फ़र्ज़
फ़र्ज़
"संस्कारों की रक्षा करो, संस्कार आपकी रक्षा करेंगे।"
"इसका क्या मतलब होता है, बाउजी ?" गुड़िया पूछती रहती और बाउजी कहते "कुछ नहीं, जब बड़ी होगी तो समझ जाओगी।"
करीब बारह वर्ष की थी गुड़िया। दादाजी के साथ रहकर कई मंत्रों और श्लोकों को कंठस्थ कर चुकी थी। इतनी कम उम्र में संस्कृत पढ़ना भी सिखा दिया था दादाजी ने उसको। दादाजी के सभी पोते और पोतियों में सबसे लाड़ली थी वो।
"चलो गुड़िया, आज "बड़े-घर" जाना है हमको, बड़ी दादी के पास। उनकी तबियत ठीक नहीं है।" ऐसा कहते हुए दादाजी ने गुड़िया को लाल कपडे में लिपटी हुई एक किताब थमा दी और कहा "इसका एक पाठ बड़ी दादी को पढ़ कर सुनाना है तुम्हें, अब चलो।"
"बड़े-घर" में एक चारपाई पर बड़ी दादी लेटी हुई थीं। गाँव के डाक्साब (डॉक्टर) भी बैठे थे। पूरा परिवार बड़ी दादी के पास इकठ्ठा हो चुका था। दादाजी के इशारा करते ही गुड़िया ने किताब खोली और दादाजी के कहे अनुसार उसका अट्ठारहवाँ पाठ पढ़ना शुरू कर दिया। पाठ पूरा होते ही बड़ी दादी ने अपना कंपकपाता हाथ गुड़िया के सिर पर फेरा और आशीर्वचन देते हुए चिर-निद्रा में सो गयी।
पहले तो संस्कारों की रक्षा और अब वो किताब ? ऐसे कई सवाल गुड़िया के जिज्ञासु मन में चलते रहते थे और ये वृतांत गुड़िया के कोमल मन पर गहराई से अंकित हो चुका था।
कई वर्ष बीत गए। अब गुड़िया दादाजी से बहुत दूर हो गई थी। डॉक्टर बन चुकी थीं और परिवार भी बस चुका था। घर के बंटवारे में अब दादाजी भी बँट चुके थे। दादाजी अब छोटे चाचा और चाची के पास रहते थे, उनको लकवे का दौरा पड़ चुका था और अब वो अच्छे से बोल भी नहीं पाते थे।
अचानक एक दिन गुड़िया का मन बहुत विचलित हो गया। उसे बार-बार दादाजी की याद आ रही थी।एक फ़र्ज़ बार-बार उसकी अंतरात्मा को पुकार रहा था। "बस ! अब बहुत हो गया, मैं आज ही दादाजी से मिलने जाउंगी।" और गुड़िया निकल पड़ी गाँव के लिए।
दादाजी बिस्तर पर लेटे थे। अचानक अपने जिगर के टुकड़े को सामने देखकर दादाजी की आँखें गीली हो गई। बहुत कुछ कहना चाहते थे गुड़िया से, पर आवाज़ साथ छोड़ चुकी थी। गुड़िया दादाजी के सिरहाने जाकर बैठ गई। "आपकी किताबें कहाँ गई बाउजी ? " दादाजी की खाली अलमारी देख कर अचानक गुड़िया के मुँह से निकल गया। तभी चाची बोलीं "कोई पढ़ता तो है नहीं, कल ही सब रद्दी में दे दी।"
तभी दादाजी ने कुछ कहना चाहा पर आवाज़ ने फिर साथ नहीं दिया। लेकिन गुड़िया समझ चुकी थी। उसको अपना एक आखिरी फ़र्ज़ निभाना था। आज वो किताब अपने साथ लेकर आयी थी। उसने उसी तरह अट्ठारहवा अध्याय पढ़ कर दादाजी को सुनाया। दादाजी के चेहरे पर गहन संतुष्टि के भाव प्रतिलक्षित हो रहे थे और गुड़िया को भी अपने प्रश्नों के उत्तर मिल चुके थे और उसकी अंतरात्मा की पुकार भी अब शांत हो चुकी थी। गुड़िया अपना आखिरी फ़र्ज़ निभा चुकी थी।