ग़म में शरीक हो !
ग़म में शरीक हो !
नूर गोरखपुरी एक उभरते हुए शायर थे। देखने में बेहद ख़ूबसूरत। साढ़े पांच फिट की लम्बाई और चेहरों पर लटकती काली और ख़ूबसूरत ज़ुल्फ़। यूनिवर्सिटी के दिनों से वे दिलफेंक आशिकी और शायरी करने लगे थे।
मैं भी थोड़ा बहुत उनकी शायरी सुनने का शौकीन था। जब पीरियड्स खाली होते थे तो शहीद नागेंद्र पार्क में हरी घास पर बैठकर वह अपनी डायरी खोल लिया करते थे और शुरु हो जाते थे।
"एक साथी ऐसा चाहिए जो ग़म में शरीक हो,
जब भटकें हम तन्हाइयों में दिल के क़रीब हो।
ख़ुदा न करे उस शख्स से मेल ओ मुलाकात हो,
कहने को जो हो दोस्त मगर हक़ीकत में रक़ीब हो।"
मेरे वाह वाह करने पर नूर साहब अपनी शेर ओ शायरी की स्पीड और बढ़ा दिया करते थे। मानो उन्हें टानिक मिल गया हो।
"छत के ऊपर चांद और छत के नीचे महबूब है,
कौन करे ये फैसला, कौन जियादा ख़ूब है !"
और इसी शेर में आगे चलकर वे कुछ यूं जोड़ते कि, चांद की है चांदनी तो मेहबूब के हुस्न का नूर है।
तब तक अगले पीरियड का समय हो जाया करता था और यह शेर ओ शायरी की महफिल रुक जाया करती थी।
यह वाकया तकरीबन पिचहत्तर-छिहत्तर का है। अब तो मेरी यादों में भी मकड़ी के जाले लगते जा रहे हैं।नहीं तो यादों की चिलमन से नूर साहब के ढेर सारी शेर ओ शायरी हम आपकी नज़र कर देते!
अपनी गंगा-जमुनी तहजीब के लिए मशहूर उस शहर में रवायत रही है कि रात रात भर लोग ओढ़ना बिछावन लिए मुशायरे और कवि सम्मेलन सुना करते थे। दिग्गज शायरों और कवियों के साथ साथ नूर साहब जैसे नये शायर और कवियों को भी अपनी प्रतिभा दिखाने का मौक़ा मिल जाया करता था। उन दिनों में कवियत्रियों की संख्या कम हुआ करती थी। जो आती भी थीं वह किसी शायर या कवि की कविताओं को ही अपना कहकर बांचा करती थीं। हालांकि, अब मंजर बदलता जा रहा है लेकिन, यह तल्ख़ सच उन दिनों के लिए था।
ऐसे ही एक आयोजन में मेरे शायर दोस्त नूर मियां की मुलाक़ात शोख और हसीन युवा शायरा नूरजहां से हो गई। वे बरेली से किसी शायर की सरपरस्ती में लिख-पढ़ रही थीं।उनको जब पेश किया गया तो उन्होंने कुछ प्यार-मोहब्बत के शेर पढ़े।युवाओं की संख्या ज्यादा थी सो उन्होंने उनको सिर-माथे पर बिठाया।एक और, एक और की आवाज़ें आती रहीं। मोहतरमा अगला शेर पढ़ने लगीं।
"इश्क़ के सवाल को दे इश्क़ से जवाब,
तेरी मेरी जोड़ी होगी बेशक लाजबाब।
आंखें होंगी मेरी और तेरे होंगे ख़याल,
तेरा मेरा इश्क होगा दिलबर लाजबाब ।।”
तालियां बजने लगीं। उस रात को शहरवासियों ने ख़ूब इन्ज्वाय किया।वह दौर आजकल जैसा नहीं था।प्यासा कुंए के पास जाता था, कुंआ प्यासे के पास नहीं आता था जैसा आज के दौर में हो रहा है।
नूर साहब ने जब मेरे साथ यूनिवर्सिटी को अलविदा कहा था तो वे भी ला ग्रेजुएट हो चुके थे। उनके अब्बा हुज़ूर चाहते थे कि अब वे रजिस्ट्रेशन वगैरह करवा कर प्रैक्टिस करने कचहरी तशरीफ़ ले जायं और वे इसके सख़्त ख़िलाफ़।
वे कहते मेरा मिजाज वकालत पेशे का नहीं है। बहरहाल वे जूडिशियरी में तो गये लेकिन जज बनकर।?उन्होंने हायर जुडिशल सर्विसेज की परीक्षा दी और सेलेक्ट हो गये।
हां, तो बात ये हो रही थी कि शेर ओ शायरी और दिल की डायरी के मामले ने नूर साहब के यूनिवर्सिटी लाइफ़ में उनके चाहनेवालियों की संख्या बढ़ा दी थी। हर कोई उन पर फिदा था। लेकिन एक तो शहर उतना खुलापन पसंद नहीं करता था दूसरे उनके घर वाले उनके निकाहनामे को तैयार थे।
एल.एल.बी.पास करते करते उनका एक अनपढ़ लड़की से निकाह हो ही गया। वे जितने ही शायराना तबियत के थे उनकी बीबी उतना ही गुड़ गोबर। ज्यों ही उनका सेलेक्शन हुआ वे अकेले चलते बने। घर वालों को भी एक फायदा यह नज़र आया कि उनका परिवार रहेगा तो उसी बहाने रुपये-पैसे आते रहेंगे।
नूर साहब तबियत से अदालती कामकाज में निपुणता पाने लगे।उनके फैसलों में भी उनके अदबी कार्यकुशलता का पुट रहा करता था। कुछेक फैसले तो बार और बेंच में बहुत ही चर्चित रहे।
हां ,मुशायरों में उनका आना जाना लगभग समाप्त हो गया था।बेशक, डायरी अब भी वे बिना नागा लिखा करते थे।
ज़िन्दगी है तो इम्तिहान भी है। एक इम्तिहान ख़त्म तो दूसरा शुरु। इस बेरहम दुनियां में इम्तिहान मौत के बाद भी पीछा नहीं छोडते। चलो, इतना अच्छा है कि आदमी ऐसे चला जाता है कि फिर नहीं लौटता यह देखने के लिए कि दुनियां ने उसे आख़िरी इम्तिहान में फेल किया या पास!
भले ही शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुंचे थे नूर साहब लेकिन उनके धड़कते दिल का सूनापन उनको कभी कभी बेचैन कर देता था।
उन्हें अपने ही शहर के एक महान गैर मुस्लिम शायर याद आया करते थे जो देश में ही नहीं सारी दुनियां में अपनी साख बना चुके थे। लेकिन उनकी निजी ज़िन्दगी में कभी भी बहार नहीं आ पाई थी। उन्हें इलाहाबाद के वे अख्खड़ी महाकवि याद आते जिनकी कविताओं में आसमान चूमने की क्षमता थी लेकिन जिनका पारिवारिक जीवन बहुत बढ़िया नहीं था।
अचानक एक दिन नूर साहब जब ऐसे ही ख्वाब ओ ख़याल में डूब उतरा रहे थे कि देर रात उनके घर से फोन आया कि उनकी बेग़म का इन्तेकाल हो गया है।
अगली सुबह वह गोरखपुर में थे। तुर्कमानपुर के कब्रिस्तान में बेगम को सुपुर्दे ख़ाक करके जब वह घर लौटे तो घर के सभी लोग उनको ढाढस दे रहे थे। देर शाम जब उन्होंने अपने कमरे में अपनी बेग़म के बक्सों को एक एक कर खोलना शुरु किया तो उसमें तमाम डायरियों में उनकी बेग़म की उल्टी सीधी राइटिंग में शेरो शायरी लिखी पड़ी थी।
एक पेज पर लिखा हुआ था;
"तुम इश्क की दुनियां में कुछ यूं रहे मशरुफ़,
आवाज़ दे रही थी मगर... तुम न सुन सके ।
तुम मेरे थे, तुम मेरे हो, तुम मेरे रहोगे,
उठता है अब जनाज़ा मेरे ग़म में शरीक हो !!"
नूर साहब अपना सिर पकड़ कर बैठ गये !सारी दुनियां को उन्होंने इंसाफ दिया था और ख़ुद वह अपनी बीबी के साथ इंसाफ़ नहीं कर पाये!
