गीता
गीता
यूं तो मैंने बहुत सी किताबें पढ़ी है। बहुत गुणी, प्रतिभा शील रचनाकारों की जिनके बारे में कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। चाहे अमृता प्रीतम जी हो, शरद चंद्र जी, बंकिम चंद्र जी, प्रेमचंद जी, शिवानी जी, उषा प्रियंवदा जी, जे के रालिंग जी, शेक्सपियर जी, अन्य अनेकों नाम जिन्हें मैंने पढ़ा ,जिन से मैंने सीखा और जिनसे मैंने दोस्ती की और वो किताबें मेरी बेहतरीन दोस्त साबित हुई, पर आज मैं जिस किताब की बात करने जा रही है, वह मैंने अभी अभी पढ़ना शुरू किया है, ज्यादा दिन नहीं हुए मुझे उसे पढ़ते हुए ; मैं यह नहीं कह सकती कि मैंने उसे पूरा कर लिया है पर मैंने जितना भी पढ़ा, जो भी पढ़ा मैंने पाया यह पुस्तक सबको पढ़ना चाहिए । और वो पुस्तक है " गीता "।
पहले मैं यह नहीं समझ नहीं पाती थी कि लोग कैसे कहते हैं कि यह पुस्तक सबको पढ़नी चाहिए, एक धार्मिक पुस्तक को पढ़ने में मन कैसे लग सकता है ,जिसकी आधी बातें आपकी समझ से परे हो , पर यह मेरी तब की सोच थी जब मैंने इस पुस्तक को पढ़ना शुरू नहीं किया था। ऐसा नहीं है कि धार्मिक पुस्तकों में मेरी रुचि नहीं , मैंने बहुत सी धार्मिक पुस्तकें पढ़ी है, महाभारत, रामायण भी पढ़ा है पर गीता पढ़ने का साहस मैं तब ना कर पाई। लगा संस्कृत कैसे पढूंगी ? क्या पता समझ में आएगा या नहीं पर मन मे कहीं ना कहीं एक इच्छा थी हमेशा से कि मुझे इस पुस्तक को पढ़ना है पर कैसे ?
कहते हैं ना जहां चाह वहां राह।
कुछ माह पहले मेरी इस्कॉन मंदिर की सदस्या से भेट हुई, मैंने उन्हें गीता पढ़ते देखा और फिर ऐसा हुआ कि मैंने देखा कि वह खाली समय में छत पर गीता पढ़ती रहती है।
मन में कौतूहल हुआ - एक ही पुस्तक इतने दिनों से कैसे पढ़ रही है और मैं जा पहुंची उन से बात करने। जबकि हैरानी की बात तो यह थी कि मैं तकरीबन 2 साल से उन्हें जानती हूं, यह भी जानती थी कि वह इस्कान की सदस्या है पर फिर भी कभी बहुत बातचीत नहीं होती थी हमने।
पर मैं अपनी दुविधा को रोक नहीं पाई और पूछ बैठी उनसे अपनी जिज्ञासा कि वह कैसे हर रोज गीता पढ़ती है और मुझे आश्चर्य हुआ यह सुनकर कि वह इस पुस्तक को सालों से पढ़ रही है।
तो मैंने उनसे पूछा कि पुस्तक इतने अच्छे समय से लगातार पढ़ रही है, बार-बार पढ़ रही है, आपका मन नहीं भरता और आप यह पूरी पुस्तक कैसे पढ़ते हैं बार-बार?
उन्होंने कहा- पढ़ा है कभी इसे ? मैंने कहा - नहीं मुझे संस्कृत नहीं आती अच्छी तरीके से।
तो उन्होंने मुझे श्री प्रभुपाद की लिखी हुई गीता दी और कहा कि इसे पढ़ो, इसमें हर श्लोक संस्कृत में दिए हुए हैं और उसका यथारूप वर्णन है हिंदी में, सरल सहज हिंदी में।
मैं खुश हो गई। फिर उन्होंने मुझसे कहा कि कैसे पढ़ना है पता है ? क्योंकि किसी के लिए भी गीता को लगातार पढ़ना आसान नहीं।
उन्होंने कहा कि एक नियम बना लो ।इसका केवल एक पृष्ठ या दो पृष्ठ ही रोज पढ़ो, उससे ज्यादा नहीं। एक ही पन्ना पढ़ो पर समझ कर पढ़ो, उसे समझो कि उसमें क्या कहा गया है।
मैंने सोचा - कौन सी बड़ी बात है।1 - 2 पन्ना 1 दिन में। मैं तो पूरा नावेल खत्म कर देती हूं दिन भर में।
तब कहां मैं जानती थी गीता क्या है?
और मैंने विचार कर लिया - ठीक है। फिर इसके दो पन्ने रोज पढूंगी रात्रि में सोने जाने से पहले। मुझे आदत है सोने से पहले पुस्तक पढ़ने की।
वैसे भी मैं बहुत मानसिक तनाव से गुजर रही थी, परिस्थितियां बहुत विकट थी मेरे सामने और मैं रात रात भर सो नहीं पाती थी। ऐसा लगता था जैसे सब कुछ मेरे हाथों से छूट रहा है। एक अजीब सी निराशा हो गई थी मन में।
मैं बहुत कोशिश करती थी कि मैं सहज रहूं, खुद को घर के कामों में व्यस्त रखूं, मैं रखती भी थी।
पर मेरा दिमाग सोचने से नहीं रुकता था। हाथ अपनी जगह चलते थे और दिमाग अपनी जगह। मेरे सिर में लगातार दर्द रहने लगा। बहुत मुश्किल होता है इस सच को स्वीकारना कि सारी सुविधाओं के होते हुए भी आप अपने सबसे प्रिय जन के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं और उस पल समझ में आता है इंसान कितना भी बेबस है अभी प्रकृति के आगे, परिस्थितियों के आगे।
मैं जानती थी कि मैं चाह कर भी अब कुछ नहीं कर सकती। हर तरफ से ना हो चुकी थी। इस सच को मुझे स्वीकारना ही था ,पर मैं स्वीकार नहीं कर पा रही थी।
मैं ईश्वर से सवाल करती थी कि ऐसा क्यों ? ऐसी कौन सी गलती हो गई , जो इतनी बड़ी सजा के हकदार है हम और इन परिस्थितियों में " गीता " मेरे सामने आई मेरे सवालों का जवाब बन कर।
पहली बार मैंने उसके दो पन्ने पढ़े, उन शब्दों को समझने की कोशिश की, फिर नियम से पढ़ने लगी और जैसे-जैसे मै बढ़ती गई, मैं यह समझती गई कि लोग क्यों कहते हैं कि "गीता " सबको पढ़नी चाहिए। ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिसका उत्तर " गीता "में नही।
और यह मैं तब कह रही हूं जबकि अभी मैंने उसके कुछ पृष्ठ ही पढ़ें है। मेरा अशांत मन शांत होने लगा। मैं यह समझने लगी कि बहुत सी चीजें, जो हमारे हाथों में होती नहीं, उनके लिए सोच कर , दूसरों को कष्ट देकर ( क्योंकि आप का चिड़चिड़ापन, आपके मिजाज का प्रभाव आपके परिवार पर पड़ता है ) कोई फायदा नहीं ।
जीवन जो है, जैसे है, उसे वैसे ही स्वीकारना चाहिए।
हम जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश तो कर सकते हैं, पर हर कोशिश कामयाबी की ओर बढ़े ; यह जरूरी नहीं। हार से हारना नहीं है और जीत को सर पर चढ़ने नहीं देना है।
किसी दूसरे के पास है, मेरे पास नहीं है ,मुझे क्यों नहीं मिला इन तमाम बातों में कुछ नहीं रखा है। इंसान ना कुछ लेकर आता है और नहीं वह कुछ लेकर जाएगा। हमारे जाने के बाद अगर हम किसी की यादों में, अच्छी यादों में जगह बनाए, कोई हमें याद करें, उसके मन में हमारे लिए अच्छे भाव हो यही यहां रह जाता है।
किसी के जीवन का सुंदर हिस्सा बनकर जीना है, जीवन की सुंदर याद बन कर मन में रहना है। यही जिंदगी है। सिर्फ़ यही चंद शब्द अगर इंसान समझ जाएं तो दुनिया की आधी से ज्यादा बुराइयों का अंत हो जाएगा।
अभी जो परिस्थितियां चल रही है पूरी दुनिया में, मुझे लगता है कि यह वक्त है अपनी जड़ों की तरफ लौटने का। प्रकृति को जानने और समझने का और मेरा विश्वास कीजिए अगर आपके मन में उलझन है तो गीता पढ़ें। यह पुस्तक सिर्फ एक पुस्तक नहीं, एक जीवन दर्शन है। यह सिर्फ आपको सही और गलत ही नहीं बताता , आपको कर्म और फल दोनों के अर्थ बताता है, जिसे जानना और समझना हमारे लिए बहुत जरूरी है। जीवन में शांति और सुख का होना बहुत आवश्यक है और अभी जब हम घरों में बंद है क्या हम कुछ मिनट निकालकर इस पुस्तक को नहीं पढ़ सकते ? इसे धर्म के नजरिए से मत देखिए, इसे जीवन के नजरिए से देखिए और तब पढ़िए । विश्वास करे इससे अच्छी पुस्तक नहीं हो सकती , यह आपकी पूरी जीवन धारा बदल देगा, जीवन को देखने के नजरिए को हमेशा के लिए बदल देगा, मैंने इसे महसूस किया है, आप भी करे। हरे कृष्ण