रफुल्लता का कारण पूछा तो उसने बताया कि मंगलवार को उसके डेयरी का उद्घाटन है। मैंने इस चमत्कार का कारण पूछा तो उसने बताया की एक शाम वह अपना भुट्टे का ठेला समेटकर घर की तरफ जा रहा था तो रास्ते में जानकी से मुलाकात हो गई। इस मुलाकात में जानकी इतनी शर्मीली नहीं जान पड़ी। जानकी से बात करने पर उसने पाया की पहली बार मिलने पर जानकी भी अपने संभावित जीवन के साथी के रूप में शंकर का चयन कर चुकी थी लेकिन शन्कर के यह कहने पर कि उसकी कोई नियमित कमाई अभी नहीं है जानकी सोच में पड़ गई। जानकी ने उससे पूछा कि हम मिलकर भविष्य में क्या कर सकते हैं। शंकर ने अपने डेयरी उद्योग के सपने के बारे में जानकी को बताया। जानकी जो स्वयं भी पढ़ी लिखी थी और एक घर में होम ट्यूटर का काम करती थी। बच्चों को पढ़ाते पढ़ाते मेहनती और लगनशील जानकी की उस घर में अच्छी साख बन गई थी। जानकी जहां काम करती थी उस घर के मालिक बैंक में कार्यरत थे। जानकी ने शंकर से कहा कि वह जरूर हमारी मदद कर सकते हैं। जानकी ने अगले दिन शंकर को अपने मालिक से मिलने के लिए बुलाया। मालिक ने सभी बातें ध्यान से सुनी और उन्होंने कई रोजगार परक जानकारियां जानकी और शंकर को कह सुनाई। शंकर ने अपने डेयरी उद्योग डालने की बात को कहा यह सुनकर बैंक में कार्यरत साहब ने कुछ जरूरी कागजात लेकर शंकर को अगले दिन बैंक बुलाया। शंकर जो खुद भी स्नातक था ने जानकी के साथ मिलकर डेयरी उद्योग खोलने के लिए सरकार से लोन का आवेदन किया। शीघ्र ही शंकर के लोन का आवेदन स्वीकृत हो गया और छोटे उद्योग के लिए शंकर को एक बड़ी धन राशि प्राप्त हो गई। इसी के चलते शंकर और जानकी की सहभागिता में कल उनकी नई डेयरी का उद्घाटन है ; जिसके लिए उसने मुझे आमंत्रित किया है। मैंने शंकर को ढेरों ढेरों बधाईयों से नवाज दिया और उसके डेयरी के उद्घाटन में जरूर आने का वादा भी किया। शंकर को विदा करने के बाद मैंने देखा आसमान में शुक्ल पक्ष की द्वादशी का चांद अपनी पूरी लक दक के साथ प्रकाशित था। कहीं दूर शहनाई की मीठी गूँज कानों में रस घोल रही थी और शंकर अपनी लजीली आंखों वाली, दुल्हन बनी जानकी का हाथ थामे खड़ा था। म


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