Tulika Das

Children Stories Inspirational Children classics

4.5  

Tulika Das

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सुधीर आचार्य जी और हिंदी संसार

सुधीर आचार्य जी और हिंदी संसार

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तब मैं कक्षा चतुर्थ में पढ़ती थी। इस विद्यालय में मेरा नया प्रवेश हुआ था, ज्यादा दिन नहीं हुए थे पर चूंकि कुशाग्र बुद्धि रही हमेशा से मेरी , (ईश्वर की दया है) इसलिए शिक्षकों के बीच अपनी पहचान बना चुकी थी। पर स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से मैं कमजोर थी। अकसर मैं विद्यालय नहीं जा पाती। घर पर तो ट्यूशंस के सर पढ़ाने आते थे इसलिए अपनी पढ़ाई को कोई नुकसान नहीं पहुंचता जो भी मेरा विद्यालय में छूट जाता है उसे घर पर पढ़ लेती।

एक बार की बात है तकरीबन 10 - 15 दिनों बाद मैं विद्यालय गयी। चौथी घंटी हमारी हिंदी की घंटी होती थी जो सुधीर आचार्य जी लेते थे। सुधीर आचार्य जी मेरे सबसे प्रिय शिक्षकों में से एक है। उनकी पढ़ाने की शैली इतनी अच्छी और इतनी सरल और सुंदर होती थी कि मैं उसे शब्दों में बयां नहीं कर सकती। उनकी खास बात बताऊ ? अकसर शिक्षक कक्षा  में आते ही कहते हैं‌- किताबें निकाल लो, पर सुधीर आचार्य जी के साथ उल्टा था ; वे आते तो कहते किताबें बंद कर दो और वो हमें नई कहानियां, कविताएं कई ऐतिहासिक प्रसंग और जाने कैसी अद्भुत बातों की दुनिया में ले जाते, कितनी ही बातें बताते और जब उनकी बातें पूरी हो जाती तो कहते -  किताबे निकालो सब, कुछ पढ़ना भी  है कि नहीं ?

और मजेदार बात की जब हम अपनी किताब खोलते तो हमें पता चलता कि जो पाठ हमें पढ़ना था उस समय ; वह तो आचार्य जी ने बातों-बातों में पढ़ा दी। फिर शुरू होता सवाल-जवाब का सिलसिला और यकीन मानिए कक्षा में कोई ऐसा नहीं होता जो प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाता क्योंकि हमने जो पढ़ाई की , वह पढ़ाई की तरह तो की ही नहीं थी वह तो किस्से और कहानियों की , बातों की दुनिया थी जिसमें सुधीर अचार्य जी का एकछत्र राज चलता था।

तो हुआ यू कि मैं तकरीबन दस - पंद्रह दिनों बाद विद्यालय गई थी और दो दिन पहले सुधीर आचार्य जी ने मैथिलीशरण गुप्त की मशहूर कविता " कुछ काम करो कुछ काम करो" कक्षा में पढ़ाया था, उसका पूरा भावार्थ समझाया था पर मैंने यह कविता नहीं पढ़ी थी। विद्यालय तो खैर मै आई ही नहीं थी, घर पर भी अभी मैं वहां तक नहीं पहुंची थी।

सुधीर आचार्य की आदत थी वह अक्सर बिना बताए अपने घंटी में ही छोटी सी परीक्षा हमारी ले लिया करते थे, क्या कहते हैं आज कल के बच्चे - सरप्राइज टेस्ट। उस दिन वह आए और उन्होंने कहा कि कल जो कविता पढ़ाई है पुस्तक में निकालो। मैंने अपने साथी से पूछ कर कविता निकाल ली और कविता देखते ही उस दिन के सरप्राइज टेस्ट ने मुझे सरप्राइज कर दिया। मैंने सोचा - " हो गया यह कविता तो मैंने पढ़ी नहीं थी "। तभी उन्होंने कहा 10 मिनट का समय है , जल्दी से हमें लिखकर दिखाओ।

एक ही अच्छी बात यह थी कि हमें कविता देखकर भावार्थ लिखना था और वैसे श्री मैथलीशरण गुप्त की ये कविता बहुत सरल भाषा लिखी गई है।

सुधीर आचार्य जी मुझे बहुत मानते थे। मेरी हिंदी  बहुत अच्छी थी , मात्रा कभी ग़लत नहीं लगाती थी।‌ मैं चक्कर में पड़ गई, मुझे ऐसे यह कहना अच्छा नहीं लगा की यह कविता मैंने पढ़ी नहीं है। मैंने सोचा कि चलो कोशिश करते हैं, इतनी मुश्किल तो है नहीं और मैंने लिखना शुरू किया। थोड़ी देर बाद मैंने पाया कि मैं कक्षा में सबसे पहले इसका अर्थ लिख चुकी थी और उस वक्त तक सभी लिख ही रहे थे और मेरा समाप्त हो चुका था। पर मैं अब कुछ कर नहीं सकती थी।‌मुझे लगा कि शायद मुझे बहुत कुछ समझ नहीं आया होगा तो मैं नहीं लिख पाई।‌ मैंने अपनी कॉपी ली और सुधीर जी के हाथ में जाकर अपनी कॉपी दे दी और वापस आकर अपनी सीट पर बैठ गई। आमतौर पर सुधीर आचार्य जी उसी वक्त जैसे-जैसे कॉपी मिलती जाती है उसे जांच करके संशोधन करके, जहां भी आवश्यकता है छात्र छात्रा को बुलाकर उसे समझा कर दे देते हैं। उस दिन उन्होंने मेरी कॉपी देखी फिर मुझे गौर से देखा और कापी बंद करके रख ली, मुझे नहीं दिया।

सच कहूं तो मैं थोड़ा डर गई, मुझे लगा कि बहुत गलती हो गई है, अभी शायद इसीलिए मुझे कॉपी नहीं दे रहे हैं और गलती के भी डर से मुझे इस चीज का डर ज्यादा था कि आज सबके  सामने डांट खानी पड़ेगी; क्योंकि मुझे कभी भी शिक्षक से डांट खाना पसंद नहीं आया और मेरा इस मामले में बहुत कम अनुभव है।

जो भी डांट  मैंने खाई है अपने पूरे छात्र जीवन में वह मेरी एक उंगली की गिनती पर गिन सकती हूं। और तब तक मैंने सिर्फ एक ही बार डांट खाई थी वह भी पढ़ाई की वजह से नहीं उसकी वजह दूसरी थी , किसी और दिन बताऊंगी। धीरे धीरे कक्षा के बाकी बच्चों ने भी अपनी कॉपियां उनके पास जमा कर दी। सुधीर जी एक एक कॉपी को देखकर, उस छात्र या छात्रा को बुलाते , कहां उसने गलती की, उसे उसकी गलती दिखाते और कॉपी देकर वापस भेज देते।सारे बच्चों की कॉपियां जांच होकर उन्हें वापस मिल गई मेरी कॉपी अभी तक मुझे वापस नहीं मिली थी और उन्होंने मुझे बुलाया भी नहीं था। अब उनके हाथ में मेरी ही कॉपी थी। तभी उन्होंने मुझे बुलाया। मुख मुद्रा में गंभीर भाव था उनके। मैं गई उनके पास। उन्होंने गंभीर आवाज में कहा - तुम कल आई थी ? मैंने कहा - नहीं।

अपनी कॉपी वापस क्यों नहीं मांगी - फिर सवाल आया ?

मैंने कहा कि उसमे शायद बहुत गलती है? क्या उसमें बहुत सारी गलतियां हो गई है - मेरा डर मेरी जुबान पर आ ही गया। उन्होंने थोड़ा और गंभीर भाव से पूछा -  तुम कल नहीं आई थी  ? सही है ?

मैंने कहा - हां।

ये कविता तुमने आज से पहले कभी पढ़ी है ?

मैंने कहा  - नहीं।

उन्होंने फिर पूछा - क्या तुम्हें घर में किसी ने कभी पढ़ाई है ?

मुझे लग रहा था कि शायद बहुत बड़ी गलती हो गई है मुझसे और मैं परेशान हो रही थी। मेरी आंखो में नमी आ गई।मुझे लग रहा था मैं रो दूंगी पूरी कक्षा मुझे देख रही थी। मुझे लगा आज तो डांट पड़ी ही पड़ी है। मैंने इससे पहले कभी पढ़ाई की वजह से डांट नहीं खाई थी। इस से होने वाले ग्लानि की सोच सोच कर ही मेरी आंखों से आंसू आ गए। सुधीर आचार्य जी ने मुझसे कहा - आखिरी बार पूछ रहा हूं सच सच बताओ ; तुमने जो कविता का अर्थ लिखा है वह तुमने कैसे लिखा ?

अब तो मेरा रहा - सहा धैर्य भी जवाब दे गया।

मेरी आवाज भीग गई और मैंने कहा कि मैंने अपने मन से किया है ,‌जो भी समझ में आया, मैंने किसी से नहीं पूछा है अगर कोई गलती है तो वह मेरी ही गलती है।

सुधीर अचार्य जी ने फिर से पूछा - किसने कहा कि इसमें गलती है ? मैंने कहा ?

अब मेरे मुंह से आवाज नहीं निकली मैंने सर को ना मिला में हिला दिया।अब सुधीर आचार्य जी ने मुझे हाथ से अपने पास बुलाया और मुझे लगा कि अब मेरी पीठ पर कुछ पड़ा, क्योंकि यह जब की बात है तब शाबाशी और डांट दोनों एक ही जगह मिलते थे और वह जगह थी पीठ। आज कल के जैसा माहौल नहीं था तब।

धप्प और मेरे कंधे पर उनका हाथ आया और आंसू मेरे आंखों से गालों पर उतर आए।

तभी सुधीर आचार्य जी हंस पड़े, और मुझसे कहा कि तुलिका रो क्यों रही हो ? तुमने बहुत सुंदर लिखा है, जो उपमा तुमने दी है कि "जीवन रूपी भूल-भुलैया " ये तो इतनी छोटी कक्षा में कोई दे मैं सोच भी नहीं सकता।" शाबाश।"

और मैं हैरान उनका चेहरा देख रही थी।

उन्होंने आगे कहा - तुम हिंदी में बहुत अच्छे से भाव लिखती हो, उपमाएं देती हो, व्याकरण तो तुम्हारा अच्छा है ही, तुम्हारी सोच भी बहुत अच्छी और समृद्ध है तुम्हारी उम्र के हिसाब से। खूब किताबें पढ़ो , थोड़ी बड़ी हो जाओ तो अलग-अलग उपन्यासकारों के उपन्यास पढ़ो, इससे तुम्हारी भाषा मजबूत होगी। तुम्हें विज्ञान में बहुत रुचि है ना ( वो ये बात जानते थे ) बहुत अच्छी बात है पर तुम हिंदी में भी अच्छा कर सकती हो।

और इन शब्दों ने जैसे मेरी मन पर पड़ी सारी दुविधा की परत उतार कर फेंक दी। एक ही पल में एक नई ऊर्जा से और नयी खुशी से भर उठी। आचार्य जी के कहे वो शब्द मेरी जिंदगी से जुड़ी मेरी हिंदी से जुड़ी हुई पहली सबसे खूबसूरत याद है। उनके वो शब्द आज भी मुझे ऊर्जा और प्रेरणा देते हैं। आपको पता है, मैंने आगे जाकर जंतु विज्ञान से पी एच डी की पर हिंदी हमेशा साथ रही, एक हाथ में विज्ञान की किताबें और दूसरे में प्रसिद्ध उपन्यासकारो के उपन्यास।‌ बहुत छोटी उम्र से मैं अपनी डायरी से बातें करती और उसमें लिखती, फिर एक समय ऐसा आया जब जीवन की आपाधापी में उपन्यास तो हाथों में रहे पर कलम छूट गया। आज मैंने दोबारा यह कलम पकड़ी है तो इसके पीछे कुछ लोगों की प्रेरणा तो है पर सबसे पहले जो बीज सुधीर आचार्य जी ने मेरे मन में बोया था, आज वही अंकुरित हो रहा।

सुधीर आचार्य जी आज आप जहां भी है, मैं आजीवन आपकी ऋणी रहूंगी। आपको मेरा धन्यवाद और नमन, ये सारे शब्द आप को समर्पित।

आपकी - तुलिका (जिसे आपने हिंदी के सुंदर संसार से मिलाया)।  


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