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Dr. Tulika Das

Comedy Drama Inspirational

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Dr. Tulika Das

Comedy Drama Inspirational

मेरी पहली रसोई

मेरी पहली रसोई

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यूं तो मैं सारे काम कर सकती थी, सिलाइ - कढ़ाई, साफ सफाई, घर सजाना, जन्मदिन पर कमरा सजाना, महफिलों में अपने कदमों की ताल से रंग जमाना,घर के बाहर के काम, बैंक के काम सब आते थे, रंगोली और अल्पना बनवा लो मुझसे पूरे घर में, नौकरी भी करती थी और क्या चाहिए भला ? सोच में पड़ गये ना कि मैं ये बातें क्यो बता रही हूं। तो ऐसा है कि मेरे इस सर्वगुण संपन्न होने में एक ही रोड़ा था जिसे हिलाने की भी कोशिश नहीं की थी कभी ? कुछ समझे ? बता ही देती हूं तो ऐसा है कि मेरे ये सारे गुण एक दहलीज पर जाकर रूक जाते थे और वो दहलीज थी रसोई। चाय, आमलेट और हलवे के अलावा और कुछ नहीं आता था,। सूजी का हलवा मुझे बहुत पसंद हैं इसलिए सीख लिया था। अब घर में तो किसी को फर्क पड़ता नहीं कि कुछ पकाना आता नहीं, कुछ ये भी बात थी कि बंगाली परिवारो में बहुत जोर नहीं दिया जाता ये सब सिखाने पर क्योंकि ये माना जाता है कि खाना पकाना भी सिखाने की चीज है, ये तो कड़ाही कल्छुल हाथ में आते ही सीख जाते हैं।

अब समय के साथ मेरी शादी का भी समय आ गया, मेरी बड़ी मां ने पहले ही बता दिया कि बेटी अभी तक किताबों के साथ ही रही है, खाना पकाना नहीं आता। पर जैसा कि मैंने पहले ही बताया था कि बंगाली परिवार में ये कोई मुद्दा ही नहीं। सीख जाएगी, इसमें कौन सी बड़ी बात है, लड़कियों को भी खाना पकाना सिखाना पड़ता है क्या ? ये तो उनके खून में होता है - मेरे भावी ससुर जी ने कहा। और मैं उनकी बात सुनकर सोच रही थी कि जंतु - विज्ञान से पी एचडी करने जा रही मैं, पर रक्त का ये गुण तो कभी नहीं पढ़ा। पर खैर बात अपने फायदे की हो तो कौन पड़ता है बहस में।

हो गयी मेरी शादी, और मैं कलकत्ता चली आई‌। बहु भोज के अगले दिन एक हफ्ते के लिए शिमला चले गए।

देखते ही देखते दिन बीत गए और हम वापस कलकत्ता आ गये।

अभी घर के दरवाजे पर ही खड़े थे कि पापा जी (ससुर जी) की आवाज सुनाई दी, लग रहा था कि किसी पर नाराज़ हो रहे। दरवाजा मेरे इकलौते देवर जी ने खोला। इन्होंने पुछा - क्या हो गया,किस पर नाराज़ हो रहे? पहले अंदर तो आओ,पता चल जाएगा - जवाब मिला।

सामान कमरे में रख कर हम बाहर आए, सामने ही मां जी और पापा जी खड़े थे। हम आगे बढ़े,पांव छूकर प्रणाम किया, (ऐसे संस्कार घर और हमारे विद्यालय ने हम में कूट कूट कर भर दिए हैं। )।

तभी मेरी नजर एक सूटकेस पर पड़ी जिसका हैंडल सासू मां के हाथ में था। तभी सर पर हाथ नहीं दिया आशीर्वाद देते वक्त, मैंने सोचा तभी दिमाग में घंटी बजी - ये कही जा रही है क्या ? सोचने की देर थी कि जवाब मिल गया।

देखो मैं दो दिन के लिए अपने ममेरे भाई की शादी में जा रही हूं, आज का गाना बना दिए हैं, बाकी तुम तो हो ही, संभाल लेना - मां जी (सासू मां)।

ये सुनकर तो मुझे सदमा लग गया और सकते की हालत में मुंह से निकला - हां ? और मेरे इस प्रश्न वाचक हां को मेरी सासू मां ने स्वीकृति की हां समझ ली।

देखिए उसने हां कहा, आप तो ऐसे ही घबराते हैं, अरे बड़े घर परिवार की बेटी है, सब संभाल लेगी - मां जी।

पता नहीं ये मुझे चैलेंज था या ताना, मैं समझ नहीं पाई, मुश्किल से पंद्रह दिन ही हुए थे शादी को।

अरे तुम समझ नहीं रही, इसने कभी रसोई में काम नहीं किया, विदाई के वक्त भी इसकी बड़ी मां ने बार बार कहा है - पापा जी।

हां तो दो दिन बाद मैं चली ही आऊंगी ना,तब तक संभाले, सब कह रहे हैं कि अब तो बहू आ गई,उस पर घर छोड़ो, मैं तो जाऊंगी ही - मां जी। फिर मेरी तरफ मुड़ कर - सब ध्यान रखना,मैं निकल रही हूं, भाई आ रहा है लेने और दस मिनट में वो निकल भी गई।

मैं तो सुनती और देखती रह गई, ऐसा लगा शिमला के वो पहाड़ मेरा पीछा करते हुए यहां तक आ गये और मेरे सिर पर बड़े बड़े बर्फ के गोले मार रहे। खैर शाम ढलने लगी थी  और रात का खाना बना हुआ था तो उस वक्त तो परेशानी ना हुई। पर रात को सोते हुए चिंता होने लगी कि सुबह कैसे सब होगा?

पर मैंने बताया ना, नहीं बताया क्या, तो अब बता देती हूं, मुझे पढ़ने का बढ़ा शौक है, इसी शौक के चलते बंगला पढ़ना सीखा मैंने, आप सोच रहे होंगे कि इसमें क्या बड़ी बात है ? है ना मेरी पूरी शिक्षा हिंदी और अंग्रेजी में हुई है, तो उपन्यास पढ़ने के चक्कर में मैंने खुद बंगला पढ़ना सीखा। और दूसरी बात मैं जिद्दी हूं,हार मानने में परेशानी होती है तो जीतना जरूरी हो जाता है।

मुझे याद आया कि विदाई के थोड़ी देर पहले मेरे बड़े भैया ने मुझे दो पतली किताबें दी थी -, "रोज के बंगाली खाने "। मैं उसी वक्त उठी और किताबें ढूंढ निकाली,‌ फिर सो गयी, सुबह देखेंगे सोच कर।

आदत के अनुसार नींद भोर में ही खुल गई, मैं उठी और चाय बना कर ले आई और उस किताब को पढ़ना शुरू किया, मैं देख आई थी कि फूलगोभी रखी हुई है रसोई में।

पर किताब पढ़ कर मुझे कुछ समझ नहीं आया, नहीं किताब लिखने वाले की कोई गलती नहीं थी, उसे क्या पता था कि एक दिन ऐसी लड़की इस किताब को पढ़ेगी जिसका मसालों से कोई परिचय नहीं। तो उससे क्या ? ईश्वर ने बुद्धि तो भर भर के दी है। और भला हो मोबाइल के अविष्कारक का, सौ साल जिए वो।

मोबाइल और किताब हाथ में लिए मैं रसोई में आ गई।

पर मसालों की पहचान से ज्यादा मुश्किल काम था मसालों के डिब्बे ढूंढ कर निकालना, क्योंकि मुझे तो पता ही नहीं था कि कहां क्या रखा है ? पर आखिरकार मैंने ढूंढ लिए। अब उन्हें पहचानने की बारी थी, लगाया मैंने अपनी मां को फोन। हाल चाल बता कर जब मैंने बताया कि मसालों की पहचान बता दें तो वो भी चौंक गयी। तुम्हारी सास कहा है, उनसे पूछो। जब मैंने पूरी बात बता दी तो वो दंग रह गयी, कैसे करोगी तुम जब रसोई घर से ही अनजान हो, बिना कुछ दिखाएं बताएं नयी दुल्हन को छोड़ कर कोई कैसे जा सकता है, उनका तो सदमा ही कम ना हो रहा था। किसी तरह उन्हें शांत किया, समझाया कि मुझे ही जब करना है तो क्या आज क्या कल ?

पर पता है जीरा पाउडर, खड़ा जीरा, धनिया पाउडर काला तिल,सरसों दाना, इनके रंग और खुशबू से इनकी पहचान, उफ इनसे आसान तो कोई मुझसे दोबारा एम एस सी के सारे परीक्षाएं दिलवा दे।

खैर मसालों से जान पहचान कर ली मैंने।

अब एक नयी समस्या सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी, वो थी सब्जी काटना,। आप सोच रहे होंगे कि ये भी कोई समस्या है ? तो है ना बंगाली खाने में हर रेसिपी में सब्जी अलग-अलग तरीके से कटती है। किताब तो इस मामले में मेरी मदद करने से रही, तो मैं वापस मोबाइल की शरण में गयी।

मां गोभी कैसे काटते हैं , नीचे वाला हिस्सा फेंक देना है ना - मैंने पूछा। अब थी मुश्किल कि वो कैसे बताएं दस साल पहले वाटसअप का चलन तो था नहीं या शायद हो भी तो मुझे नहीं पता। मां ने कहा जब तुम गोभी की सब्जी खाती थी तो देखा था ना कैसे टुकड़ों में काटें होते हैं, वो तो ठीक है मां पर सब्जी का स्वाद याद है, खाते हुए कौन सब्जी के टुकड़ों पर गौर करता है, वैसे भी मेरी आंखें तो,.....

किताब में डूबी रहती थी - मां ने मेरा वाक्य पूरा कर दिया।

पीछे से बड़ी मां की आवाज आई - सौ बार समझाए कि खाते वक्त किताब नहीं पढ़ते, पर मेरी सुनता कौन है ? हां तो अब सुन रही हूं ना, लंबाई चौड़ाई माप बता दो आप - मैंने कहा। हां सब्जियों को इंच टेप से नाप कर काट लो -जवाब मिला। पर आखिरकार मां ने उंगली के नाप से समझा ही दिया कि कैसे काटना है। फिर पूरी विधि भी बताई जो मैंने फटाफट कापी में लिख ली।

फिर सब्जियां कटी भी और बनी भी और अच्छी बनी, शिक्षा और मां हमेशा संभाल लेती है चाहे परिस्थितियां जो भी हो।

अब बारी थी दाल की पर मुझे कुकर की समझ नहीं थी। ये बहुत अच्छी बात है कि मंसूर की दाल कड़ाही में भी बन जाती है, तो वो भी मां से पूछ कर और किताब की मदद से बना ली।

इतने में साढ़े नौ बज गए, नाश्ते का समय। मुझे तो ये भी नहीं पता था कि ये लोग नाश्ते में क्या लेंगे। अच्छी बात ये थी कि सभी को दूध ब्रेड खाना था, जो मैंने फटाफट दे दिया। आमतौर पर मैं रोटी खाती हूं नाश्ते में,पर उस दिन मैंने भी ब्रेड पर काम चला लिया, मजबूरी है समझें जरा, रोटी बनानी आती कहां है।

अब आलू की भूजिया बनाई और सबसे मुश्किल काम चावल बनाना बाकी था। बंगाली परिवार में कुकर के चांवल पसंद नहीं करते तो हाड़ी (एक मटके की तरह का बर्तन) में बनाना था। मेरे लिए तो दोनों ही मुश्किल थे , मां से बात की तो उन्होंने कहा कि हाड़ी में बनाओ ताकि देख सको कि पका या नहीं चावल। उनकी सलाह के अनुसार चावल चढ़ा भी दिए और सही समय पर उतार कर माड़ भी निकाल दिए।

खिले खिले चावल देख कर मन भी खिल गया और रसोई के डर से आजादी भी मिल गई, उनसे पहचान जो हो गई थीं।

सबने बहुत अच्छे से खाया।

अगले दिन शाम को सासुमा का फोन आया कि वो अभी हफ्ते दिन और रहेंगी। मैंने ये चुनौती स्वीकार की और उन दस दिनों में हर तरह की सब्जी, नानवेज भी बनाना सीख गई।और मुझे याद आई वो बात कि खाना पकाना भी कोई सिखाता है क्या, कड़ाही और हाड़ी सब सिखा देते हैं।

मुझे कभी शर्मिंदा नहीं होना पड़ा किसी के सामने। किताबों ने यहां भी मेरा खुब साथ निभाया।शिक्षा हमेशा काम आती है। इसलिए आज भी खाते वक्त किताब पढ़ने की आदत गई नहीं मेरी, और डांट भी वैसी ही पड़ती है।

सबसे मजेदार बात जब सासूमां ने लौट कर पूछा कि सब ठीक रहा ना ? तो मैंने भी हंस कर कहा- बड़े घर परिवार की बेटी हूं, तो संभालना तो आएगा ही ना।

तो ये थी मेरी पहली रसोई, किताबों और मोबाइल और सबसे ज्यादा अपनी मां और मायके के साथ, वो भी अपनी ससुराल की रसोई में।

आप को कैसी लगी, स्वाद तो है ना, नमक और मसाले कम तो नहीं, बताइएगा जरूर, मसाले पहचानती हूं मैं अब। आपके जवाब का इंतजार रहेगा। 


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