विद्यालय

विद्यालय

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जमाना आज का नहीं आज से कोई 30 40 साल पुराना होगा जब स्कूल स्कूल ना कहा जाकर विद्यालय कहा जाता था और क्लास की जगह कक्षा का संबोधन प्रचलित था। कक्षा में चमचमाती टेबल व बेंच नहीं जूट की टाट पट्टियां होती थी जिन्हें कक्षा में या बहुदा कक्षा के बाहर भी तरतीब से बिछाकर छात्र-छात्राओं के बैठने का प्रबंध किया जाता था। दीवारें भी बेरस सी कंक्रीट की बनी नहीं होती थी, लकड़ी की शहतीरों से बनी छत पर पकी मिट्टी की खपरैल और बुरादे , गीली मिट्टी की जुड़ाई से बनी दीवारों से बड़ा अपनापा लगता था।

शिक्षक को परम आदर के साथ मास्टर जी और शिक्षिकाओं को मैडम के स्थान पर बहन जी का वरद प्राप्त था जो कई बार आंचलिक सुविधा के चलते ,"भैनजी" में तब्दील हो जाता था। विद्यालय का हर मौसम शरद की चांदनी रात सा मन में हमेशा सुगंधित बयार सा महकता था। बारिश हो जाती तो विद्यालय का प्रार्थना गार या कच्चा आंगन पहली फुहार की कृपा दृष्टि से लबालब भर जाता और कुछ ही देर में हम सब बच्चों की बड़े जतन से बनाई कागज़ की सफेद नाव पूरे प्रांगण में तैरने लगती और इन नाँव की अधिक दूरी की प्रतिस्पर्धा का दौर बच्चों की हुल्लड़बाजी के बीच जारी हो जाता। जब ठंड का मौसम आता तो पूरी कक्षाएं अपनी टाट पट्टी को बगल में दबाए पुनः विद्यालय प्रांगण में आ निकलती ठंड की चटकीली धूप में रंग बिरंगे कपड़े पहने बच्चे ,सिलेट पट्टी थाम चिरोरी करते तो ऐसा लगता बसंत के सारे फूल उस प्रांगण में खिल उठे हो ।


और फिर हमारी परम पूजनीय बहनजियों की भी चांदी हो जाती, वे वहां बाहर धूप में अपनी रंग बिरंगी ऊन सलाइयों के साथ उनके मुन्नू के पापा की हाफ स्वेटर बुनती, गई रात की सास की झिड़की को मुंह बिसूरती विष्लेषित करती। बीच-बीच में शोर मचाते हम बच्चों पर हुकारना भी नहीं भूलती और अगर कोई बच्चा उनकी हुंकार को सम्मान न दे अपने मनचले पन में गाफ़िल रहता तो पास ही बेशर्म के पेड़ की लचीली संटी से उसकी धुनाई करने में भी उन्हें कोई गुरेज ना रहता।

आधी छुट्टी में जब भूख लगती तो स्कूल के गेट के बाहर खोमचे वाले की छोटी-छोटी समोसियां , गुलाब लच्छे, गुड़ डली मीठे बेर की लब्दो, गटागट, जीरावटी, विलायती इमली ,रंग बिरंगी चटपटी खट्टी मीठी गोलियां हम बच्चों के ब्रेक को लजीज बना देती।

विद्यालय जाते समय कभी पैरों में चप्पल होती तो कभी नंगे पैर ही स्कूल जाते हम बच्चों को अपनी बेचारगी का एहसास कभी ना होता। किसी लड़की की फ्रॉक के पीछे के हुक ना होते तो किसी लड़के की निक्कर का नाड़ा लटकता होता लेकिन यह सब न्यूनताए कभी भी हमारे स्कूली आनंद को कम नहीं कर पाती और हम सब उन्मुक्त पंछी से विद्यालय की प्राचीर के अंदर अपनी उड़ान में मदमस्त रहते।

काले रंग की सिलेट पट्टी और चूने की चाक बत्ति के साथ हमारा चलता फिरता ब्लैकबोर्ड सदा हमारे साथ रहता, उसको साफ करने के लिए एक कपड़ा या फोम का टुकड़ा हमारी छोटी सी टीन की पेटी में सदा महफूज रहता। विद्यालय के प्रांगण के गलियारे में जहां प्राचार्य का कमरा होता उसके पास एक लोहे की गोल चकती टंगी रहती। रामदास काका जब लकड़ी के गुट्टे से उस पर टन ! टन ! टन ! का प्रहार करते तो सारे बच्चे किसी " सेफ्टी एंड सिक्योरिटी "की हदों से दूर शोर मचाते एक दूसरे को धकियाते पानी के रेले की तरह विद्यालय की बाहरी प्राचीर से बहकर बाहर निकल जाते। विद्यालय से घर पहुंचने की भी कोई जल्दी नहीं होती क्योंकि विद्यालय से सटे मैदान में फुकड़ी ,फिरकी, गुलाम डंडी ,पिट्टू कबड्डी, घोड़ा बादाम छाई के खेल में हमारा बचपन परवान चढ़ता रहता। धूल से सने स्वेद कणों से पोषित बस्ता पेटी घसीटते से हम घर जा पहुँचते ।

प्राथमिकी की पढ़ाई जब संपूर्ण हुई तो माध्यमिकी की पढ़ाई के लिए भी हमारा दाख़िला एक सरकारी स्कूल में करा दिया गया। यह वह समय था जब हल्की-हल्की केशौर्य तरंगे हमारे मन मस्तिष्क से टकराकर हमें गुदगुदाने लगी थी। फ्रॉक के टूटे हुक और कंधे पर फ्रॉक संभालती नंगी पीठ के दिन अब लद गए थे, निक्कर के बाहर लटकता नाड़ा अब तरतीबी से उमठकर अंदर चला गया था।अब विद्यालय गणवेश को पीतल के लोटे में अंगार भरकर प्रेस किया जाने लगा। रूखे बालों में तेल डालकर पटिए पाड़ दिए जाते। एक कंघी भौंह पर भी मार कर उन्हें व्यवस्थित कर दिया जाता। बड़े होने के कारण यदा-कदा पढ़ाई पर भी ध्यान चला जाता और कॉपी में "प्रकाश सीधी रेखा में गमन करता है "के सिद्धांत को सिद्ध करते हुए उसका चित्र भी बना दिया जाता। घर में अम्मा जब कुछ हिदायतें देती तो अपनी अधकचरा पढ़ी-लिखी बुद्धि के आधार पर हम अपनी भोली भाली अम्मा को विज्ञान का कोई फार्मूला समझा कर "तुम्हें पता नहीं है " का जुमला उस पर जड़ देते और हमारी अनभिज्ञ अम्मा अपने विस्तारित नेत्रों से हमारा लोहा और अपनी हार मान जाती।

माध्यमिकी को धक्का खा कर पार करके हम उच्चतर माध्यमिक कक्षा में प्रवेश पा गए वहां जाकर हमारे धाकड़ पन पर कुछ लगाम कसी क्योंकि पढ़ाई में औसत हमारी बुद्धि अपने कुशाग्र मेधावी सहपाठियों के समक्ष कुछ डरी सहमी रहती। लेकिन जैसे ही विद्यालय से बाहर आते हमारा वही चित परिचित बिंदासपन पुनः हम पर हावी हो जाता। जैसे तैसे उच्चतर माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण कर हम फिर जिंदगी की पढ़ाई करने जीवन के कुरुक्षेत्र में उतार दिए गए। अब हाल ये है कि अपने विद्यालय के दिन और बचपन, सब विस्मरण की कगार पर है क्योंकि अब हमारे बच्चे तथाकथित हाई सोसायटी के' विद्यालय 'नहीं ' स्कूल ' में पढ़ते हैं जहां नाँव तैराने की, खट्टी मीठी गोलियों और समोसीयों की, टाट पट्टी की सुविधाएं तो नहीं है लेकिन हां ! हर महीने मोटी रकम जमा करने की रसीदें, बच्चे के सर्वांगीण विकास के नाम पर होती एक्टिविटीज के अतिरिक्त शुल्क, एक्सकरसन शुल्क, एनुअल डे पर कॉस्टयूम जैसे कई शुल्क हमें स्वप्न में भी डराते हैं। नई शिक्षा नीति के आधार पर बच्चों का जनरल प्रमोशन, शिक्षा का अधिकार के तहत अयोग्य को सुविधाएं, बच्चों को पढ़ाई ना करने, सबक याद ना करने, शरारत करने आदि पर सजा से छूट आदि ऐसे ढेर सारे झोल हैं जो सर्वांगीण शिक्षा के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाते जान पड़ते हैं ऐसे में अपने पुराने विद्यालय के दिन याद करते हुए कबीर दास जी का दोहा

" गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है

गढी गढी काढ़े खोट

अंतर हाथ सहार दै

बाहर मारे चोट"

ज़ख्म पर मरहम के फोहे के समान है ।



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