टिफिन में बंद सच
टिफिन में बंद सच
मैं उसे हर रोज़ देखती थी, पर कभी बात नहीं की थी, क्यों ? क्योंकि पूरी कक्षा में कोई भी उस से बात नहीं करती थी, फिर मैं भी स्वभाव से अंतर्मुखी थी। पर मुझे उसे देखना अच्छा लगता था, या शायद ये कहूं तो बेहतर होगा कि उत्सुकता थी ये जानने की क्यों सब उससे और वो सबसे दूर रहती थी। फिर धीरे धीरे वो मेरी नजरें पहचानने लगी, जब भी हम दोनों की नजरें मिलती, हम मुस्कुरा देते पर बातें अब भी ना होती थी। उसी दौरान मैंने एक बात गौर की, टिफिन की घंटी बजते ही हम सब अपना टिफिन टेबल पर रख देते, वो भी रखती, यही नियम था स्कूल में पर उसके बाद ? मैंने कभी उसे टिफिन खोलते नहीं देखा था, कभी कुछ खाते भी नहीं दिखी वो।जब मैंने ये बात गौर की तो कई बातें और भी सामने आने लगी। मैं खुद पर हैरान थी कि मैंने पहले क्यों नहीं देखा ये, शायद इसलिए कि वो बेहद प्यारी थी, इतनी कि वो उन बेहद पुराने कपड़ों में भी उसका रूप दमकता रहता। वो स्कूल यूनिफॉर्म की स्कर्ट जिसका उड़ा हुआ रंग बताता था कि कभी किसी जमाने में वो नीले रंग की रही होगी, वो सफ़ेद शर्ट जो सफेद थी या पीली पता नहीं चलता था। हर सोमवार जब यूनिफॉर्म चेक करती थी मैम, उसे जरूर टोकती थी, वो सर झुकाए सुनती मैम की बात और वो बातें भी जो उसे, उसके कपड़ों को लेकर बाकी लड़कियां करती थी। हैरानी इस बात की भी थी कि वो कभी रोती भी नहीं थी, तब कहा जानती थी मैं कि उसे रोने की भी इजाजत नहीं थी।
उसी दौरान स्कूल में एक नया नियम और लागू हो गया। हमारे लिए तो वो बस एक नियम था पर उस नियम को सून कर उसके चेहरे पर एक दर्द का साया लहरा कर चला गया। अगले दिन से नये नियम के अनुसार हम सभी एक फल लाने लगे और वो? उसके टिफिन के साथ एक छोटा पुराना डिब्बा आने लगा। मैंने उसे कहते सुना- मैम इसमें सेब कटे हुए हैं। पर वो डिब्बा भी फिर कभी मैंने खुलते नहीं देखा, उसके टिफिन की तरह। फिर मैंने ये भी देखा कि उसके पास थरमस भी नहीं था। मैं जितना गौर करती जा रही थी उतनी ही उलझती जा रही थी।
अब मैं सब जानना चाहती थी,उस उलझी हुई लड़की को पहचानना चाहती थी। मैंने सबसे उसके बारे में पूछना शुरू किया, सिर्फ इतना पता चला कि उसकी मां नहीं है। पर पापा तो है ना - मैंने कहा। कोई जवाब नहीं, होता भी कैसे ? कोई उसके बारे में कुछ जानता ही नहीं था। जाने भी क्यों उसके कपड़े,बैग, किताबें सब जैसे सालों पुराने थे, जो क्लास की दोस्ती में आड़े आ गये थे। पर मुझे तो उसे जानना था।
अगले दिन मैं उसकी बेंच पर थी, सबसे आखिरी बेंच और आखरी सीट। मेरी क्लासमेट्स हैरान थी,पर मैं भी मैं थी। वो आई, थोड़ा ठिठक कर मुझे देखा, मैंने मुस्कुरा कर बैठने का इशारा किया। वो बैठ गई। थोड़ी देर बाद मैंने पूछा- नाम क्या हैं तुम्हारा ? हो गये ना हैरान ?दरअसल किसी को कभी उसे पुकारते सुना ही नहीं तो नाम
कैसे जानती ? एक धीमी सी आवाज आई - रेहाना और तुम्हारा?
नीलिमा - मैंने कहा। बस इतनी ही बात हुई कि मैम आ गई और कक्षाएं शुरू हो गई । चौथी घंटी के बाद जब टिफिन की घंटी बजी और मेरी उत्सुकता जाग उठी। सबके टिफिन हाथों में थे, थोड़ी देर बाद ही मेरे दोस्त मेरे बेंच पर आ गई, रेहाना उठ कर जाने लगी और मैंने उसका हाथ पकड़ लिया, आज तो हमारे साथ ही टिफिन खाना पड़ेगा और वो कुछ समझती उससे पहले ही उसका टिफिन मेरे हाथों में था। वो ना ना करती रह गई और मैंने टिफिन खोल दिया और खुल गया उसके दूर दूर रहने का राज भी।
वो टिफिन बिल्कुल खाली था, हम सब दंग रह गये, रेहाना वहीं बेंच पर बैठ गयी। हम सब इस सच को समझने के लिए बहुत छोटे थे। नौ साल की उम्र होती ही क्या है ? क्यों - मेरे मुंह से निकल पड़ा। वहीं धीमी आवाज फिर सुनाई दी, मेरी मां सौतेली है। इससे ज्यादा ना कुछ कहने की जरूरत थी ना सुनने की। तभी दूसरे क्लास के बच्चों की आवाज ने उस अनकहे शोर को बंद कर दिया, आज खेलना नहीं है क्या ? और थे तो हम बच्चे ही, चट से सुलझा लिए समस्या। आज हमारे साथ खाओ रेहाना फिर खेलना भी तो है, वो दायरा जो हममें और उसके बीच था पर भर में हमने पार कर लिया। अगले ही पल वो उदास सी लड़की अपनी उदासी भूल हमारे साथ थी।
धीरे-धीरे परतें खुलती गई। रेहाना के पापा एक कामयाब डाक्टर थे। अपनी पत्नी के असामयिक निधन के बाद उन्होंने दूसरी शादी की, ताकि रेहाना का मासूम बचपन मां की छांव में गुजरे। मां तो मिली पर सौतेली। पहले पहल तो उसे खाने पीने की तकलीफ़ नहीं थी पर जब उसके दो भाई बहन आ गये तो जिंदगी उसके लिए तंग होने लगी। कब शांत स्वभाव की रेहाना दबती चली गई उसके पापा को भी पता ना चला, वैसे भी डाक्टर बहुत व्यस्त होते हैं। दिन बीत जाते रेहाना अपने पापा की शक्ल तक ना देख पाती,तो वो अपनी बातें कैसे कहती।
पर अब उसके पास हम थे जिनसे वो बातें करती, खुश रहती।
पर उसके कपड़े अब और भी बुरी हालत में आ गये थे, छोटे भी हो गये थे। उसे रोज सुनना पड़ता पर अब हमें भी बुरा लगता था। कुछ ना कुछ तो करना पड़ेगा, इसके पापा को दिखाना होगा कि उनके बाकी बच्चे कैसे आते हैं और ये कैसे आती है? पर उपाय ?
अगले दिन जब वो फिर डॉट का रही थी, मैं अचानक खड़ी हो गई। मैम ! इसके पापा को बुलाकर इसके सामने कहिए, ये शायद कहती ही नहीं होगी उनसे - मैंने कहा। मैं आमतौर पर बीच में कभी नहीं बोलती पता नहीं उस दिन कैसे साहस कर लिया, जबकि मैं जानती थी कि मैम को इस तरह बोलना पसंद नहीं आएगा। पर कहते हैं ना कि इरादे नेक हो तो ईश्वर भी साथ देता है। पूरी क्लास इस इंतजार में थी कि अब पड़ी डांट पर मैम को आइडिया भा गया। अगले दिन रेहाना को आफिस में बुलाया गया, उसके पापा आए थे। हम नहीं जानते कि क्या बातें हुई पर दो दिन बाद रेहाना नये यूनिफॉर्म में हंसती मुस्कुराती हमारे सामने थी। उसका बैग भी नया था। कुछ नयी कापियां भी थी, अब उसे हमसे पेज मांग कर लिखने की जरूरत नहीं थी। हां टिफिन में अब रोटी रहती तो थी पर बासी, खैर हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वो रोटी कौओं को दे देते और वो हमारे साथ खाती। इस बीच एक और बात हुई, नये यूनिफॉर्म की वजह से उसे सजा भी मिली, ना स्कूल में नहीं, घर से। हर रोज उसे अपने दोनों भाई बहन का बैग, वाटर बोतल ले जाना और ले आना पड़ता। ये क्लास ४की छोटी सी बच्ची के लिए बहुत ज्यादा वजन हो जाता था
पर फिर भी वो खुश थी। मुझे समझ में नहीं आता था कि मैं उसके लिए खुशी महसूस करूं या उसकी बेबसी का दुःख मनाऊं। फिर भी उसकी निश्छल हंसी मन में खुशी भर ही देती जब वो कहती अपने भाई बहन के लिए ही ना करती हूं।
दो साल हम साथ रहे, क्लास ६मे उसने अचानक आना बंद कर दिया। तब तो साधन भी नहीं थे कि उससे बात कर सकूं। मैम ने बताया कि उसकी मां ने स्कूल से उसे निकाल लिया है। उसके भाई बहन वहीं पढ़ते थे, पर वो भी अपनी दीदी के साथ सौतेला रवैया रखते थे। मैं एक बार उससे बात करना चाहती थी पर ये मुमकिन नहीं हो पाया। दो साल बाद जब हम क्लास ८ की परीक्षा देकर नौवीं में जा रहे थे तो सुने कि रेहाना की शादी हो रही है। मुझे ये सुनकर कोई खुशी नहीं महसूस हुई। खैर उस वक़्त तो मैं उतना नहीं समझती थी कि शादी का क्या मतलब है, बस ये पता था कि उसका घर बदल जाएगा, तो दुआ की वो खुश रहें। पर आज जब सोचती हूं कि इतनी कच्ची उम्र में शादी का बोझ उसने कैसे उठाया होगा, तो ऐसा लगता है कि कहीं कुछ दरक गया हो अंदर। क्या मेरी दुआएं उस वक्त कबूल हुई थी, मैं नहीं जानती। पर मैं आज भी दुआ करती हूं कि जहां भी रहो खुश रहो मेरी दोस्त।
